कबूतरों को दाना डालने से सेहत पर पड़ सकते हैं गंभीर प्रभाव

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कोटा। कबूतरों को दाना डालने की आदत धीरे-धीरे आस्था में बदल गई है, जिससे हम वैज्ञानिक दृष्टिकोण को नजरअंदाज करने लगे हैं। यह न केवल प्रकृति के इको सिस्टम को नुकसान पहुंचा रहा है, बल्कि मानव जीवन को भी गंभीर संक्रमण और बीमारियों के खतरे में डाल रहा है। चिकित्सकों और पर्यावरणविदों का कहना है कि 90% पक्षी कीटभक्षी और 10% बीजभक्षी होते हैं, जिसमें कबूतर भी शामिल हैं। अनाज, ज्वार और बाजरा किसी भी पक्षी का नैतिक भोजन नहीं है। इंसानी हस्तक्षेप से पक्षियों की खाद्य श्रृंखला में बाधा आ रही है। वर्तमान में कबूतरों ने अपना मुख्य भोजन बीज खाना भूलकर आर्टिफिशियल फूड पर निर्भरता बढ़ा ली है।

नियमित भोजन मिलने से उनकी संख्या में तेजी से वृद्धि हुई है। कबूतरों की फड़फड़ाहट और बीट से गंभीर बीमारियों जैसे हाइपर सेंसिटिविटी न्यूमोनाइटिस, फंग्ल इंफेक्शन हिस्टोप्लासमोसिस और क्रिप्टोकोकोसिस का खतरा बढ़ गया है। प्रशासन को आस्था और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के बीच संतुलन बनाने का प्रयास करना चाहिए। कबूतरों को दाना डालना अब लोगों की दिनचर्या का हिस्सा बन गया है। छतों से लेकर सार्वजनिक स्थानों तक कबूतरों का जमावड़ा हो गया है। कोटा बैराज और किशोर सागर तालाब के किनारे कबूतरों की बड़ी संख्या देखी जा सकती है। लोगों के गुजरने के दौरान कबूतरों की फड़फड़ाहट से निकलने वाले बैक्टीरिया और सूखी बीट के वायरस हवा के माध्यम से शरीर में पहुंचकर फेफड़ों को नुकसान पहुंचा रहे हैं।

विशेषज्ञों का कहना है कि आर्टिफिशियल फीडिंग को बंद करना चाहिए और इको सिस्टम से छेड़छाड़ नहीं करनी चाहिए। प्रशासन को बच्चों को जागरूक करने के लिए स्कूलों में अभियान चलाना चाहिए। फेफड़ों के संक्रमण से पीड़ित मरीजों में उन लोगों की संख्या अधिक है जो नियमित रूप से छतों पर कबूतरों को दाना डालते हैं। प्रशासन को खुली जगहों पर पक्षियों के लिए चुग्गा विकसित करना चाहिए ताकि उनकी संख्या कॉलोनियों से कम हो सके। कबूतरों की बीट से गंभीर बीमारियों का खतरा बढ़ रहा है। डॉक्टरों का कहना है कि घर के आंगन, बालकनी या छत पर दाना डालने से बचना चाहिए। प्रशासन को दूर कहीं खुले में दाना डालने की व्यवस्था करनी चाहिए।

लेकिन यहां भी लोगों को दाना डालते समय मास्क और दस्ताने का उपयोग करना चाहिए। किसी भी धर्म में यह नहीं कहा गया है कि कबूतरों को दाना डालना चाहिए। प्रकृति ने उन्हें स्वयं भोजन जुटाने के लिए सक्षम बनाया है। आस्था के नाम पर पक्षियों को गुलाम बनाना गलत है। कबूतरों की संख्या तेजी से बढ़ने से अन्य पक्षियों की प्रजातियाँ जैसे गौरेया, बुलबुल और नीलकंठ शहरों से लुप्त हो गई हैं। प्रशासनिक अधिकारियों का कहना है कि आबादी से दूर चुग्गा स्थल बनाया जा सकता है, लेकिन निगम के पास जमीन की कमी है। सामाजिक परिवर्तन के लिए लोगों को जागरूक होना पड़ेगा।

कबूतर प्रेमी भी यह मानते हैं कि कबूतरों को दाना डालना पुण्य है और उन्हें इससे सुकून मिलता है।

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