वास्तुशास्त्र के 30 महत्त्वपूर्ण सूत्र जिनको हमेशा ध्यान में रखकर कार्य करना चाहिए।
वास्तुशास्त्र के 30 महत्त्वपूर्ण सूत्र
(1) जहां तक हो सके शौचालय की सीट उत्तर-दक्षिण के अनुसार रखें। सैफ्प्टिक टैंक उत्तर-पश्चिम या दक्षिण-पूर्व कोने में रखा जा सकता है।
(2) कूड़ादान सड़क की बत्ती या खंभा या बड़ा प्रमुख द्वार दरवाजे के सामने न हो।
(3) रसोईघर, शैचालय तथा पूजाघर एक-दूसरे के आस-पास न बनाएं।
(4) इमारत की ऊंचाई नैर्ऋत्य से ईशान की ओर घटनी चाहिए।
(5) मुख्यद्वार पर मूर्ति लगाना शुभ होता है।
वास्तुशास्त्र के 30 महत्त्वपूर्ण सूत्र
(6) घर का उत्तर-पूर्वी कोना घर के मुख के समान होता है, अतः उसे सदैव साफ-सुथरा रखना चाहिए।
(7) घर में पौधा लगाने के लिए, कीटाणुनाशक के पानी में सैंधव (सेंधा) नमक अथवा समुद्र से प्राप्त नमक मिला लेना चाहिए। इससे कीड़े-मकोड़ों का प्रभाव जाता रहता है।
(8) विद्यार्थी उत्तर अथवा पूर्व दिशा की ओर मुंह करके पढ़ें-लिखें।
(9) किसी बीम (धरन) के नीचे न तो बैठें न सोयें।
(10) युद्ध, अपराध, अशांति, आक्रोश या कष्ट का चित्रण करती हुई कोई पेंटिंग घर के मुख्य कमरे में न टांगें।
वास्तुशास्त्र के 30 महत्त्वपूर्ण सूत्र
(11) घर का मुख्यद्वार इस प्रकार निर्मित कराएं कि उस पर किसी की छाया न पड़े।
(12) वर्षा का पानी या नाली उत्तर-पूर्व। पूर्व-उत्तर की ओर बहनी चाहिए।
(13) जीने की सीढ़ियों के नीचे शौचालय और पूजाघर नहीं रखना चाहिए।
(14) मुख्य भवन पर प्रातः 9 बजे से मध्याह 3 बजे तक वृक्षों की छाया गिरे तो अशुभ एवं कष्टदायक होती है।
(15) चौकीदार अथवा गार्ड के लिए गृह सीमा के प्रवेश अहाते के समीप बनाना चाहिए। इसके क्वार्टरस् ग्रह सीप के अंतर्गत बाएं भाग में होने चाहिए।
वास्तुशास्त्र के 30 महत्त्वपूर्ण सूत्र
(16) भवन में सीढ़ी का द्वार पूर्व या दक्षिण दिशा में रखना शुभ फलदायक होता है। भवन के पश्चिम या उत्तर भाग में दाईं ओर निर्माण उत्तम होता है।
(17) पार्किंग हेतु, उत्तर-पश्चिम स्थान प्रयोग में लाना चाहिए।
(18) जिस भूमि पर भवन निर्माण करना हो, उस स्थान की मिट्टी खोदकर, बदलने और नई मिट्टी डालने पर भूमिगत किसी प्रकार का दोष ठीक हो जाता है।
(19) ईशान कोण ईश्वर का स्थान होता है। भवन में ईशान कोण में शौचालय अथवा गंदगी होना कष्टदायक होता है।
(20) प्रवेशद्वार उत्तर अथवा पूर्व में होना श्रेष्ठ है, मध्य में द्वार कदापि नहीं करना चाहिए। मध्य में द्वार होने से कुलनाश होता है।
वास्तुशास्त्र के 30 महत्त्वपूर्ण सूत्र
(21) गृहस्वामी का कक्ष पश्चिम अथवा दक्षिण दिशा में ही बनाएं। जहां तक हो सके दक्षिण-पश्चिम नैर्ऋत्य कोण में बनाएं। इससे गृहस्वामी का भारी-भरकम सामान भी इस दिशा में रखा जा सकता है।
(22) घर का विस्तार चारों दिशाओं में करना उत्तम है। केवल दक्षिण-पश्चिम में अथवा दक्षिण-पूर्व में विस्तार करने से धन हानि, क्लेश, आगजनी, दुर्घटना, चोरी, डकैती, स्वास्थ्य-हानि, अनावश्यक चिंता, क्लेश आदि होती हैं।
(23) शयनकक्ष में मदिरा का सेवन, तेल के डिब्बे, मूसल, अंगीठी, कीटनाशक आदि दवाएं नहीं होनी चाहिए। इससे मानसिक उद्वेग बढ़ता है। चिंता-परेशानी भोगनी पड़ती है।
(24) भूमिगत जल भंडारण उत्तर-पश्चिम दिशा में करने से वंशवृद्धि में रुकावट आएगी। धनहानि के साथ-साथ मानसिक अशांति और क्लेश से उबरा नहीं जा सकता। उपयुक्त स्थान उत्तर-पूर्व है।
(25) पशुशाला भवन में उत्तर पश्चिम दिशा अर्थात् वायव्य कोण में रख सकते हैं।
वास्तुशास्त्र के 30 महत्त्वपूर्ण सूत्र
(26) पूर्व एवं उत्तर दिशा में गृह की खिड़कियां एवं दरवाजे अधिक होने चाहिए, दक्षिण-पश्चिम की ओर कम।
(27) निर्माण स्थल की भूमि का ढलान उत्तर दिशा में एवं पूर्व दिशा में होना चाहिए, जिससे जल का निकास उत्तर-पूर्व दिशा में यानी ईशान कोण में हो।
(28) पूजा-अर्चन के समय हमेशा अपना मुंह ईशान की उत्तर दिशा अथवा पूर्व दिशा की तरफ रखें। इससे पूजा-अर्चन का पूरा फल मिलता है।
(29) यदि घर से निकलते समय दक्षिण की ओर मुंह रहता है तो इससे अनावश्यक परेशानी एवं हानि होती है। जहां तक हो सके इससे बचें।
(30) भवन अथवा जमीन का ईशान कोण (उत्तर-पूर्व) अन्य कोणों से बढ़ा हुआ हो तो सूर्यसिद्धि एवं सुखों का दाता है, दबा हुआ होना कष्टकारक होता है।
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