दौसा का किला। जयपुर से लगभग 54 कि०मी० पूर्व में स्थित दौसा जिला मुख्यालय होने के अलावा पुरातात्विक महत्त्व का एक प्राचीन नगर है। जिस विशाल पहाड़ी के पर्वतांचल में दौसा बसा है वह देवगिरि कहलाती है। इसी पर्वत शिखर पर दौसा का प्राचीन और सुदृढ़ दुर्ग अवस्थित है जिसके साथ ढूँढाड़ में कछवाहों के आगमन, इस क्षेत्र के गुर्जर प्रतिहार (बड़गूजर) और मीणा शासकों के साथ उनके संघर्ष तथा कछवाहों के प्रारम्भिक इतिहास की अन्य अनेक महत्त्वपूर्ण घटनायें जुड़ी हैं।
दौसा का विशेष महत्त्व इसलिए है कि यहाँ अपनी स्थिति सुदृढ़ करने के बाद कछवाहे मांच (जमवारामगढ़) खोह तथा फिर आम्बेर के अधिपति हुए। तदुपरान्त मुगल बादशाह अकबर के साथ कछवाहों की राजनैतिक मित्रता के घटनाक्रम की शुरूआत भी दौसा से ही हुई।
दौसा को ढूंढाड़ के कछवाहा राजवंश की प्रथम राजधानी होने का गौरव तब प्राप्त हुआ जब 11 वीं शताब्दी के लगभग कछवाहा राज्य के संस्थापक दूलहराय नरवर (मध्यप्रदेश) से इधर आए। उन्होंने देवती तथा भाँडारेज के बड़गूजरों को तथा मांच, खोह, गेटोर आदि संस्थानों के मीणा शासकों को जीतकर ढूंढाड़ में कछवाहा राज्य की स्थापना की। दूलहराय का विवाह दौसा के पास मोरां (वर्तमान गढ़ मोरां) के चौहान शासक सालारसिंह (रालणसिंह) के पुत्री कुमकुमदे के साथ हुआ था ।

दूलहराय के ससुराल पक्ष के चौहानों और देवती के बड़गूजरों में परस्पर मनमुटाव और झगड़ा चल रहा था। दोनों के आधिपत्य में दौसा का आधा-आधा भाग था। चौहानों ने दूलहराय से आग्रह किया कि यदि वे यहाँ आ जाएँ तो दौसा का आधा भाग, जो हमारे अधिकार में है वह तो आपको भेंट कर ही देंगे, बड़गूजरों के अधीन प्रदेश पर भी आपका अधिकार कराने में आपका साथ देंगे।
दूलहराय ने वैसा ही किया। उन्होंने अपने ससुराल पक्ष की सहायता से दौसा के बड़गूजरों द्वारा अधिकृत भाग पर आक्रमण किया। भीषण युद्ध के फलस्वरूप दौसा पर दूलहराय का अधिकार हो गया। तथा रालणसिंह ने वचनानुसार अपना राज्य (दौसा का आधा भाग) दूलहराय को दे दिया। इस प्रकार ढूंढाड़ में कछवाहा राज्य की नींव पड़ी ।
कछवाहों की राजधानी आम्बेर और फिर जयपुर हो जाने के बाद भी दौसा अनेक महत्त्वपूर्ण घटनाओं का केन्द्र रहा। भारमल के शासनकाल में आम्बेर के दिवंगत राजा पूरणमल के विद्रोही पुत्र सूजा (सूरजमल) का लाला नरूका ने दौसा में ही धोखे से वध किया था जिनका स्मारक दौसा में किले के मोरी दरवाजे के बाहर एक प्राचीन सूर्य मन्दिर के पार्श्व में बना हुआ हैं।
ये सूरजमल प्रेतेश्वर भोमियाजी के नाम से दौसा और उसके आसपास के क्षेत्र में पूजे जाते हैं। इन भोमियाजी से सम्बन्धित कई चमत्कारपूर्ण कथायें प्रचलित हैं। जनश्रुति है कि मिर्जा राजा जयसिंह द्वारा औरंगजेब के दरबार में शिवाजी को उपस्थित करने में सफल होने में अप्रत्यक्ष रूप से सूरजमल भोमिया ने उनकी सहायता की थी ।
