राजस्थान के छत्तीस राजकुल (36 राजकुल)

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इन लोगों ने गारह नदी के दक्खिन ओर के सभी प्रदेशों पर अधिकार कर लिया। लेकिन बाद में राठौड़ लोगों ने पहुँचकर उनके प्रभाव को कम कर दिया। यदुवंश से जाड़ेजा नाम की एक और प्रसिद्ध शाखा चली जो भट्टी शाखा के समान ही पराक्रमी निकली। इन दोनों शाखाओं के सम्बन्ध में लगभग एक-सा ही वृत्तान्त पाया जाता है। जाड़ेजा भी श्रीकृष्ण के वंशधर माने जाते हैं। इसी कारण वे लोग अपने आपको श्यामपुत्र अथवा सामपुत्र कहते थे। इस जाति के राजाओं की उपाधि ‘सम्भा’ थी।

श्यामपुत्रों के बारे में अनेक प्रकार की बातें लिखी हुई मिलती हैं। उनमें से एक यह है कि बहुत समय बाद श्यामवंशियों ने यह स्वीकार किया कि हम लोग शाम अथवा सीरिया से आये हैं और ईरान के जमशेदवंशी हैं। इसी आधार पर शाम के स्थान पर जाम हो गया और इसी नाम पर जाम राज्य की भी प्रतिष्ठा हुई।
यदुवंश की आठ शाखायें हैं- (1) करौली के यदु, (2) जैसलमेर के भाटी, (3) कच्छ भुज के जाड़ेजा, (4) सिन्ध के समैचा मुसलमान, (5) मुडैचा, (6) बिदभन, (7) बद्दा, और (8) सोहा । अन्तिम तीन शाखाओं का कोई विवरण नहीं मिलता।

3. तोअंर ( तोमर) वंश – (राजस्थान के छत्तीस राजकुल) – तोअर वंश यद्यपि यदुवंश की ही एक शाखा थी, फिर भी उसे छत्तीस वंशों में स्थान दिया गया है। युधिष्ठिर की राजधानी इन्द्रप्रस्थ आठवीं सदी तक वीरान रही परन्तु बाद में 742 ई. के आसपास अनंगपाल तोअंर ने उसको फिर से बसाया। अब वह दिल्ली के नाम से विख्यात हुई। अनंगपाल के बाद उसके बीस वंशजों ने शासन किया। अन्तिम वंशज का नाम भी अनंगपाल था। पुत्रहीन होने के कारण अनंगपाल ने 1164 ई. में अपनी पुत्री के पुत्र पृथ्वीराज को अपने राज्य का उत्तराधिकारी बनाया, तोअंर वंश में जो विशाल राज्य थे उनमें से केवल साधारण नगर उनके गौरव के पिछले स्मृति चिह्न की भाँति बसे हुए हैं। उनमें से एक तुआरगढ़ चम्बल के दक्षिण किनारे पर बसा हुआ है।

4. राठौड़ – (राजस्थान के छत्तीस राजकुल) – राजपूतों में विख्यात राठौड़ वंश की उत्पत्ति के सम्बन्ध में विभिन्न उल्लेख मिलते हैं। स्वयं राठौड़ लोग अपनी उत्पत्ति श्रीराम के पुत्र कुश से बतलाते हैं अर्थात् वे अपने-आपको सूर्यवंशी मानते हैं। परन्तु भाट लोगों के अनुसार महर्षि कश्यप के वंश में उत्पन्न हुए किसी राजा और किसी दैत्यकुमारी के समागम से उनकी उत्पत्ति हुई। परन्तु अधिकांश विद्वानों को यह मत स्वीकार्य नहीं है।

