कोटा। घर की मुंडेर पर बैठकर मेहमान के आने की सूचना देने वाला कागा अब कांव-कांव नहीं करता। आसमान में परवाज भरती उड़ान भी दिखाई नहीं देती। पर्यावरण का अहम हिस्सा माने जाने वाला कौवा शहरी क्षेत्र में इस कदर लुप्त हो गया है कि ढूंढने से भी दिखाई नहीं देते। हालांकि जंगल व दूरस्थ ग्रामीण इलाकों में नजर आते हैं, लेकिन, संख्या में लगातार गिरावट देखने को मिल रही है। कौवों की लगातार घटती संख्या को लेकर पर्यावरणविद भी चिंतित हैं।
उनका कहना है कि वर्तमान में सरंक्षण को लेकर कोई उपाय नहीं किया तो यह प्रजाति लुप्त हो जाएगी। हालांकि, वन विभाग की ओर से भी इस पक्षी के लुप्त होने के कारणों को खोजने के लिए आज तक कोई रिसर्च नहीं की गई। वहीं, इनके संरक्षण के लिए भी कोई कदम नहीं उठाए गए। नवज्योति ने विशेषज्ञों से बात कर इनके लुप्त होने के कारण व संरक्षण के लिए सुझाव जाने। पेश है रिपोर्ट के प्रमुख अंश…
पारिस्थितिकी तंत्र में बदलाव: पारिस्थितिकी तंत्र में तेजी से बदलाव, जलवायु परिवर्तन एवं शहरों में बढ़ता प्रदूषण कौवे, गौरेया जैसे पक्षियों के अस्तित्व को विलुप्ती की कगार पर पहुंचाने के लिए जिम्मेदार हैं। शहरों में मोबाइल टावरों से बढ़ता रेडिएशन भी बड़ा कारण हो सकता है। – रवि कुमार, बायोलॉजिस्ट। रिसर्च करवाकर खोजे जाएं कारण: शहरीकरण के नाम पर ऊंचे पेड़ों की अंधाधुंध कटाई कौवों के पलायन का मुख्य कारण है। इससे न केवल हैबीटॉट खत्म हुआ बल्कि ब्रिडिंग भी प्रभावित हो गई। वंश वृद्धि नहीं होने से इनकी संख्या में बढ़ोतरी नहीं हो सकी।
वहीं, वायु व ध्वनी प्रदूषण के कारण बचे-कुछ कौवें माइग्रेट कर जंगलों व दूरस्थ ग्रामीण इलाकों की ओर रुख कर गए। इस तरह शहर में इनकी संख्या नगण्य हो गई। -डॉ. अंशु शर्मा, असिस्टेंट प्रोफेसर, पक्षी विशेषज्ञ। रहवास उजड़ा, खाद्य शृंखला हुई बर्बाद: मिट्टी में मौजूद कीड़े-मकौड़े कौओं का भोजन होेते थे, लेकिन किसानों द्वारा पेस्टीसाइड का अत्यधिक उपयोग से कीड़े-मकोड़े नष्ट हो गए। जिससे फूड चैन टूट गई। बरगद, पीपल, नीम जैसे ऊंचे पेड़ों की कटाई होने से रहवास खत्म हो गया। एयर कंडीशनर की गर्म हवा के कारण टेम्पे्रचर में बढ़ोतरी, बिजली के तारों का जाल फैल रहा।
वहीं, शहरों में कबूतरों ने कौवों को रिप्लेस कर दिया है। -डॉ. नीरजा श्रीवास्तव, प्रोफेसर एवं वन पारिस्थितिकी विशेषज्ञ। अज्ञात बीमारी बनी काल, कोविड़ में भी हुई थी मौत: वर्ष 1995 से 2000 के बीच ऐसी बीमारी आई थी, जिसकी वजह से कौए व गौरेया का वजूद लगभग समाप्त हो गया था। हालांकि, वर्ष 2010 के बाद इनकी संख्या में इजाफा हुआ लेकिन, कोरोना के दौरान फिर से अज्ञात बीमारी की चपेट में आने से हाड़ौती क्षेत्र में कौवों की मौत हुई थी। पेड़-पौधों की अंधाधुन कटाई जिम्मेदार है।
