नागौर का किला – जिसे कोई राजा जीत नहीं पाया

Kheem Singh Bhati
20 Min Read

नागौर का किला । राजस्थान के स्थल दुर्गों में नागौर का प्राचीन दुर्ग उल्लेखनीय है। यह किला वीर अमरसिंह राठौड़ की शौर्य गाथाओं के कारण इतिहास में अपना एक विशिष्ट स्थान और महत्त्व रखता है। चारों ओर मरुस्थल और ऊबड़ खाबड़ भूमि से घिरा नागौर का किला ‘धान्वन दुर्ग’ की कोटि में आता है ।

नागौर एक प्राचीन एवं ऐतिहासिक नगर है। प्राचीन शिलालेखों और साहित्यिक ग्रन्थों में इसके नागदुर्ग, नागठर, नागपुर, नागाणा और अहिछत्रपुर इत्यादि विविध नाम मिलते हैं। इनमें अहिछत्रपुर नगर का वर्णन महाभारत में आया है। उक्त संदर्भ के अनुसार इस नगर पर पांचाल नरेश द्रुपद का आधिपत्य था जिसे अर्जुन ने जीतकर अपने गुरु द्रोणाचार्य को सौंप दिया ।

पुत्र जन्म परीप्सन्वै, पृथ्वी मन्वसंचरत ।
अहिछत्र चविषय, द्रोणः समभिपद्यतः ।।
एवं राजत्रहिछत्रा पुरीजनपदाभ्युता ।
युधिनिर्जिल्य पार्थेन द्रोणाय प्रतिपादिता ।।

नागौर का प्रारम्भिक इतिहास बहुत कुछ विस्मृति के गर्त में है और इस बारे में प्रामाणिक जानकारी का अभाव है। किन्तु इस प्राचीन नगर के विविध नाम, जनश्रुतियाँ और प्रचलित परम्परा इसका सम्बन्ध नागवंशी क्षत्रियों से जोड़ती हैं। जिनका यहाँ दीर्घकाल तक आधिपत्य रहा। आगे चलकर परमारों ने उन्हें अपदस्थ कर अपना राज्य स्थापित किया।

इस आशय का एक दोहा है —

परमारा रुधाविया नाग गया पाताल ।
रहा बापड़ा आसिया, किणरी झूमै चाल ।।

प्राचीनकाल में नागौर और उसका निकटवर्ती प्रदेश जांगलक्षेत्र अथवा जांगल जनपद के अन्तर्गत आता था। मूलतः जांगलक्षेत्र जिसमें हर्ष, नागौर व सांभर सम्मिलित थे, के अधीश्वर होने के कारण शाकम्भरी और अजमेर के चौहान नरेशों को प्राय: जांगलेश भी कहा जाता था तथा जांगलप्रदेश के अधिपति होने के कारण ही आगे चलकर बीकानेर के राजा ‘जंगलधर पातिसाह’ कहलाये।

नागौर का किला - जिसे कोई राजा जीत नहीं पाया
नागौर का किला – जिसे कोई राजा जीत नहीं पाया

डॉ० गौरीशंकर हीराचन्द ओझा की मान्यता है कि चौहानों का मूल राज्य जांगलदेश में था और उसकी राजधानी अहिछत्रपुर (नागौर) थी। हालांकि इतिहासकार डॉ० दशरथ शर्मा ने अहिछत्रपुर का नागौर के साथ तादात्म्य संदिग्ध माना है। लेकिन विक्रम संवत 1226 के बिजोलिया शिलालेख से पता चलता है कि चौहानों पूर्वज सामन्त यहीं का स्वामी था ।

कालान्तर में यहाँ से जाकर चौहानों ने सांभर को अपनी राजधानी बनाया । प्राचीन काल में चौहानों के आधिपत्य के अन्तर्गत आनेवाला समस्त प्रदेश ‘सपादलक्ष’ कहलाता था। तत्पश्चात जोधपुर रियासत के अन्तर्गत आने के बाद भी नागौर परगना ‘श्वालक’ ही कहलाता रहा ।