जनवरी 1562 ई० में जब मुगल बादशाह अकबर ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की जियारत करने अजमेर गया था तब वह दौसा होकर गया था, जहाँ भारमल के भाई रूपसी बैरागी ने उससे भेंट की थी। रूपसी उस समय दौसा का हाकिम था। महाराजा सवाई मानसिंह द्वितीय संग्रहालय (पोथीखाने) में सुरक्षित मत्स्य राज्य उक्त घटना का उल्लेख इस प्रकार हुआ है –
“बादशाह का लश्कर द्योसा (दौसा) पहुँचा तो राजा भारमल के भाई रूपसी ने, जो वहाँ का हाकिम था, अपने बेटे जयमल को बादशाह की सेवा में भेजा परन्तु जब उसके आने की अर्ज हुई तो बादशाह ने फरमाया कि जयमल का आना किसी गिनती में नहीं है। हमारा आना खुदा की एक बड़ी इनायत समझकर रूपसी खुद हाजिर होवे । यह हुक्म सुनते ही रूपसी खुद हाजिर हुआ। बादशाह ने उस पर बड़ी मेहरबानी की। “
दौसा में मुगल बादशाह अकबर से भारमल के भाई रूपसी की इस भेंट का राजनीतिक दृष्टि से बड़ा महत्त्व था । इस मुलाकात ने आगे के घटनाक्रम का मार्ग प्रशस्त किया । रूपसी के माध्यम से भारमल को अकबर के मित्रतापूर्ण दृष्टिकोण का संकेत मिला। वस्तुत: इस मुलाकात ने भारमल को अकबर के प्रति आश्वस्त कर दिया और उसे अकबर से मिलने एवं दोस्ती का हाथ बढ़ाने के लिए प्रेरित किया।
फलत: भारमल ने अगले शाही पड़ाव सांगानेर में अकबर के सामने स्वयं उपस्थित होकर मुगलों के साथ राजपूतों की मित्रता के एक नये युग का सूत्रपात किया । तदनन्तर दौसा भारमल के पुत्र सूरसिंह की जागीर में रहा । सूरसिंह को शाही सेवा के उपलक्ष्य में हिण्डौन का परगना भी दिया गया। उसके बाद दौसा इतिहास प्रसिद्ध सेनानायक राजा मानसिंह के पौत्र महासिंह की जागीर में रहा।
1622 ई० में महासिंह की बरार में मृत्यु हो जाने पर उनकी चार रानियाँ दौसा में सती हुईं? तथा उनकी एक विधवा रानी (सीसोदिनी दमयंती) अपने पुत्र राजकुमार जयसिंह के साथ सुरक्षा के निमित्त दौसा के किले में अनेक वर्षों तक रहीं। आम्बेर नरेश भावसिंह की नि:संतान मृत्यु होने पर महासिंह का पुत्र जयसिंह आम्बेर की गद्दी पर बैठा तथा मिर्जा राजा जयसिंह के नाम से प्रसिद्ध हुआ ।
जयपुर के महाराजा सवाई प्रतापसिंह ने जनवरी 1792 ई० में मरहठा सेनानायक तुकोजी होल्कर से दौसा में मिलकर यह समझौता किया कि वह उसे आमेर के विद्रोहियों द्वारा दबाये गये परगनों को वापस लेने में सहायता दे और इसके फलस्वरूप वह आधा हिस्सा उसे दे देगा।” सर जदुनाथ सरकार ने लिखा है कि माचेड़ी के रावराजा के विरुद्ध अभियान में मरहठा सेनाधिपति बापू राव होल्कर के नेतृत्व में एक सैन्य दल जयपुर की सहायता के लिए भेजना दौसा के समझौते में तय किया गया ।
इसके बाद 1814 ई० में भरतपुर के जाटों ने लूटमार मचाते हुए तथा जयपुर की भूमि को दबाते हुए दौसा पर अधिकार कर लिया। इस पर अचरोल के ठाकुर कुशलसिंह के सेनापतित्व में जयपुर की सेना वहाँ भेजी गई। पूरे 20 दिन तक भीषण युद्ध होता रहा । अन्त में जयपुर की सेना ने दौसा के दुर्ग सहित जयपुर राज्य की सारी भूमि उनसे मुक्त करा ली। दौसा का दुर्ग लेते समय कई कछवाहे वीरों के साथ ठाकुर कुशलसिंह भी वीरगति को प्राप्त हुए।
तदनन्तर जयपुर के नाबालिग महाराजा सवाई जयसिंह तृतीय की सन्देहास्पद परिस्थितियों में मृत्यु होने पर जयपुर के तत्कालीन दीवान संघी झुंथाराम और उसके भाई हुक्मचंद को दौसा के किले में नजरबन्द रखा गया। झुंथाराम की यहीं दौसा के किले में मृत्यु हुई ।