क्योंकि, खेतों में फसलों के दाने खाने व पानी पीने के चलते प्रजनन क्षमता प्रभावित हुई। वर्तमान में अभेड़ा, उम्मेदगंज, दौलतगंज, बोराबांस, गरडिया व गेपरनाथ महादेव मंदिर वन क्षेत्रों में कौवों नजर आते हैं। – एएच जैदी, नेचर प्रमोटर। कोयल व रॉक पीजन की बढ़ती तादाद बड़ी वजह: शहरी क्षेत्र में कौवों के लुप्त होने के कई कारण हैं। इनमें प्रमुख ब्रिडिंग में कमी होना है। जिसकी बड़ी वजह कोयल है। शहरी क्षेत्र में कोयल की तादाद लगातार बढ़ रही है। यह कभी घौंसला नहीं बनाती।
अपना अंडा कौवों घौंसले में देती हैं और उनके अंडों को नीचे गिराकर नष्ट कर देती हैं। अंडे एक रंग व साइज के होने से मादा कौवा, कोयल के अंडे को ही अपना समझ सहेजती रहती है। नतीजन, वंश वृद्धि रुक जाती है। वहीं, परम्परागत भोजन की कमी से यह डम्पिंग यार्ड में मृत मवेशियों पर निर्भर रहने लगे हैं। इनके संरक्षण के लिए वन विभाग को सर्वे करवाना चाहिए ताकि, कौवों की संख्या पता लग सके। -प्रो. अनिल छंगाणी, डीन पर्यावरण विज्ञान विभाग, बीकानेर विवि।
प्राकृतिक आवास उजड़े, भोजन की उपलब्धता घटी: कौवों की घटती संख्या के लिए कई कारण जिम्मेदार हैं। कौएं ऊंचे पेड़ों पर घौंसले बनाते हैं, जिनका विकास के नाम पर सफाया हो गया। खेतों में विषैले रसायनों का उपयोग भी जिम्मेदार है। -हर्षित शर्मा, बर्ड्स रिसर्चर। नष्ट हुआ हैबीटाट, फूड चैन टूटने से घटी: कौवा महत्वपूर्ण पक्षी है। इनकी वजह से कई तरह की बीमारियों पर कंट्रोल रहता है।
छिपकली, गिरगिट व कीड़े-मकोड़ों के मरने के बाद उसमें कई तरह के बैक्टेरिया उत्पन्न होते हैं, जो वातावरण में फैले रहते हैं, कोवों के नहीं होने से बीमारियां, वायरस फैलने का खतरा बना रहता है। इनके लुप्त होने के पीछे मुख्य कारण पेड़-पौधे खत्म होना है। इनकी जगह पर कंक्रीट के जंगल खड़े हो गए। यह ऊंचे पेड़ों पर अंडे देते हैं, जो अब शहरीकरण की भेंट चढ़ गए। अभेड़ा बायोलॉजिकल पार्क, उम्मेदगंज पक्षी विहार, भैंसरोडगढ़ व शेरगढ़ सेंचुरी में पक्षियों व वन्यप्राणियों के संरक्षण के उपाए किए हैं।
साथ ही कारणों की खोज के लिए रिसर्च भी करवा रहे हैं। -अनुराग भटनागर, उपवन संरक्षक वन्यजीव विभाग कोटा। कबूतरों ने ले ली कौवों की जगह: बंदरों व जंगली कबूतरों का कौवों के हैबीटाट क्षेत्र में सेंध लगाना प्रमुख कारण है। कौवें ऊंचे पेड़ों पर अंडे देते हैं लेकिन बंदरों की उछलकूद के कारण घौंसलों से अंडे गिरकर नष्ट हो जाते हैं। वहीं, रॉक पिजन की बढ़ती संख्या से रहवास खत्म हो गए। इन्हें बसाने के लिए शहरी क्षेत्र में छोटे-छोटे जंगल विकसित करने होंगे, जहां मानव दखल पर पूर्णत: प्रतिबंध हो और ग्रासलैंड-वैटलैंड डवलप किए जाएं।
जहां कौवे अपने आप को सुरक्षित महसूस कर सके। -डॉ. अखिलेश पांडे, वरिष्ठ वन्यजीव चिकित्सक