आमेर दुर्ग (Amer Fort)– कछवाहों की पुरानी राजधानी आमेर का दुर्ग जयपुर से लगभग 11 कि०मी० उत्तर में एक पर्वतीय ढलान पर अवस्थित है। यह किला चारों ओर से पर्वतमालाओं से परिवेष्टित एक ऐसा दुर्ग है जिसे प्रकृति ने नैसर्गिक सुरक्षा कवच प्रदान किया है।
उपलब्ध साक्ष्यों से पता चलता है कि आमेर एक प्राचीन नगर है। साहित्यिक ग्रन्थों और शिलालेखों में इसे आमेर, अम्बिकापुर, अम्बर, अम्बरीश, अम्बावती इत्यादि विविध नामों से अभिहित किया गया है तथा अम्बिकेश्वर महादेव या अम्बामाता के नाम से इसके नामकरण की सम्भावना व्यक्त की गयी है।
वहाँ के संघी झुंथाराम के मन्दिर से उपलब्ध विक्रम संवत 1714 (1657ई०) के एक शिलालेख में इसका अम्बावती नगर के नाम से उल्लेख हुआ है। ज्ञात इतिहास के अनुसार पहले यहाँ सूसावत मीणों का वर्चस्व था जिन्हें हराकर 10वीं या 11वीं शताब्दी के आसपास कछवाहों ने यहाँ अपनी राजधानी स्थापित की ।
आमेर -जयपुर का कछवाहा राजवंश अपनी सैनिक उपलब्धियों तथा राजनैतिक वर्चस्व के लिए विख्यात रहा है। मुगल साम्राज्य के उत्कर्ष एवं प्रभुत्व प्रसार में कछवाहा राजाओं की भूमिका सर्वाधिक विशिष्ट रही है। इस वंश में राजा भारमल, भगवन्तदास, राजा मानसिंह, मिर्जा राजा जयसिंह, सवाई जयसिंह इत्यादि एक से बढ़कर एक वीर और प्रतापी राजा हुए हैं। आमेर के राजाओं के महत योगदान को लक्ष्य कर कही गयी महाकवि भूषण की यह उक्ति कितनी सटीक है।
केते राव राजा मान पावें पातसाहन सों।
पावें पातसाह मान मान के घराने सों ।।
सात सौ वर्षों से भी अधिक समय तक कछवाहों की राजधानी रहे आमेर का दुर्ग एक विशाल पर्वतीय घाटी में स्थित होने के साथ ही सुदृढ़ परकोटे से रक्षित भी था। निकटवर्ती गिरिशृंगों को आमेर की सुदृढ़ प्राचीर ने इस तरह परिवेष्टित कर लिया है मानों किसी ने पर्वत शिखरों को मोतियों की लड़ियाँ पहना दी हों। यह दुर्ग अपने स्थापत्य की दृष्टि से अन्य किलों से नितान्त भिन्न है ।
प्रायः अन्य सभी प्रमुख दुर्गों में जहाँ राजप्रासाद प्राचीर के भीतर समतल भू-भाग पर बने हैं वहीं आमेर दुर्ग में राजमहल ऊँचाई पर पर्वतीय ढलान पर इस तरह बने हैं कि इन महलों को ही दुर्ग का स्वरूप दे दिया गया है। आमेर राजप्रासाद के ऊपर पर्वतमाला के एक उत्तुन पर्वतशिखर पर जयगढ़ का भव्य दुर्ग पृष्ठ रक्षक के रूप में विद्यमान है।
इस प्रकार आमेर की रक्षा व्यवस्था इतनी सुदृढ़ थी कि उसे भेदना किसी भी आक्रान्ता शत्रु के लिए लोहे के चने चबाने से कम नहीं था। कछवाहा राजाओं के अद्भुत पराक्रम और केन्द्रीय मुगल शासकों से राजनैतिक मित्रता के कारण आमेर बाह्य आक्रमणों से प्रायः अछूता रहा । आमेर के भव्य दुर्ग के नीचे मावठा तालाब और दिलाराम का बाग उसके सौन्दर्य को द्विगुणित कर देते हैं।
