जनरल जोरावर सिंह : भारतवर्ष वीरों कि धरती है और ऐसे वीरों मे कुछ युद्धाओ के अदम्य साहस व वीरता से आज के भारत का स्वरूप इतना विशाल है, आज (13 अप्रैल) एक ऐसे योद्धा कि जयंती है जिन्हे दुश्मनों ने “शेरों का राजा” कि उपाधि दी हो, जिनकी समाधि ही दुश्मन सेना ने बनाई हो, जिनके नाम पर जम्मू कश्मीर राफल्स अपना स्थापना दिवस मनाती हो, जिन्हे ‘भारत का नेपोलियन’ कहा जाता हो ।
जम्मू राज्य कि सीमाओ को बाल्टिस्तान, तिब्बत के मानसरोवर व भारत, तिब्बत तथा नेपाल के संगम स्थल तकलाकोट तक ले जाने वाले महाराजा गुलाबसिंह जी के शेर सेनापति जनरल जोरावर सिंह पर बात करेंगे। लद्दाख जिस वीर योद्धा के कारण आज भारत में है, उनका नाम है जनरल जोरावर सिंह ।
जनरल जोरावर सिंह का जन्म एक राजपूत परिवार मे 13 अप्रैल, 1786 को ग्राम- अनसरा, जिला- हमीरपुर, हिमाचल प्रदेश में ठाकुर हरजे सिंह के घर हुआ। युवा अवस्था मे जोरावर सिंह महाराजा गुलाब सिंह की डोगरा सेना में भर्ती हो गये।
जनरल जोरावर सिंह ने अपनी बहादुरी से सैनिक से जनरल बनने का सफर पूरा किया। सेना में राशन के प्रभारी जोरावर सिंह अपनी योग्यता से रियासी के किलेदार और बाद में किश्तवाड़ के गवर्नर बने। महाराजा गुलाब सिंह ने इनके सैन्य कौशल से प्रभावित होकर कुछ समय में ही इन्हें सेनापति बना दिया।
जनरल जोरावर सिंह अपनी विजय पताका लद्दाख और बाल्टिस्तान तक फहराना चाहते थे। इसलिए जोरावर सिंह ने सैनिकों को कठिन परिस्थितियों के लिए प्रशिक्षित किया और लेह की ओर कूच कर दिया। किश्तवाड़ के मेहता बस्तीराम के रूप में इन्हें एक अच्छा सलाहकार मिल गया। सुरू के तट पर वकारसी तथा दोरजी नामग्याल को हराकर जनरल जोरावर सिंह की डोगरा सेना लेह में घुस गयी। इस प्रकार लद्दाख जम्मू राज्य के अधीन हो गया।
आगे बढ़ते हुवे अब जोरावर ने बाल्टिस्तान पर हमला किया जिसमे लद्दाखी सैनिक भी अब उनके साथ थे। वहाँ के शासक अहमदशाह ने जब देखा कि उसके सैनिक बुरी तरह कट रहे हैं, तो उसे सन्धि करनी पड़ी। जोरावर सिंह ने अपने बेटे को गद्दी पर बैठाकर 7,000 रु. वार्षिक जुर्माने का फैसला कराया। लेकिन जनरल जोरावर सिंह यहीं नहीं रुके अब उन्होंने तिब्बत की ओर कूच किया। हानले और ताशी गांग को पार कर वे आगे बढ़ गये।
अब तक जोरावर सिंह और उनकी विजयी सेना का नाम इतना फैल चुका था कि रूडोक तथा गाटो ने बिना युद्ध किये हथियार डाल दिये। अब जनरल जोरावर सिंह कि सेना आगे बढ़ते हुवे मानसरोवर के पार तीर्थपुरी पहुँच चुकी थी। वहां 8,000 तिब्बती सैनिकों ने परखा में मुकाबला किया, जिसमे तिब्बती पराजित हुए। जोरावर सिंह तिब्बत, भारत तथा नेपाल के संगम स्थल तकलाकोट तक जा पहुँचे। वहाँ का प्रबन्ध उन्होंने मेहता बस्तीराम को सौंपा तथा वापस तीर्थपुरी आ गये।
जोरावर सिंह के पराक्रम की बात सुनकर अंग्रेजों के कान खड़े हो गये। उन्होंने पंजाब के राजा रणजीत सिंह पर उन्हें नियन्त्रित करने का दबाव डाला। निर्णय हुआ कि 10 दिसम्बर, 1841 को तिब्बत को उसका क्षेत्र वापस कर दिया जाये। इसी बीच जनरल छातर की कमान में दस हजार तिब्बती सैनिकों की जनरल जोरावर सिंह के 300 डोगरा सैनिकों से मुठभेड़ हुई। राक्षसताल के पास सभी डोगरा सैनिक शहीद हो गये।
जोरावर सिंह ने गुलामखान तथा नोनो के नेतृत्व में सैनिक भेजे; पर वे सब भी शहीद हुये। अब वीर जोरावर सिंह स्वयं आगे बढ़े। वे तकलाकोट को युद्ध का केन्द्र बनाना चाहते थे; पर तिब्बतियों की विशाल सेना ने 10 दिसम्बर, 1841 को टोयो में इन्हें घेर लिया। दिसम्बर की भीषण बर्फीली ठण्ड में तीन दिन तक घमासान युद्ध चला।
जनरल जोरावर सिंह का तिब्बती सैनिकों में इतना भय था कि उनके शव को छूने की भी हिम्मत नहीं थी।
12 दिसम्बर 1841 को जोरावर सिंह को गोली लगी और वे घोड़े से गिर पड़े। डोगरा सेना तितर-बितर हो गयी। तिब्बती सैनिकों में जोरावर सिंह का इतना भय था कि उनके शव को स्पर्श करने का भी वे साहस नहीं कर पा रहे थे। बाद में उनके अवशेषों को चुनकर एक स्तूप बना दिया गया। ‘सिंह छोतरन’ नामक यह खंडित स्तूप आज भी टोयो में देखा जा सकता है। इस जनरल जोरावर सिंह कि समाधि पर तिब्बती भाषा मे लिखवाया गया “शेरों का राजा”। तिब्बती इसकी पूजा करते हैं।
इस प्रकार जनरल जोरावर सिंह ने भारत की विजय पताका भारत से बाहर तिब्बत और बाल्टिस्तान तक फहरायी। वह भारत ही नहीं अपितु विश्व के एकमात्र योद्धा हैं जिनके शौर्य व वीरता से प्रभावित होकर शत्रु सेना द्वारा उनकी समाधि बनाई गई हो। उन्होंने लद्दाख को जम्मू रियासत का अंग बनाया जो भारत का अभिन्न अंग है। प्रकार इस वीर सपूत ने 12 दिसंबर 1841 ई. को तिब्बती से लड़ते हुए टोयो नामक स्थान पर वीरगति प्राप्त की। तिब्बतियों ने उनकी समाधि बनाई। उन्होंने कहा कि वे हमारे प्रेरणास्त्रोत हैं।
संकलन – बलवीर राठौड़ डढ़ेल-डिडवाना