नागौर के सुदृढ़ दुर्ग के निर्माता के सम्बन्ध में प्रामाणिक जानकारी का अभाव है। ख्यातों के अनुसार चौहान राजा सोमेश्वर के सामन्त कैमास ने इस स्थान पर एक दिन एक भेड़ को भेड़िये से लड़ते देखा। शकुन से इसे वीर भूमि जानकर उसने वैशाख सुदी 3 विक्रम संवत 1211 को नागौर के किले की नींव रखी।

फारसी तवारीखोंतबकात ए नासिरी और तारीख ए फरिश्ता में उल्लेख है कि गजनी के सुलतान बहरामशाह ने हिजरी संवत 512 (वि०सं० 1175) में हिन्दुस्तान पर चढ़ाई की और यहाँ कुछ इलाके जीतने के बाद मोहम्मद बाहलीम को अपने द्वारा अधिकृत मुल्क (प्रदेश) का गवर्नर नियुक्त किया। कुछ अरसे बाद बाहलीम बागी हो गया और उसने नागौर का किला सवालक की विलायत में बेरे की हद पर बनवाया।

नागौर का किला - जिसे कोई राजा जीत नहीं पाया
नागौर का किला – जिसे कोई राजा जीत नहीं पाया

उसने नागौर शहर के चारों ओर परकोटा बनवाया तथा अपने आश्रितों व खजाने को वहाँ सुरक्षित करने के बाद पड़ौस के शासकों पर हमला कर अपना राज्य बढ़ाया। इतिहासकार कर्नल टॉड और डॉ० दशरथ शर्मा ने भी बाहलीम द्वारा नागौर को अपनी शक्ति केन्द्र बनाकर उसके द्वारा समीपवर्ती हिन्दू राज्यों पर आक्रमण की घटना का उल्लेख किया है।

वस्तुत: सिन्ध से दिल्ली को आने वाले मार्ग पर स्थित होने के कारण नागौर का किला सामरिक दृष्टि से बहुत महत्त्व रखता था। अपनी इस विशिष्ट स्थिति के कारण जहाँ एक ओर सीमा पार से आने वाले मुस्लिम आक्रान्ताओं की निगाहें बराबर इस दुर्ग पर लगी रहीं वहीं दूसरी ओर यह किला विभिन्न राजपूत राजवंशों के बीच भी कड़ी प्रतिस्पर्द्धा तथा युद्ध और संघर्षों का केन्द्र बना रहा। इसके अलावा यह अजमेर की तरह मुस्लिम मिशनरियों की प्रारम्भिक गतिविधियों और व्यापारिक काफिलों का भी आगमन स्थल रहा ।

इतिहासकार डॉ० दशरथ शर्मा ने नागौर के किले को चौहानों के अधीन सबसे सुदृढ़ दुर्गों की कोटि में रखा है। उन्होंने लिखा है कि उस समय के दो प्रमुख राजवंशोंचालुक्यों (सोलंकी) और चौहानों के बीच नागौर व निकटवर्ती प्रदेश में युद्ध संघर्ष हुए जिनके चलते गुजरात के प्रतापी चालुक्य नरेश सिद्धराज जयसिंह ने वि० संवत 1178 के लगभग नागौर पर अधिकार कर लिया परन्तु कुछ अरसे बाद चौहानों ने इसे वापस हस्तगत कर लिया।

उस समय नागौर का यह दुर्ग अस्तित्व में आ चुका था या नहीं इस बारे में प्रामाणिक जानकारी का अभाव है किन्तु इस बात के यथेष्ठ प्रमाण हैं कि तराईन के दूसरे युद्ध (1192ई०) में पृथ्वीराज चौहान की पराजय के फलस्वरूप नागौर का किला मुहम्मद गौरी ने हस्तगत कर लिया 13 गुलामवंशीय सुलतान कुतुबुद्दीन ऐबक की मृत्यु के उपरान्त नागौर स्वतन्त्र हो गया था जिस पर इल्तुतमिश ने फिर से अधिकार कर लिया।

