मुस्लिम वास्तुशास्त्र का महत्त्व

Kheem Singh Bhati
4 Min Read

मुस्लिम वास्तुशास्त्र में महल (राजप्रासाद), मस्जिद, मकबरा प्रमुख हैं। मुगल सम्राटों ने मीनारों का निर्माण भी कराया है। दुर्ग एवं किलों के निर्माण में भी वास्तुशास्त्र के नियमों का पालन किया गया है।

सर्वप्रथम दसवीं-ग्यारहवीं सदी ई. में महमूद गजनवी ने भारत पर आक्रमण करके तथा उसके बाद मौहम्मद गौरी ने संपूर्ण भारत को जीतकर स्थायी मुस्लिम राज्य की बुनियाद रखी। मुसलमानों के प्रवेश के प्रारंभ के बाद के 500 वर्षों तक भारवर्ष में हिंदू-मुसलमानों की सभ्यता एवं संस्कृति का सम्मिलन हुआ, जिसका प्रभाव बाद में भारतीय वास्तुशास्त्र पर भी पड़ा।

मुस्लिम वास्तुशास्त्र का महत्त्व
मुस्लिम वास्तुशास्त्र का महत्त्व
मुस्लिम वास्तुशास्त्र का महत्त्व

प्रसिद्ध दार्शनिक अलबरूनी जो महमूद गजनवी का समकालीन था, बगदाद का वास्तुशास्त्र का ज्ञाता था। भारत में आकर वह भारतीय वास्तुशास्त्र को मिलाकर एक नई हिंदू-मुस्लिम वास्तुशिल्प की नींव डाली। यह भारतीय वास्तुशास्त्र के प्रभाव का नमूना है। यदि उनमें अंतर है तो केवल फूल-पत्तियों और मानव आकृतियों का, क्योंकि मुस्लिम वास्तुशास्त्र में मानव आकृतियों का बनाना वर्जित रहा है।

सर्वप्रथम 1166 ई. में मौहम्मद गौरी के सेनापति कुतुबुद्दीन ने भारत में कुवतुल इस्लाम के नाम से एक मस्जिद का निर्माण कराया जिसको देखने आरे इबादत करने के लिए विश्वभर से लोग यहां आते हैं। मुगलकालीन संस्कृति एवं धर्म में इबादत के लिए पश्चिम दिशा में स्थान होता है जहां मस्जिद में इबादत या नमाज अदा की जाती है। नमाज अदा करने वाले व्यक्ति को पश्चिमाभिमुख होना अनिवार्य है।

मकबरा (मुस्लिम वास्तुशास्त्र का महत्त्व)

मकबरे का मुस्लिम वास्तुशास्त्र में प्रमुख स्थान है। मकबरे में सादगी, पवित्रता तथा गंभीरता का वातावरण परिलक्षित होता है। इसके निर्माण में अद्भुत एवं अद्वितीय मौलिकता से भार का संतुलन किया जाता है, साथ ही उसको सुंदर और सुदृढ़ भी माना जाता है।

शाहजहां के द्वारा बनाया गया ताजमहल और मौहम्मद शाह का मकबरा विश्व के सुंदरतम् वास्तुशास्त्र के उदाहरण हैं। उनके निर्माण में वास्तुशास्त्र के नियमों का पूर्ण रूप से पालन किया गया है। मुख्य भवन के नीचे आठों कमरों में आवश्यकता के मुताबिक सूर्य का प्रकाश तथा वायु प्रवाहित होती है। यमुना जल की लहरें उसे शीतलता प्रदान करती हैं। इसी कारण ताहमहल विश्वप्रसिद्ध इमारत बन गया है।

राजमहल और किले (मुस्लिम वास्तुशास्त्र का महत्त्व)

मुस्लिम साम्राज्य के समय में बनाए गए अधिकतर ताजमहल, दीवान-ए-आम की वास्तुशास्त्रीय शैली भारतीय राजप्रासदों से मिलती-जुलती-सी ही रही है। दिल्ली एवं आगरे के किले देखने से मुस्लिम वास्तुशास्त्र की झलक मिलती है; जो उदयपुर या जयगढ़ और अजमेर के किलों से एकदम भिन्न थी । प्रस्तुत कई स्थानों पर भारतीय वास्तुशास्त्र के समन्वय की झलक भी मिलती है।

जैसे फतेहपुर सीकरी के खास महल के बीच बाह्यालंकृत स्तंभ पर स्थित पुष्पाकार सिंहासनयुक्त दीवान-ए-आम तथा बुलंद दरवाजा जो भारतीय एवं मुस्लिम वास्तुशास्त्र में एकरूपता दर्शाता है। मुस्लिम शासकों में बहुत से अधिक कट्टरपंथी रहे। उदाहरण के लिए, यदि लाल किले का मुख्यद्वार पूर्व की ओर खुलता है, संभव है कि इसका इतिहास कुछ अलग ही होता।

उसकी प्राचीर एवं परिसर में इतना रक्त नहीं बहता, न ही मुस्लिम शासनकाल में इतने उतार-चढ़ाव आते। लाल किले के समय में ही बनी जामा मस्जिद का उदाहरण देखें। मस्जिद का मुख्य द्वार पूर्व दिशा में है। भवन के और भागों में भी वास्तुनियमों का ध्यान रखा गया है। यह मस्जिद पूर्ण वास्तुशास्त्र के नियमों पर आधारित होने के कारण आज भी शान से खड़ी है। उससे जुड़े परिवार भी समर्थ एवं खुशहाल हैं।

देश विदेश की तमाम बड़ी खबरों के लिए निहारिका टाइम्स को फॉलो करें। हमें फेसबुक पर लाइक करें और ट्विटर पर फॉलो करें। ताजा खबरों के लिए हमेशा निहारिका टाइम्स पर जाएं।

Share This Article
kheem singh Bhati is a author of niharika times web portal, join me on facebook - https://www.facebook.com/ksbmr