इन महत्त्वपूर्ण घटनाओं के अलावा दौसा को प्रसिद्ध दादूपंथी महात्मा सन्त सुन्दरदास का जन्म स्थान होने का भी गौरव प्राप्त है। दादू सम्प्रदाय में सुन्दरदास का शीर्ष स्थान है । यहाँ तक कि उन्हें दूसरा शंकराचार्य कहकर अभिहित किया गया है। 1857 के स्वतन्त्रता आंदोलन के समय प्रसिद्ध स्वतन्त्रता सेनानी तात्या टोपे दौसा आये थे तथा यहाँ बिग्रेडियर राबर्ट्स के नेतृत्व में अंग्रेज सेना से वे 14 जनवरी 1859 को परास्त हो गये तथा उनके 11 हाथी अंग्रेजों ने छीन लिये।
किले का स्थापत्य (दौसा का किला)
एक ऊँची और विशाल पहाड़ी पर बना दौसा का किला अपने ढंग का एक निराला दुर्ग है। प्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता कार्लाइल ने इसे राजपूताना के प्राचीन दुर्गों की कोटि में रखा है। समुद्रतल से लगभग 1643 फीट ऊँचा यह किला लगभग 4 मील की परिधि में फैला हुआ है। अनियमित आकार का यह दुर्ग प्राचीन और जीर्णशीर्ण प्राचीर से ढका है तथा सूप (छाजले) की आकृति लिए हुए है। बीते जमाने में सामरिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण समझे जाने वाले दौसा के इस किले को संभवत: बड़गूजरों (गुर्जर प्रतिहारों) ने बनवाया था।
बाद में कछवाहा शासकों ने इस किले में अनेक नई बुजें, प्राचीर एवं दूसरे भवन बनवाये । दुर्गम पहाड़, सुदृढ प्राचीर तथा विशाल बुजों ने मिलकर इस किले को एक दुर्भेद्य दुर्ग का स्वरूप दे दिया। इस किले में शत्रु का प्रवेश आसानी से नहीं हो सकता था तथा किले के चारों तरफ मीलों तक मैदान होने के कारण किले पर से आक्रमणकारी दूर से ही दिखाई दे जाता था ।
दौसा का किला आज भी बहुत भव्य और आकर्षक लगता है। इस विशाल किले में प्रवेश के लिए दो प्रमुख दरवाजे हैं- (1) हाथी पोल और (2) मोरी दरवाजा । इनमें मोरी दरवाजा बहुत छोटा और संकरा है। यह जलाशय में खुलता था जो अब सूख गया है। यह जलाशय सागर के नाम से प्रसिद्ध था। संभवतः युद्ध आदि अवसरों पर मुख्य दरवाजा बन्द कर दिया जाता था तथा किले के बाहर आने जाने के लिए मोरी दरवाजे का ही उपयोग होता था ।

दौसा के किले का पहाड़ से नीचे वाला अर्थात् सामने वाला भाग दोहरे परकोटे से परिवेष्टित है। बाहर वाले परकोटे के भीतर दो प्राचीन एवं विशाल कुँए हैं जिनमें से मोरी दरवाजे के निकट वाला कुँआ ‘राजाजी का कुँआ’ कहलाता है। पास ही चार मंजिल वाली एक विशाल बावड़ी भग्न रूप में विद्यमान है। बावड़ी के किनारे पीपल का एक विशाल पेड़ है जिसने बावड़ी के ऊपरी भाग को कुछ क्षतिग्रस्त कर दिया है। बावड़ी के भीतर काई जमा है।
इस बावड़ी की यह विशेषता है कि इसके पार्श्व में स्नान के उपरान्त वस्त्रादि बदलने व संध्या करने के लिए कक्ष बने हुए हैं। बावड़ी के पास ही बैजनाथ महादेव का भव्य एवं प्राचीन मन्दिर है। इस मन्दिर के प्रांगण में गणेशजी की एक प्राचीन प्रतिमा प्रतिष्ठापित है। इसके अलावा हनुमानजी की भव्य मूर्ति भी वहाँ स्थापित हैं । पास ही एक अन्य मन्दिर में सरस्वती तथा गणेशजी की सुन्दर मूर्तियाँ हैं।
