नई दिल्ली। गंगा नदी का प्रमुख स्रोत गंगोत्री ग्लेशियर पिछले 40 साल में 10% पिघल चुका है। इसका कारण क्लाइमेट चेंज है। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) इंदौर और अंतरराष्ट्रीय सहयोगियों के एक नए अध्ययन ने इस बदलाव को उजागर किया है। अध्ययन में पाया गया कि ग्लेशियर के प्रवाह में बर्फ के पिघलने का योगदान कम हो रहा है, जबकि बारिश से बहाव और भूजल प्रवाह बढ़ रहा है। यह बदलाव उत्तरी भारत के जल संसाधनों के लिए गंभीर चुनौतियां पैदा कर सकता है।
अध्ययन की मुख्य बातें : आईआईटी इंदौर के ग्लेशी-हाइड्रो-क्लाइमेट लैब की डॉक्टोरल स्कॉलर पारुल विंजे के नेतृत्व में यह अध्ययन जर्नल ऑफ द इंडियन सोसाइटी ऑफ रिमोट सेंसिंग में प्रकाशित हुआ है। इसमें अमेरिका के चार विश्वविद्यालयों और नेपाल के इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउंटेन डवलपमेंट के वैज्ञानिकों ने भी साथ दिया। अध्ययन में उपग्रह और वास्तविक आंकड़ों (1980-2020) का इस्तेमाल कर मॉडलिंग के जरिए गंगोत्री ग्लेशियर सिस्टम (जीजीएस) का विश्लेषण किया गया।
गंगोत्री के प्रवाह में बदलाव : बर्फ के पिघलने का कम होता योगदान : पिछले 40 वर्षों में गंगोत्री के कुल प्रवाह में बर्फ के पिघलने का का हिस्सा 64% रहा, जो ग्लेशियर का मुख्य स्रोत है। इसके बाद ग्लेशियर का पिघलना (21%), बारिश से बहाव (11%) और भूजल (4%) का योगदान है, लेकिन बर्फ के पिघलने का हिस्सा 1980-90 में 73% से घटकर 2010-20 में 63% हो गया। 2010-20 में सुधार : 2000-10 में बर्फ पिघलने का हिस्सा 52% तक गिर गया था, लेकिन 2010-20 में यह बढ़कर 63% हो गया।
शोधकर्ताओं ने बताया कि इस दौरान सर्दियों का तापमान 2 डिग्री सेल्सियस कम हुआ। सर्दियों में वर्षा 262 मिमी बढ़ी, जिससे बर्फ की मात्रा बढ़ी और गर्मियों में पिघला। गंगा का फ्लो बढ़ाया। तापमान में वृद्धि : 2001-2020 में गंगोत्री क्षेत्र का औसत तापमान 1980-2000 की तुलना में 0.5 डिग्री सेल्सियस बढ़ा। इससे गर्मियों में जल्दी पिघलना शुरू होता है। पीक डिस्चार्ज अगस्त से जुलाई में शिफ्ट हो गया है।
क्लाइमेट चेंज का प्रभाव : अध्ययन में पाया गया कि जलवायु परिवर्तन के कारण गंगोत्री क्षेत्र में कम बर्फबारी हो रही है, क्योंकि तापमान बढ़ने से बर्फ कम बन रही है, इसके परिणामस्वरूप… बर्फ के पिघलने में कमी : हिम क्षेत्र (स्नो कवर) और बर्फ के पिघलने से होने वाले प्रवाह में कमी देखी गई, जबकि बारिश से बहाव और भूजल प्रवाह बढ़ा है। पीक डिस्चार्ज में बदलाव : 1990 के दशक से पीक डिस्चार्ज जुलाई में होने लगा है, जो पहले अगस्त में होता था।
यह जलविद्युत उत्पादन, सिंचाई और उच्च ऊंचाई वाले क्षेत्रों में जल सुरक्षा के लिए चुनौती है। आंकड़े : 2001-2010 में उच्चतम दशकीय तापमान (3.4 डिग्री सेल्सियस) के साथ अधिकतम दशकीय डिस्चार्ज (28.9 क्यूबिक मीटर/सेकंड) दर्ज किया गया। 1991-2000 से 2001-2010 तक औसत डिस्चार्ज में 7.8% की वृद्धि हुई। अन्य अध्ययन में भी यही बात : अन्य शोध भी इस अध्ययन की पुष्टि करते हैं। पश्चिम बंगाल प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अध्यक्ष और नदी विशेषज्ञ कल्याण रुद्र ने कहा कि हिमालयी ग्लेशियर औसतन हर साल 46 सेमी मोटाई खो रहे हैं।
मैंने गंगोत्री का तीन दशकों तक अध्ययन किया और देखा कि इसका स्नाउट लगातार पीछे खिसक रहा है। मई 2025 में द क्रायोस्फीयर जर्नल में प्रकाशित एक अन्य शोध जिसमें कई आईआईटी और भारतीय विज्ञान संस्थान भोपाल के वैज्ञानिक शामिल थे, उसने भी गंगोत्री में जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को रेखांकित किया। इसने 2017-2023 के बीच ग्लेशियर के जल आयतन में कमी को दर्शाया। आईआईटी खड़गपुर के भूजल वैज्ञानिक अभिजीत मुखर्जी ने बताया कि लद्दाख जैसे क्षेत्रों में भी ऐसी ही पिघलने की प्रवृत्ति देखी गई है।
गंगा व जल संसाधनों पर असर : गंगोत्री ग्लेशियर उत्तरी भारत के लिए एक महत्वपूर्ण जल स्रोत है, जो गंगा नदी को पानी देता है। स्नो के पिघलने में कमी और बारिश पर बढ़ती निर्भरता से जल संसाधनों पर गंभीर प्रभाव पड़ सकता है। कृषि प्रभावित : गंगा बेसिन में खेती, जो लाखों लोगों की आजीविका का आधार है, पर असर पड़ सकता है। जलविद्युत पर खतरा : जलविद्युत परियोजनाओं के लिए पीक डिस्चार्ज का समय बदलना उत्पादन को प्रभावित कर सकता है। जल सुरक्षा : उच्च ऊंचाई वाले क्षेत्रों में पानी की उपलब्धता कम हो सकती है।
यह अध्ययन जलवायु परिवर्तन के गंगोत्री ग्लेशियर पर प्रभाव को समझने में महत्वपूर्ण है। शोधकर्ता मोहम्मद फारूक आजा ने कहा कि स्नो मेल्टिंग गंगोत्री के प्रवाह का मुख्य हिस्सा है, लेकिन इसका हिस्सा कम हो रहा है। यह जलवायु परिवर्तन का स्पष्ट संकेत है। अध्ययन नीति निमार्ताओं को जल संसाधन प्रबंधन, ग्लेशियर संरक्षण और जलवायु अनुकूलन के लिए रणनीति बनाने में मदद करेगा।