नागौर का किला - जिसे कोई राजा जीत नहीं पाया
नागौर का किला – जिसे कोई राजा जीत नहीं पाया

तदनन्तर बलवन सिन्ध की तरफ से संभावित आक्रमण को देखते हुए अपने साम्राज्य की सुरक्षार्थ नागौर में रहा था। दयालदास की ख्यात तथा अन्य ख्यातों से पता चलता है कि मंडोर के राव चूंडा राठौड़ ने जलालखाँ खोखर को मारकर नागौर दुर्ग ले लिया परन्तु कुछ वर्षों बाद वह अपने द्वारा विजित इस दुर्ग की रक्षार्थ मुलतान के नवाब और भाटियों के सम्मिलित आक्रमण का मुकाबला करते हुए वीरगति को प्राप्त हुआ ।

इतिहासकार गौरीशंकर हीराचन्द ओझा ने उक्त घटनाक्रम पर अपना संदेह व्यक्त करते हुए लिखा है कि नागौर पर मुसलमानों का अधिकार मुहम्मद तुगलक के समय से ही था, जिसका एक लेख नागौर से मिला है। तदनन्तर दिल्ली की बादशाहत कमजोर होने पर मुजफ्फरशाह गुजरात का स्वतन्त्र सुलतान बना जिसने जलालखाँ खोखर को नागौर से हटाकर अपने भाई शम्सखाँ को वहाँ का हाकिम नियुक्त किया ।

शम्सखाँ के पीछे उसका पुत्र फीरोज नागौर का शासक हुआ जिसे मेवाड़ के महाराणा मोकल ने हराया। ‘मिराते सिकंदरी’ से भी खोखर के बाद क्रमश: शम्सखाँ और उसके पुत्र फीरोज का नागौर का शासक होना पाया जाता है । महाराणा कुम्भा के शासनकाल में नागौर के अधिपति फीरोजखाँ की मृत्यु के बाद उसके पुत्र शम्सखाँ व भाई मुजाहिदखाँ के बीच उत्तराधिकार के लिए संघर्ष हुआ जिसके चलते मुजाहिदखाँ ने नागौर पर अधिकार कर लिया और शम्सखाँ भागकर कुम्भा की शरण में आया।

तब महाराणा ने मुजाहिदखाँ को हटाने के लिए एक विशाल सेना के साथ नागौर पर अभियान किया। कुम्भा की शक्ति से भयभीत होकर मुजाहिदखाँ वहाँ से भाग गया और शम्सखाँ को नागौर का अधिपति बना दिया। किन्तु आगे चलकर उसकी विद्रोही प्रवृत्ति के कारण कुम्भा ने नागौर पर फिर अभियान किये तथा शम्सखाँ और उसके हिमायती गुजरात के सुलतान कुतुबुद्दीन की चुनौती का दृढ़ता पूर्वक प्रतिरोध करते हुए नागौर पर अधिकार कर लिया। चित्तौड़ की कीर्तिस्तम्भ प्रशस्ति में लिखा है ‘

 “कुंभकर्ण (राणा कुम्भा) ने गुजरात के सुलतान की विडम्बना करते हुए नागपुर (नागौर) ले लिया, फीरोज की बनवाई हुई मस्जिद को जलाया, किले को तोड़ा, खाई को भर दिया, हाथी छीन लिये, असंख्य यवनों को दण्ड दिया, नागपुर को गोचर बना दिया और शम्सखाँ के खजाने से विपुल रत्न छीने।”