गार्धीपुर अर्थात् कन्नौज राठौड़ों का आदिस्थान माना जाता है और पाँचवीं सदी में इस क्षेत्र पर उनका शासन था। जब तातारियों ने भारत पर आक्रमण कर यहाँ अपना राज्य स्थापित किया, उससे कुछ समय पूर्व उन लोगों ने दिल्ली के अन्तिम तोमर राजा और बाद में चौहान शासकों के साथ युद्ध किया था। राठौड़ों और चौहानों के आपसी विग्रह के कारण दिल्ली का चौहान राजा मारा गया और उसकी पराजय से उत्तर-पश्चिम की सीमा के सुरक्षा द्वार के खुल जाने से कन्नौज का पतन हो गया।

कन्नौज के उस सर्वनाश में जब उसके अन्तिम राजा जयचन्द ने गंगा के किनारे मृत्यु का वरण किया तब उसके पुत्र ने मारवाड़ की मरुभूमि में जाकर अपनी जान बचायी। जयचन्द इस पुत्र का नाम सियाजी था। उसने मारवाड़ में राठौड़ वंश की नींव रखी। में राठौड़ों की चौबीस शाखायें हैं-धांघला, मंडेल, चकित, धूहड़िया, खोखरा, बद्रा, छाजौड़ा, रामदेवा, कबरिया, हटदिया, मालावत, सूण्डू, कटेचा, मुहोली, गोगादेबा, महेचा, जयसिंहा मुरसिया, चौबसिंहा, जोरा आदि। .

5. कुशवाहा अर्थात् कच्छवाहा (राजस्थान के छत्तीस राजकुल) – श्रीराम के पुत्र कुश के वंशज कुशवाहा कहलाये। इस वंश को कुशवंशी भी कहते हैं जैसे कि मेवाड़ के राजपूत लववंशी माने जाते हैं। इस वंश का आदिस्थान कौशल माना जाता है। वहाँ से इस वंश की दो शाखायें निकलीं। इनमें से एक शाखाकुल ने पंचनद देश में जाकर प्रसिद्ध लाहौर नगर की स्थापना की। दूसरी शाखा ने बहुत आगे न जाकर सोन नदी के किनारे रोहतास की स्थापना की।

लाहौर में बसे कुशवाहों की एक शाखा ने सुप्रसिद्ध नरवर नगर की स्थापना की। यह नगर विख्यात राजा नल की लीलाभूमि रही और उसके वंशज तातारों तथा मुगलों के समय में भी इस क्षेत्र पर शासन करते रहे। दसवीं सदी में नरवर से चलकर कुशवाहों की एक शाखा ने राजस्थान में प्रवेश किया और मीना तथा बड़गूजर जाति के राजपूतों से राजौर और उसके आस-पास के इलाकों को लेकर आम्बेर (आमेर) राज्य की स्थापना की बारहवीं सदी के अन्त में भी कुशवाह वंश के लोग दिल्ली राज्य के सामन्तों में थे।

राजस्थान के दूसरे वंशों का जब पतन आरम्भ हुआ, उस समय से कुशवाहा वंश की उन्नति आरम्भ हुई। कुशवाहा वंश भी अनेक शाखाओं में विभाजित है। वर्तमान में यह बारह भागों में विभाजित है और ये भाग कोठरियों के नाम से प्रसिद्ध हैं, जिनका वर्णन आगे किया जायेगा।

6. अग्नि कुल (राजस्थान के छत्तीस राजकुल) – राजपूतों के चार वंश ऐसे हैं जिनकी उत्पत्ति अग्नि से बतायी जाती है। ये हैं – (i) परमार, (ii) परिहार (पड़िहार), (iii) चालुक्य अथवा सोलंकी और (iv) चौहान। इन चारों वंशों को अग्निवंशी कहा जाता है। अग्निवंशी राजपूतों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में अनेक प्रकार के वृत्तान्त मिलते हैं। उन सभी का ऐतिहासिक सत्य इतना ही है कि देश में जिस समय ब्राह्मणों के द्वारा अगणित देवी-देवताओं की पूजा का प्रचार बढ़ रहा था, बौद्ध धर्म ने उसका घोर विरोध किया।

