नाहरगढ़ दुर्ग – आम्बेर और जयपुर के मध्य उत्तर से दक्षिण की ओर विस्तृत अरावली पर्वतमाला के एक छोर पर जयगढ़ व दूसरे पर नाहरगढ़ (सुदर्शनगढ़) दुर्ग अवस्थित है। जयपुर के यशस्वी संस्थापक महाराजा सवाई जयसिंह द्वारा निर्मित यह भव्य और सुदृढ़ दुर्ग जयपुर के मुकुट के समान है तथा शहर की ओर झाँकता हुआ सा प्रतीत होता है।
इस किले का पूर्व नाम सुदर्शनगढ़ है जिसका परिचायक सुदर्शन कृष्ण का मन्दिर किले के भीतर विद्यमान है। किन्तु लोक में यह दुर्ग नाहरगढ़ नाम से ही अधिक प्रसिद्ध है जो संभवत: नाहरसिंह भोमिया के नाम पर पड़ा है जिनका स्थान किले की प्राचीर में प्रवेश द्वार के निकट बना हुआ है।
इस दुर्ग के निर्माण के सम्बन्ध में जनश्रुति है कि जब महाराजा सवाई जयसिंह अपनी नव स्थापित राजधानी की सुरक्षा के लिए यह दुर्ग बनवा रहे थे तब जुझार नाहरसिंह ने किले के निर्माण में विघ्न उपस्थित किया। कहा जाता है कि दिन में जो निर्माण कार्य होता वह रात्रि के समय भोमिया जी द्वारा ध्वस्त कर दिया जाता।
निदान सवाई जयसिंह के राजगुरु एवं प्रसिद्ध तांत्रिक रत्नाकर पौण्डरीक ने नाहरसिंह बाबा को अन्यत्र जाने के लिए राजी कर लिया और उनका ‘स्थान’ आंबागढ़ के निकट एक चौबुर्जी गढ़ी में स्थापित कर दिया, जहाँ वे आज भी लोकदेवता के रूप में पूजे जाते हैं। ऐसी मान्यता है कि महाराजा सवाई जयसिंह ने 1734 ई० में इस किले का निर्माण (मरहठों के विरुद्ध) अपनी राजधानी की सुरक्षा की दृष्टि से करवाया था।

नाहरगढ़ दुर्ग के में निर्माण पर लगभग साढ़े तीन लाख रुपये खर्च हुए थे।
उस समय किले के निर्माण पर लगभग साढ़े तीन लाख रुपये खर्च हुए बताये। सन् 1727 ई० में जयपुर नगर बसाने के लगभग सात वर्ष बाद नाहरगढ़ का निर्माण जयपुर की सुरक्षा की दृष्टि से एक महत्त्वपूर्ण कदम था। जिस समय इस दुर्ग का निर्माण हुआ उस समय नाहरगढ़ तथा इसके आसपास का भू-भाग हरे-भरे सघन वृक्षों से घिरा था। दुर्ग में जाने के लिए जयपुर शहर से एक पक्का घुमावदार मार्ग बना है जो नाहरगढ़ का रास्ता कहलाता है।
नाहरगढ़ की प्राचीर के नीचे पर्वतांचल में बना एक विशाल जलाशय इस दुर्ग की जलापूर्ति का प्रमुख साधन है। किले के पृष्ठ भाग में बुर्ज के समीप भी एक बावड़ी अथवा कुण्ड विद्यमान है। किले की गोलाकार सुदृढ़ बुर्जों पर रियासतकाल में विशालकाय तोपें रखी जाती थीं जो शत्रु के संभावित आक्रमण को रोकने में समर्थ थीं।

दुर्ग के पीछे की ओर आज जहाँ शास्त्रीनगर और कच्ची बस्तियाँ बस गयी हैं नदी-नाले तथा निर्जन वन प्रांतर था जिससे इस किले को नैसर्गिक सुरक्षा प्राप्त हो गई थी। सम्प्रति नाहरगढ़ पर जाने के लिए जल महल के पास से फूलों की घाटी वाले मार्ग का ही प्राय: उपयोग होता है। नाहरगढ़ अपने शिल्प और सौन्दर्य से परिपूर्ण भव्य महलों के लिए प्रसिद्ध है।
चतुष्कोणीय चौक, झुके हुए अलंकृत छज्जे तथा उनमें सजीव चित्रांकन इन राजमहलों की प्रमुख विशेषता है। नाहरगढ़ के अधिकांश भव्य राजप्रासादों का निर्माण जयपुर के महाराजा सवाई रामसिंह (द्वितीय) तथा उनके बाद सवाई माधोसिंह ने अपनी नौ पासवानों (प्रेयसियों) के नाम पर यहाँ नौ इकमंजिले और दुमंजिले महलों का निर्माण करवाया जिनके नाम सूरज प्रकाश, खुशहाल प्रकाश, जवाहर प्रकाश, ललित प्रकाश, आनन्द प्रकाश, लक्ष्मी प्रकाश, चाँद प्रकाश, फूल प्रकाश और बसन्त प्रकाश हैं, जो कदाचित् इन्हीं पासवानों के नाम पर हैं।

इन महलों के स्थापत्य की प्रमुख विशेषता उनकी एकरूपता, रंगों का संयोजन तथा ऋतुओं के अनुसार इनमें हवा और रोशनी की व्यवस्था है। ये महल एक छोटी सुरंग द्वारा आपस में जुड़े हुए हैं। इस सुरंग के कारण राजा किस समय कौन से महल में है इसका किसी को पता नहीं चलता था।
किले के अन्य प्रमुख भवनों में हवा मन्दिर, महाराजा माधोसिंह का अतिथिगृह, सिलहखाना आदि उल्लेखनीय नाहरगढ़ में जयपुर के विलासी महाराजा सवाई जगतसिंह की प्रेयसी रसकपूर भी कुछ अरसे तक कैद रही थीं। नाहरगढ़ पर्यटन की दृष्टि से प्रचुर सम्भावनायें लिए हुए है। यहाँ से जयपुर शहर का विहंगम दृश्य बहुत सुन्दर और नयनाभिराम लगता है।
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