राजा मानसिंह, मिर्जा राजा जयसिंह, सवाई जयसिंह और अन्य प्रतापी नरेशों द्वारा निर्मित आमेर के भव्य राजप्रासाद राजपूत शैली पर बने हैं। यत्र तत्र उनमें मुगलकाल की हिन्दू मुस्लिम स्थापत्य कला के समन्वय की प्रवृत्ति आमेर को जाने के लिए जोरावरसिंह दरवाजे (ध्रुवपोल) से सीधी सड़क मुखरित हुई है। जलमहल और कनक वृन्दावन के पास से गुजरती हुए एक विकट मोड़ पर पहुँचती है।
इस ऊँची पर्वतीय घाटी में एक विशाल प्रवेश द्वार को पार करते ही ढलान शुरु हो जाता है जो हमें आमेर दुर्ग के पर्वतांचल तक ले जाता है। आमेर के राजमहलों में जाने के लिए मावठा जलाशय के किनारे स्थित ऐतिहासिक दिलाराम के बाग से रास्ता जाता है। मिर्जा राजा जयसिंह द्वारा 1664ई० में निर्मित इस मनभावन होकर बगीचे के एक सिरे पर पुरा सम्पदा का संग्रहालय है जिसमें अनेक प्राचीन शिलालेख, अलंकृत पाषाण स्तम्भ और प्रतिहार कला केन्द्र आभानेरी से प्राप्त कलात्मक और सजीव प्रतिमायें प्रदर्शित की गयी हैं।
किले के ऊपर जाने के लिए प्रथम प्रवेश द्वार जयपोल है जिसके भीतर बना विशाल प्रांगण जलेब चौक कहलाता है। इसमें पूर्व और पश्चिम में दो छोटे मेहराबदार दरवाजे बने हैं जो सूरजपोल और चाँदपोल कहलाते हैं। जलेब चौक से राजप्रासाद में जाने के लिए सिंहपोल प्रवेश द्वार है जिसके पाश्र्व में शिलामाता का प्रसिद्ध मन्दिर है जिसमें महिषमर्दिनी की कलात्मक प्रतिमा प्रतिष्ठापित है जिसे अतुल पराक्रमी राजा मानसिंह बंगाल (पूर्वी बंगाल) से विजय कर यहाँ लाये थे ।
सिंहपोल से आगे चलते ही भव्य राजप्रासादों का सिलसिला प्रारम्भ हो जाता है जिसकी संक्षिप्त झलक इस प्रकार है. –
दीवान ए आम – यह वह भवन है जहाँ राजा का आम दरबार होता था। राजा यहाँ जनसामान्य से मिलता था। यह एक विशाल आयताकार भवन है जो संगमरमर के चालीस सुन्दर और मजबूत स्तम्भों से सुशोभित है। इसका निर्माण मिर्जा राजा जयसिंह द्वारा करवाया गया ।
गणेश पोल – भव्य और अलंकृत प्रवेश द्वार है जहाँ से महलों के आन्तरिक भाग में जाया जा सकता है। गणेश पोल का निर्माण महाराजा सवाई जयसिंह द्वारा करवाया गया ।
दीवान ए खास – विशाल चौक के पूर्व में दीवान ए खास है जिसे जय मन्दिर भी कहते हैं। यहाँ पर राजा अपने विशिष्ट सामन्तों और अन्य प्रमुख लोगों से विचार विमर्श करता था । इसमें खुदाई और काच का सुन्दर काम हुआ है। इसमें दो विशाल कमरे, दोनों ओर दालान, फव्वारे से सुशोभित विशाल आंगन, स्नानागार ( हम्माम ) इत्यादि भवन हैं । आमेर के दीवान ए खास का निर्माण मिर्जा राजा जयसिंह ने
करवाया था ।
शीश महल – आमेर के राजमहलों में सर्वाधिक प्रसिद्ध और चर्चित भव्य शीश महल है जिसमें छत और दीवारों पर कांच की जड़ाई का अत्यन्त सुन्दर और बारीक काम हुआ है । एक मोमबत्ती जलाते ही व्यक्ति के सैकड़ों प्रतिबिम्ब दिखलाई पड़ते हैं ।
दीवान ए खास तथा गणेश पोल की छतों पर बने भव्य भवनों को क्रमश: यश मन्दिर ( जस मन्दिर) तथा सुहाग मन्दिर कहते हैं ।