वीर विनोद का उल्लेख है कि महाराणा कुम्भा ने नागौर पर आक्रमण कर (1467ई०) गोवध में लिप्त वहाँ के मुसलमानों को दण्डित किया। महाराणा ने किले को फतह कर वहाँ का माल असबाब लूट लिया। इस युद्ध में हजारों लोग मारे गये। किले पर जो हनुमान की मूर्ति थी उसे वे नागौर विजय की यादगार स्वरूप अपने साथ ले आये और उसे अपने द्वारा निर्मित कुम्भलगढ़ के हनुमानपोल प्रवेश द्वार पर प्रतिष्ठापित करवा दिया ।

महाराणा कुम्भा की मृत्यु के पश्चात् नागौर पर फिर मुस्लिम सुलतानों का वर्चस्व स्थापित हुआ । ओझाजी द्वारा लिखित बीकानेर राज्य के इतिहास के अनुसार विक्रम संवत 1570 (1513ई०) में नागौर के स्वामी मुहम्मदखाँ ने बीकानेर पर चढ़ाई की लेकिन अतुल पराक्रमी राव लूणकरण ने उसके आक्रमण को विफल कर दिया । तत्पश्चात जोधपुर के राठौड़ नरेश राव मालदेव ने 1536 ई० में नागौर के मुस्लिम शासक को मारकर वहाँ अपना अधिकार स्थापित किया। उसके द्वारा इस दुर्ग के जीर्णोद्धार का भी उल्लेख मिलता है।

फिर शेरशाह सूरी के अधिकार में रहने के बाद नागौर मुगल बादशाह अकबर के अधीन आ गया। अपने शासनकाल के 15 वें वर्ष में अर्थात् 1570 ई० में अकबर अजमेर में ख्वाजा साहब की जियारत करने के बाद नागौर आया तथा लगभग दो महीने तक वहाँ रहा। वहाँ उसने एक तालाब खुदवाया जिसका नाम शुक्र तालाब रखा गया। इन दिनों अकबर का प्रभाव बहुत बढ़ गया था।

इसके कारण अनेक राजा महाराजा उससे मित्रता के उत्सुक थे। अत: बादशाह के वहाँ रहते मारवाड़ का चन्द्रसेन उसके पास उपस्थित हुआ तथा मुगलों की अधीनता स्वीकार की। इसी तरह नागौर के मुकाम पर ही बीकानेर का राजा कल्याणमल अपने पुत्र कुंवर रायसिंह के साथ अकबर की सेवा में उपस्थित हुआ।

तदनन्तर अकबर ने नागौर आम्बेर के जगमाल कछवाहा को तथा तत्पश्चात राजा भगवन्तदास के कनिष्ठ पुत्र (मानसिंह के छोटे भाई) माधोसिंह कछवाहा को इनायत किया लेकिन कुछ अरसे बाद इसे बीकानेर के रायसिंह की जागीर में दे दिया गया ।

परन्तु नागौर को प्रसिद्धि और गौरव दिलाया वीर शिरोमणि अमरसिंह राठौड़ के शौर्य और स्वाभिमान ने। अमरसिंह जोधपुर के महाराजा गजसिंह का ज्येष्ठ पुत्र था लेकिन अपने अक्खड़ और उग्र स्वभाव तथा महाराजा की चहेती पासवान अनारा बेगम द्वारा जसवन्तसिंह का पक्ष लिये जाने के कारण वह जोधपुर की गद्दी से वंचित कर दिया गया।

बादशाह शाहजहाँ अमरसिंह की वीरता से बहुत प्रभावित था। उसने उसे राव की पदवी और नागौर परगने सहित कुछ अन्य इलाके जागीर में दिये । अमरसिंह शाही सेना के साथ दक्षिण के अभियानों में सम्मिलित हुआ जहाँ उसने अद्भुत वीरता प्रदर्शित की । वह शाहजादे शुजा के साथ काबुल भी गया और शाहजादे मुराद के साथ भी विभिन्न अभियानों में भाग लिया।