किले के दूसरे अर्थात् भीतर वाले परकोटे के प्रांगण में रामचन्द्रजी और दुर्गामाता के मन्दिरों के अलावा एक जैन मन्दिर और मस्जिद भी बनी हुई है जो दौसा के कछवाहों की धार्मिक सहिष्णुता एवं उदारता का उदाहरण है। सामने पहाड़ की तलहटी में पानी के एक विशाल टांके के भग्नावशेष विद्यमान हैं। इससे थोड़ी ऊँचाई पर सुरक्षा प्रहरियों के लिए कक्ष बने हुए हैं जो लगभग खण्डित हो गये हैं। पहाड़ी के ऊपर दो प्राचीन गोलाकार बुर्जी तथा कुछ अन्य भवनों के जीर्ण शीर्ण अवशेष हैं।
जनश्रुति के अनुसार इन भवनों का उपयोग राजनैतिक कैदियों को रखने के लिए कारागार के रूप में किया जाता था। इसी पहाड़ की सबसे ऊँची चोटी पर गढ़ी के भीतर नीलकंठ महादेव का मन्दिर अवस्थित है। इस प्राचीन मन्दिर का अभी कुछ वर्षों पूर्व जीर्णोद्धार किया गया था।
नीलकंठ और बैजनाथ के शिव मन्दिरों के अलावा दौसा के दक्षिण पश्चिम में गुप्तेश्वर महादेव, लालसोट मार्ग पर सहजनाथ महादेव तथा भरतपुर वाले राजमार्ग पर सोमनाथ का प्राचीन मन्दिर दौसा के शासकों की शिव में अनन्य आस्था के परिचायक हैं । किले की सबसे ऊँची चोटी पर गढ़ी के सामने लगभग 13.6 फीट लम्बी एक लोहे की जालीयुक्त विशालकाय तोप रखी है जो वहाँ इस तरह स्थापित है कि तोप का मुँह किले के मुख्य प्रवेशद्वार की तरफ है।
अनेक मीलों तक मार करनेवाली इस तोप के गोलों के प्रहार से शत्रु का किले के भीतर प्रवेश पाना कितना मुश्किल काम रहा होगा। सैकड़ों वर्ष बीत जाने पर भी यह तोप अच्छी हालत में है तथा इस पर जंग बिल्कुल नहीं लगा है। किले की दाहिनी और बायीं तरफ की बुजों पर भी दो छोटी तोपें दीवार में स्थापित की हुई है।
नीलकंठ महादेव के पाश्र्व में गढ़ी के भीतर अश्वशाला, प्राचीन महल प्रमुखतः चौदह राजाओं की साल, सैनिकों के आवासगृह तथा जल संग्रह के लिए बना प्राचीन कुण्ड विद्यमान है । इस मंदिर के पीछे की तरफ वाले टीले में प्राचीन सभ्यता के अवशेष दबे पड़े हैं। नीलकंठ महादेव के स्वामीजी ने मुझे टीले से निकले कलात्मक पाषाण स्तम्भ दिखलाए जो कला के उत्कृष्ट नमूने हैं।
इनमें से एक पर गणेशजी की सुन्दर आकृति उत्कीर्ण है। इस टीले से निकली हुई ईंटें भी असाधारण हैं। देखने में वे साधारण लाल ईंटों की तरह ही हैं पर आकार में इनसे दुगुनी एवं कहीं ज्यादा मजबूत हैं। प्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता दयाराम साहनी ने किले से बाहर भोमिया जी के महल के पार्श्व वाले टीले के पुरातात्विक उत्खनन से दौसा की प्राचीनता पर नया प्रकाश पड़ने की सम्भावना व्यक्त की थी। नीलकंठ महादेव के पीछे वाला टीला भी उसी के समान पुरातात्विक उत्खनन की अपेक्षा रखता है।
सारत दौसा के किले के साथ कछवाहों के प्रारम्भिक इतिहास, ढूंढाड़ में उनके आगमन, निकटवर्ती संस्थानों के साथ उनके संघर्ष तथा आम्बेर जयपुर राज्य की विविध राजनीतिक घटनाओं के रोमान्चक प्रसंग जुड़े हुए हैं ।
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