यश मन्दिर – इसमें सफेद संगमरमर की सुन्दर व अलंकृत जालियाँ लगी हैं जहाँ से रानियाँ दीवान ए खास का दृश्य देखा करती थीं। यह एक लम्बे कमरे के रूप में है जिस पर धनुषाकार छत बनी है।
सौभाग्य मंदिर (सुहाग मंदिर)- यह एक आयताकार महल है जो रानियों के मनोविनोद तथा हास परिहास का स्थान था। इसमें सुन्दर और रंग बिरंगे पत्थरों से बना एक छोटा सा झरना है । इसके किंवाड़ चन्दन के बने हुए हैं तथा उन पर हाथीदांत का सुन्दर काम हुआ है ।
सुख मन्दिर – दीवान ए खास के सामने बगीचे के दूसरी चरफ निर्मित सुख मन्दिर राजाओं का ग्रीष्मकालीन निवास है। यह महल एक विशाल और लम्बे कमरे के रूप में है। इसकी दीवार में संगमरमर का एक सुन्दर झरना है जो मेहराबयुक्त चौखट से घिरा है। इस चौखट में बेलबूटों के अलंकरणयुक्त सैकड़ों छिद्र बने हैं जिनसे शीतल मन्द पवन भीतर आती है। इसमें झरने से एक नहर आती है जो महल को शीतल रखती है । सुख मन्दिर के किंवाड़ों पर हाथीदांत और चन्दन का सुन्दर काम हुआ है।
आमेर के अन्य राजभवनों में महाराजा मानसिंह के महल, रनिवास तथा परिचारिकाओं के भवन, दालान, सुरंग, बुर्जे इत्यादि हैं जो अपने शिल्प और सौन्दर्य के कारण दर्शनीय हैं । आमेर के प्रतापी राजा पृथ्वीराज की रानी बालांबाई की साल महलों के पीछे की तरफ पुराने भवनों के पास अवस्थित है।
बिशप हैबर आमेर के लों की सुन्दरता को देखकर मुग्ध हो गया। उसने लिखा है कि “मैंने क्रेमलिन में जो कुछ देखा है और अलब्रह्मा के बारे में जो कुछ सुना है, उससे भी बढ़कर ये महल हैं । ”
वस्तुत: आमेर के राजमहलों में कुछ ऐसा ही आकर्षण है जिसके कारण पर्यटक इन्हें देखने बड़ी संख्या में यहाँ आते हैं ।
आमेर दुर्ग अपने भव्य देव मन्दिरों के लिए भी प्रसिद्ध है।
आमेर अपने भव्य देव मन्दिरों के लिए भी प्रसिद्ध है। आमेर में शिलादेवी, जगतशिरोमणि, अम्बिकेश्वर महादेव, नृसिंह जी इत्यादि के देव मन्दिर अपने अद्भुत शिल्प और सौन्दर्य के कारण तो दर्शनीय हैं ही, साथ ही उनमें प्रतिष्ठापित अत्यन्त सजीव और कलात्मक प्रतिमाओं के रूप में कला की बहुमूल्य धरोहर संरक्षित किये हैं ।
आमेर के यशस्वी शासक राजा मानसिंह प्रथम द्वारा बंगाल से लायी गयी शिलादेवी (महिषमर्दिनी) की प्रतिमा तो बहुत सजीव और आकर्षक है । साथ ही जगतशिरोमणि मन्दिर का भव्य तोरण और पत्थर की नक्काशी भी बेजोड़ है। इस मन्दिर में प्रतिष्ठापित भगवान कृष्ण की काले पत्थर की मूर्ति के लिए कहा जाता है कि यह चित्तौड़ से लायी गयी थी और यह वही मूर्ति है जिसकी पूजा मीरांबाई किया करती थी ।
इस मन्दिर का निर्माण राजा मानसिंह की रानी कनकावती जी द्वारा अपने दिवंगत पुत्र जगतसिंह की याद में करवाया गया था। इसी तरह आमेर के नृसिंह मन्दिर में विद्यमान सफेद संगमरमर का हिंडोला भी बहुत भव्य और आकर्षक है ।
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