अमरसिंह वीर और पराक्रमी होने के साथ अत्यधिक स्वाभिमानी था। आगरा में शाहजहाँ के दरबार में घटित वह घटना तो इतिहास प्रसिद्ध है कि शाहजहाँ के फौजबख्शी सलाबतखाँ द्वारा गंवार कहे जाने पर अमरसिंह ने उसे भरे दरबार में अपनी कटार के वार से तत्काल ढेर कर दिया। तभी से लोक में ‘कटारी अमरेस री’ प्रसिद्ध हो गई।

इस आशय का एक दोहा भी लोक प्रसिद्ध है-

उण मुख ते गग्गो कहयो, इण कर लई कटार ।
वार कह पायो नहीं, जमधर हो गई पार ।।

तदनन्तर अपने साले अर्जुन गौड़ व अन्य दरबारियों से जूझते हुए अमरसिंह वीरगति को प्राप्त हुआ एवं एक आदर्श शूरवीर के रूप में राजस्थान के इतिहास में अमर हो गया । जोधपुर के महाराजा अभयसिंह के शासनकाल में नागौर उसके छोटे भाई बखतसिंह की जागीर में था। यह बखतसिंह अपने समय का उद्भट शूरवीर था । (नागौर का किला)

व्यक्तिगत पौरुष और पराक्रम में उसका कोई सानी नहीं था। गगवाणा के युद्ध में उसने अपने मुट्ठीभर सैनिकों के साथ जिस प्रचण्ड वेग से आक्रमण कर कछवाहों की विशाल फौज के छक्के छुड़ा दिये थे, उस पराजय के दंश से सवाई जयसिंह जैसे प्रतापी नरेश भी उम्र भर नहीं उबर सके। बखतसिंह के चरित्र पर कोई कलंक है तो बस एक पितृर्हता होने का ।

उसकी प्रशंसा करते हुए इतिहासकार कर्नल टॉड ने ठीक ही लिखा है –  “And but for that one damning crime he would have been handed down to posterity as one of the noblest princes Rajwara ever knew.”

बखतसिंह ने नागौर के किले का जीर्णोद्धार करवाया (नागौर का किला)

बखतसिंह ने नागौर के किले का जीर्णोद्धार करवाया तथा उसकी सुरक्षा व्यवस्था को सुदृढ़ बनाया। बखतसिंह ने विविध शिल्पकलाओं को प्रोत्साहन और प्रश्रय दिया। जिससे नागौर कला का केन्द्र बन गया। बखतसिंह ने अपने सजातीय बीकानेर के राठौड़ राज्य पर सैनिक अभियान किये तथा बीकानेर के जूनागढ़ दुर्ग को घेर लिया लेकिन बीकानेर पर उसका अधिकार नहीं हो सका ।)

इसके बाद नागौर के किले को शक्तिशाली मरहठों के आक्रमणों की विभीषिका झेलनी पड़ी। जोधपुर की गद्दी से पदच्युत किये गये शासक रामसिंह व तत्कालीन महाराजा विजयसिंह के बीच संघर्ष चला । मरहठों ने रामसिंह का पक्ष लेकर विजयसिंह के विरुद्ध अभियान किये। महाराजा विजयसिंह ने मरहठों के विरुद्ध नागौर के किले को अपने आश्रयस्थल के रूप में चुना। (नागौर का किला)

मरहठों ने नागौर के किले का घेरा डाला और कई महीनों तक उसे घेरे रखा किन्तु किले का पतन नहीं हो सका। अंततोगत्वा महाराजा विजयसिंह के सैनिकों द्वारा धोखे से मरहठा सेनापति जयप्पा सिंधिया की नागौर के समीप ताऊसर के सैनिक शिविर में हत्या कर दिये जाने से जोर कम पड़ गया। इसके बाद नागौर पर अधिकांशत: राठौड़ों का ही मरहठों वर्चस्व रहा ।