उस समय ब्राह्मणों ने बौद्धधर्मी लोगों का विरोध करने का निर्णय किया और इसके लिए आबू पर्वत की चोटी पर अग्नि कुण्ड बनाकर जिनको संस्कार करके बौद्ध धर्म के विरुद्ध युद्ध करने के लिए तैयार किया, उन राजपूतों की उत्पत्ति अग्नि से मानी गयी और उसी समय से वे और उनके वंशज अग्निवंशी कहलाये।

ब्राह्मणों के तपोबल द्वारा अग्नि के मध्य से जो वीरकुल उत्पन्न हुआ था, वह अनेक वर्षों तक अपने प्रताप और धर्मानुराग को अटल रख सका था। परन्तु मुसलमानों के आक्रमण के समय तक अग्निकुल के अधिकांश लोग ब्राह्मण धर्म को छोड़कर जैन या बौद्ध धर्मावलम्बी हो गये थे।

7. परमार (पंवार) – (राजस्थान के छत्तीस राजकुल) – अग्निकुल में उत्पन्न परमार वंश, यद्यपि सोलंकी और चौहान कुल के समान सम्पत्तिवान् और पराक्रमी नहीं हो पाया, तथापि उन लोगों ने ही सबसे पहले राज्योपाधि धारण की थी। इस वंश से पैंतीस शाखाओं की उत्पत्ति हुई और बहुत बड़े विस्तार में उन लोगों ने राज्य किया। उनके विस्तार के कारण ही अब तक लोग कहा करते हैं कि

पृथ्वी परमारों की है। परमारों के द्वारा जो राज्य जीते गये अथवा बसाये गये उनमें माहेश्वर, धार, माण्डू, उज्जैन, चन्द्रभागा, चित्तौड़, आबू, चन्द्रावती, मऊमैदाना, परमावती, उमरकोट, बेरवर, लौद्रवा और पट्टन अधिक विख्यात हैं।

कहा जाता है कि हय अथवा हैहयवंश के राजाओं की प्राचीन राजधानी माहेश्वर (माहिष्मती) परमार राजपूतों की पहली राजधानी थी। इसके बाद परमारों ने विन्ध्य के शिखर पर धारा और माण्डू नामक दो नगरों की स्थापना की। बहुत से लोगों के अनुसार विख्यात उज्जैन नगरी को भी इन्होंने ही बसाया था। परमार राजपूतों के राज्य की सीमा नर्मदा तक ही सीमित न थी।

भट्ट ग्रन्थों में पाया जाता है कि राम नामक एक प्रसिद्ध राजा इस वंश में उत्पन्न हुआ जिसने तैलंग देश में एक स्वतन्त्र राज्य की स्थापना की। चौहान राजाओं का भाट चन्द उसे भारत के सम्राट होने की पदवी देता था। लेकिन राम के उत्तराधिकारी अपने अधिकारों की रक्षा न कर पाये और उनके सामन्तों ने अपने स्वतन्त्र राज्यों की स्थापना कर ली। उनका चित्तौड़ का राज्य गुहिलोत राजपूतों ने छीन लिया। गुहिलोतों के उदय होने के बाद उनका गौरव लोप हो गया।

परमार राजपूतों में राजा भोज का नाम बहुत प्रसिद्ध है। भारत में भोज नाम के कई राजा हुए हैं। लेकिन परमारों में इस नाम का एक ही राजा हुआ है जिसने बहुत ख्याति प्राप्त की थी। सिकन्दर का समकालीन चन्द्रगुप्त मौर्य था। पुराणों में उसे तक्षकवंशी कहा गया है। परमारों की अनेक शाखाओं में एक मुख्य शाखा है-मोरी वंश इस वंश को तुष्टा अथवा तक्षक भी लिखा गया है।

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kheem singh Bhati is a author of niharika times web portal, join me on facebook - https://www.facebook.com/ksbmr
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