भटनेर दुर्ग। भाटियों की वीरता और पराक्रम का साक्षी भटनेर का प्राचीन दुर्ग बीकानेर से लगभग 144 मील उत्तर पूर्व में नव-स्थापित जिला मुख्यालय हनुमानगढ़ में अवस्थित है। घग्घर नदी के मुहाने पर बसे इस प्राचीन दुर्ग को उत्तरी सीमा का प्रहरी कहा जाय तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। कारण, मध्य एशिया से होने वाले आक्रमण प्राय: इसी ओर से होते थे। इसके अलावा मध्य एशिया, सिन्ध व काबुल के व्यापारी मुलतान से भटनेर होते हुए दिल्ली व आगरा आते-जाते थे।
दिल्ली-मुलतान मार्ग पर स्थित होने के कारण भटनेर का बड़ा सामरिक महत्त्व था । जनश्रुति के अनुसार इस प्राचीन दुर्ग का निर्माण भाटी राजा भूपत ने तीसरी शताब्दी के अंतिम चरण में करवाया था। भूपत ने, गजनी के सुलतान से मिली पराजय के फलस्वरूप लाहौर और उसके आसपास तक फैला अपना विस्तृत राज्य खो दिया था और उसे घग्घर नदी के समीपवर्ती लाखी जंगल में शरण लेनी पड़ी थी ।
अतः उसने दक्षिण और पूर्व में थार रेगिस्तान से आवेष्टित घग्घर नदी के पूर्वी किनारे के उर्वर व समृद्ध प्रदेश में एक सुदृढ़ और भव्य दुर्ग का निर्माण करवाया जो भटनेर के नाम से प्रसिद्ध हुआ। मरुस्थल से घिरा होने के कारण भटनेर के किले को शास्त्रों में वर्णित धान्वन दुर्ग की कोटि में रख सकते हैं। इस दुर्ग के घेरे में लगभग 52 बीघा भूमि है तथा इसमें इतनी ही विशाल बुर्जे और अथाह जल राशि वाले कुए हैं। किले का निर्माण लोहे के समान दृढ पकी हुई ईंटों और चूने से हुआ है। (भटनेर दुर्ग)
विशालता और सुदृढ सुरक्षा व्यवस्था भटनेर के स्थापत्य की प्रमुख विशेषता है। अपनी विशिष्ट सामरिक स्थिति और महत्त्व के कारण भटनेर को अपने निर्माण के बाद से ही आक्रमणकारियों के जितने प्रहार झेलने पड़े उतने भारत के शायद ही अन्य किसी दुर्ग को झेलने पड़े। ज्ञात इतिहास के अनुसार महमूद गजनवी ने विक्रम संवत 1058 (1001ई०) में भटनेर पर अधिकार कर लिया था।
13वीं शताब्दी के मध्य में गुलाम वंश के सुलतान बलवन के शासनकाल में उसका चचेरा भाई शेरखाँ यहाँ का हाकिम था जिसने शक्तिशाली और खूंखार मंगोलों के आक्रमणों का सफलतापूर्वक प्रतिरोध किया। ऐसा उल्लेख मिलता है कि उसने भटिन्डा और भटनेर के किलों की मरम्मत करवायी थी। विक्रम संवत 1326 (1269ई०) में शेरखाँ की भटनेर में ही मृत्यु हुई।
उसकी कब्र आज भी वहाँ किले के भीतर विद्यमान है। 1398 ई० में भटनेर को दुर्दान्त आक्रान्ता और प्रसिद्ध लुटेरे तैमूर के आक्रमण की विभीषिका झेलने पड़ी। वहाँ के भाटी राजा राव दूलचन्द ने आक्रमण का सामना किया पर तैमूर जैसे खूंखार विजेता के सामने वह नहीं टिक सका ।
