जनरेशन अल्फा: चाचा नेहरू के फूल अब डिजिटल दुनिया में

Tina Chouhan

जयपुर। नेहरू के समय के बच्चे और आज के जनरेशन अल्फा के बच्चे दो बिल्कुल अलग दुनियाओं के नागरिक हैं। बाल दिवस केवल गुब्बारों और मिठाइयों का दिन नहीं है, बल्कि यह हमें याद दिलाने का दिन है कि हर नई पीढ़ी हमारे समय का आईना होती है। देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के समय के बच्चे मिट्टी में खेलते, गली में कबड्डी, कंचे और लुकाछिपी खेलते थे। उनके हाथों में तख्ती थी, जेब में स्लेट पेंसिल और घर में माता-पिता का पूरा नियंत्रण रहा करता था।

खेल में चोट भी लगती थी, पर उनमें जीवन के लिए साहस, साझेदारी और अनुशासन था। जबकि आज की पीढ़ी के बच्चे-यानी जनरेशन अल्फा-की दुनिया बिल्कुल अलग है। यह वह पीढ़ी है, जो 2010 के बाद जन्मी और जो पूरी तरह डिजिटल युग में पली-बढ़ी है। इनके माता-पिता ज्यादातर मिलेनियल्स हैं और जीवन के हर हिस्से में तकनीक शामिल है। ये बच्चे स्कूल के पहले दिन से ही मोबाइल, टैबलेट और स्मार्ट स्क्रीन के संपर्क में हैं। तीसरी कक्षा में ही एआई और कोडिंग इनके सिलेबस का हिस्सा बन चुके हैं।

नेहरू जब बच्चों को हिन्द की सबसे बड़ी संपत्ति कहते थे, तब शिक्षा मिट्टी की गंध में थी। अब वहीं शिक्षा कोड, क्लाउड और चैटबॉट में सिमट गई है। बच्चा अपने आस-पास की हवा से नहीं, बल्कि वाई-फाई से जुड़ा है। यही वजह है कि यह पीढ़ी इतिहास की सबसे ‘कनेक्टेड’ और साथ ही सबसे ‘अकेली’ पीढ़ी मानी जा रही है। स्क्रीन से शुरू होकर स्क्रीन पर खत्म होने वाली इस जिंदगी में बच्चों के सामने नए खतरे हैं-साइबर बुलिंग, डेटा प्राइवेसी, मानसिक थकान और अवसाद।

हाल के स्कूल सर्वे बताते हैं कि नौ से बारह साल के बच्चों में डिजिटल स्ट्रेस और फियर आफ मिसिंग आउट तेजी से बढ़ रहा है। पहले जहां माता-पिता बच्चों की पढ़ाई पर नियंत्रण रखते थे, अब कई बार बच्चे ही तकनीक के जरिए उनसे आगे निकल चुके हैं। विशेषज्ञों के अनुसार, जनरेशन अल्फा के लिए अब डिजिटल अनुशासन, भावनात्मक शिक्षण और खेलों का पुनरुद्धार सबसे जरूरी है। शिक्षाविद् मानते हैं कि हर स्कूल में आउटडोर खेल अब विकल्प नहीं, बल्कि जरूरी पाठ्यक्रम में शामिल होने चाहिए।

माता-पिता के लिए यह समय अपने बच्चों के फॉलोअर्स नहीं, उनके संवादी मित्र बनने का है। घर वह जगह होनी चाहिए, जहां बच्चा तर्क दे सके, असफल हो सके और गलती करने की आजादी महसूस करे। जनरेशन अल्फा को स्क्रीनेजर्स भी कहा जाता है-क्योंकि इनका बचपन स्क्रीन से शुरू होता है। ये बच्चे पर्यावरण और विविधता के प्रति जागरूक हैं, पर मानवीय संपर्क से दूर हो रहे हैं। आज बगीचा नहीं, बल्कि एक डिजिटल जंगल नेहरू बच्चों को फूल कहा करते थे, लेकिन आज उनके सामने वह बगीचा नहीं, बल्कि एक डिजिटल जंगल है।

अब जिम्मेदारी केवल स्कूलों की नहीं, बल्कि पूरे समाज की है कि यह पीढ़ी सिर्फ स्मार्ट नहीं, बल्कि संवेदनशील भी बने। अगर हमने इन्हें स्क्रीन से परे मनुष्य का अर्थ समझाया, तो यही बच्चे वह भारत गढ़ेंगे, जिसकी कल्पना नेहरू ने की थी। नई पीढ़ी का संघर्ष से कम सरोकार है, नई पीढ़ी तकनीक से प्रेरित होने के कारण अनेक समस्याओं ने जन्म लिया है। नई पीढ़ी का तकनीक से मानसिक स्वास्थ्य कमजोर हुआ है, तनाव और असुरक्षा का माहौल बना है। समझदारी कमजोर हुई है, ऐसे में तकनीक के साथ ही परम्परात तौर-तरीकों का इस्तेमाल किया जाना चाहिए।

-प्रो.राजीव गुप्ता, प्रख्यात अर्थशास्त्री, जयपुर। पुरानी और नई तकनीक के बीच समन्वय होना चाहिए। उस समय वह पद्धति श्रेष्ठ थी, उसी को जीते थे, उसी से जीवन का सफर आगे बढ़ा। खेल-कूद, शिक्षा- दिशा और अध्ययन-अध्यापन उसी पद्धति से आया, लेकिन आज वक्त के साथ सभी कुछ बदला है। नई तकनीक के साथ ही पुरानी पद्धति भी चलती रहे, तो अतीत और वर्तमान का अच्छा संगम हो सकेगा। -प्रो.सुशीला बुन्देला, शिक्षाविद्, जयपुर

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