नागौर का किला बहुत सुदृढ़ है । यह उत्कृष्ट स्थल दुर्ग की कोटि में आता है । इसने अगणित आक्रमणोंकी विभीषिका झेली है, काल के क्रूर थपेड़े सहे हैं । अतीत की अनेक रोमांचक घटनाओं का साक्षी यह किला मारवाड़ के मरुस्थल के मध्य अपनी निराली ही शान से खड़ा है। जैसाकि पहले कह आये हैं चारों ओर मरुस्थल व ऊबड़ खाबड़ भूमि से घिरा होने के कारण नागौर के किले को शास्त्रोक्त धान्वन दुर्ग की कोटि में रखा जा सकता है।

इस दुर्ग के निर्माण में प्राचीन भारतीय वास्तुशास्त्र के नियमों का पालन हुआ है। किले की दोहरी सुदृढ़ प्राचीर और उसके चतुर्दिक जल से भरी गहरी खाई या परिखा नागौर दुर्ग को सुरक्षा का अभेद्य कवच दुर्ग का परकोटा लगभग 5000 फीट लम्बा है तथा इसकी प्राचीर में 28 विशाल बुर्जे बनी हैं। यह परकोटा दोहरा बना हुआ है जिसमें पहला भूमितल से 25 फीट और दूसरा 50 फीट ऊँचा है।

इस किले के 6 विशाल दरवाजे हैं जो सिराईपोल, बिचलीपोल, कचहरीपोल, सूरजपोल, धूपीपोल और राजपोल कहलाते हैं। यह किला लगभग 2100 गज के घेरे में फैला हुआ है । इतिहासकार जगदीशसिंह गहलोत ने नागौर के किले की नाप को इस प्रकार उल्लेखित किया है –

लम्बाई 499 गज, चौड़ाई 494 गज, ऊँचाई 25 गज ।
बुर्ज 818 गज, कंगूरा 818 गज, कुल घेरा 2100 गज ।।

केवल दुर्ग ही नहीं नागौर शहर के चतुर्दिक भी एक सुदृढ़ परकोटा बना है। नगर प्राचीर में 6 विशाल भव्य प्रवेश द्वार हैं जो क्रमश: जोधपुरी, अजमेरी, नाकास, माही, नया और दिल्ली दरवाजा कहलाते हैं । नागौर के किले के स्थापत्य की विशेषता यह है कि किले के बाहर से चलाये गये तोपों के गोले किले के महलों को क्षति पहुँचाये बिना ही ऊपर से निकल जाते थे यद्यपि महल प्राचीर से तनिक ऊपर उठे हुए हैं ।

नागौर के किले (नागौर का किला) के भीतर सुन्दर भित्तिचित्र बने हुए हैं। इनमें बादल महल और शीश महल के चित्र विशेष रूप से दर्शनीय हैं। अधिकांशतः 18 वीं शती के मध्य में बने इन चित्रों में राजसी वैभव और लोकजीवन का सुन्दर समन्वय दिखलाई पड़ता है। पेड़ की छाँव में संगीत सुनते प्रेमी युगल, उद्यान में हास परिहास करती रमणियाँ, राजदरबार के दृश्य, विविध नस्लों के चुस्त घोड़े, बेलबूंटों और पुष्पलताओं का चित्रण, नृत्य और गायन में तल्लीन एवं उद्यान में विहार करती नायिकाओं का चित्रण बहुत सुन्दर और कलापूर्ण है।

किले के भीतर एक सुन्दर फव्वारा बना है जिस पर उत्कीर्ण शिलालेख से पता चलता है कि इसका निर्माण मुगल बादशाह अकबर ने करवाया था । सारत: नागौर का किला इतिहास और संस्कृति की एक अमूल्य धरोहर संजोये हुए है। नागौर के सुरम्य परिवेश को लक्ष्य कर कहा गया यह दोहा आज भी उतना ही सार्थक है –

खाटू तो स्याले भलो, ऊंध्याले अजमेर ।
नागाणो नित ही भलो, सावण बीकानेर ।।

(नागौर का किला)

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