फलतः चार दिन तक भटनेर को बूरी तरह से लूटा गया और दुर्ग में आश्रय ले रहे हजारों स्त्री-पुरुषों को बड़ी बेरहमी से कत्ल कर दिया गया। यों तैमूर ने भटनेर को लगभग वीरान और उजाड़ कर डाला। तदनन्तर भटनेर पर भाटियों, जोहियों व चायलों का अधिकार रहा। बीकानेर के चौथे शासक राव जैतसिंह ने 1527 ई० में पराजित कर दिया तथा भटनेर पर पहली बार राठौड़ों का आधिपत्य स्थापित हुआ।
उसने राव कांधल के पौत्र खेतसी को भटनेर का दुर्गाध्यक्ष नियुक्त किया। तत्पश्चात् हुमायूँ के भाई कामरान ने भटनेर पर आक्रमण किया। भटनेर के दुर्गाध्यक्ष खेतसी ने कामरान की सेना के साथ भीषण युद्ध किया और अपने अनेक राठौड़ योद्धाओं के साथ लड़ते हुए वीरगति पायी। वीटू सूजा द्वारा रचित डिंगल के एक समसामयिक ऐतिहासिक काव्य छंद राठ जइतसी रठ (छंद राव जैतसी रो) में खेतसी के शत्रु सेना के साथ वीरतापूर्वक लड़ते हुए युद्ध में काम आने का उल्लेख हुआ है। यथा –
भटनेर प्रोलि हूँता भटक्कि, कांधलां राठ पइठठ कटक्कि ।
खेतल रिणि खेसइ खुरासाण, जुध धसइ मत्त गइ जूण जाण ॥
पड़ियउ रिणि खेतल पिसण पाड़ि, मालहरि चाड़ि धज मारूआदि।
कांधल किंवाड़ वसी करेय, लोपियउ मीर भटनेर लेय ।।
भटनेर दुर्ग – भाटियों की वीरता और पराक्रम का साक्षी
भटनेर दुर्ग की रक्षा करते हुए खेतसी के वीरगति प्राप्त करने पर डॉ० टेसीटरी ने क्या ही सुंदर कहा है-
“यद्यपि वह (खेतसी) वीरगति को प्राप्त हुआ तथा भटनेर पर शत्रु का अधिकार हो गया तथापि मारवाड़ के रेतीले मैदान में उसने यशोध्वज फहराया वह सारे हिन्दुस्तान में सबसे ऊँचा और अनूठा है। “
इसके बाद कुछ अरसे तक भटनेर पर चायलों का अधिकार रहा। लेकिन 1549 ई० में बीकानेर के शासक राव कल्याणमल के भाई ठाकुरसी ने अहमद चायल से भटनेर का किला छीन लिया। इस प्रकार भटनेर पर एक बार फिर से राठौड़ों का वर्चस्व स्थापित हो गया । ठाकुरसी लगभग 20 वर्ष तक भटनेर का हाकिम रहा ।
मुगल बादशाह अकबर के शासनकाल में एक बार शाही खजाना काश्मीर और लाहौर से दिल्ली को ले जाया जा रहा था, तो भटनेर परगने के गाँव माछली में लूट लिया। गया । इसकी सूचना जब अकबर के पास पहुँची तो उसने हिसार के सूबेदार निजामुलमुल्क को सेना लेकर भटनेर पर आक्रमण करने का आदेश दिया। निजामुलमुल्क ने भटनेर पर घेरा डाल दिया तथा रसद का मार्ग बन्द कर दिया। ठाकुरसी ने एक हजार यौद्धाओं के साथ शाहीं सेना से लड़ते हुए वीरगति प्राप्त की।
भटनेर पर शाही थाना स्थापित हो गया। कुछ अरसे बाद ठाकुरसी का पुत्र बाघा दिल्ली में बादशाह अकबर की सेवा में उपस्थित हो गया, जिसकी वीरता एवम् स्वामिभक्ति से प्रसन्न हो अकबर ने उसे भटनेर लौटा दिया। बाघा ने भटनेर मिलने के बाद वहाँ पर गोरखनाथ का एक मंदिर बनवाया। इसके बाद भटनेर बीकानेर के राजा रायसिंह और उसके पुत्र दलतसिंह के अधीन रहा ।
बीकानेर के इतिहास से सम्बन्धित ‘तवारीख “दयालदास की ख्यात” में भटनेर के किले में घटित एक घटना का उल्लेख है। 1597 ई० में एक बार अकबर का श्वसुर नसीरखाँ भटनेर में आकर ठहरा। उसने वहाँ किसी महिला सेविका के साथ छेड़छाड़ की तो रायसिंह के इशारे पर उसके सेवक तेजा ने नसीरखाँ की पिटाई कर दी। नसीरखाँ ने इसकी शिकायत अकबर से की। अकबर रायसिंह पर नाराज हुआ।
रायसिंह के बाद दलपतसिंह बीकानेर का राजा हुआ। जहाँगीर ने दलपत की विद्रोही प्रवृत्ति के कारण उस पर कुपित हो, उसे अजमेर में कैद में डाल दिया। इन्हीं दिनों चांपावत हाथीसिंह अपने 300 सवारों के साथ ससुराल जा रहा था तभी किसी चारण कवि ने उसे सम्बोधित करते हुए यह दोहा कहा –
फिट बीदां, फिट कांधलाँ, फिट जंगलधर लेडाहँ ।
दलपत हुड़ ज्यू पकड़ियों, भाज गई भेड़ाहँ ॥
इस पर हाथीसिंह चांपावत दलपत को छुड़ाने के प्रयास में अपने 300 राठौड़ सवारों सहित काम आया और दलपत भी इस झगड़े में मारा गया। दलपत की मृत्यु का समाचार जब भटनेर पहुँचा तो उसकी छः रानियाँ वहाँ सती हो गई जिनकी देवलियाँ किले के भीतर आज भी विद्यमान हैं।(भटनेर दुर्ग)
इसके बाद भटनेर पर अधिकार करने के लिए भाटियों और जोहियों में दीर्घकाल तक संघर्ष चला और उसके स्वामित्व में परिवर्तन होता रहा । अन्ततः बीकानेर के महाराजा सूरतसिंह के शासनकाल में 1805 ई० में पाँच महीने के लगातार घेरे के बाद राठौड़ों ने जाब्ता खाँ भट्टी से भटनेर ले लिया और यों इस प्राचीन दुर्ग पर बीकानेर राज्य का अधिकार हो गया।(भटनेर दुर्ग)
महाराजा सूरतसिंह द्वारा मंगलवार के दिन दुर्ग हस्तगत किये जाने के कारण भटनेर का नाम हनुमानगढ़ रख दिया गया तथा इस उपलक्ष्य में किले में हनुमानजी के एक मंदिर का भी निर्माण करवाया गया । यद्यपि वर्तमान में यह दुर्ग भग्न और जर्जर अवस्था में है तथापि इस दशा में भी यह भव्य और गरिमामय है।(भटनेर दुर्ग)
किले के एक प्रवेश द्वार पर एक राजा के साथ छः स्त्री आकृतियाँ बनी हैं। संभवत: यह आकृतियाँ बीकानेर के राजा दलपतसिंह और उनकी रानियों की हैं जो दलपतसिंह की मृत्यु के अनन्तर भटनेर में सती हुई थीं। किले के एक दूसरे प्रवेश द्वार पर विक्रम संवत 1665 (1608ई०) का फारसी लिपि का एक संक्षिप्त लेख उत्कीर्ण है, जिसके अनुसार राव मनोहर कछवाहा ने शाही आज्ञा से वहाँ मनोहरपोल नामक दरवाजा बनवाया । (भटनेर दुर्ग)
सारतः भटनेर का यह दुर्ग, ‘उत्तर भड़ किंवाड़’ के यशस्वी विरुद धारी भाटियों तथा राठौड़ों की अनेक गौरव गाथाओं को अपने में समेटे तथा अतीत की अनमोल ऐतिहासिक-सांस्कृतिक धरोहर को संजोए, काल की क्रूर विनाशलीला से अधिक हमारी उपेक्षा से आहत हुआ, अपने चतुर्दिक चमकते बालुका कणों के रूप में भाग्य की विडम्बना पर मूक हँसी हँस रहा है। (भटनेर दुर्ग)
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