नई दिल्ली। बिहार की राजनीति में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव दो प्रमुख व्यक्तित्व हैं, जिन्होंने दशकों तक राज्य और देश की राजनीति को प्रभावित किया है। लोकनायक जयप्रकाश नारायण के शिष्यों ने एक विचारधारा की राजनीति की शुरुआत की, लेकिन अब वे दो अलग-अलग ध्रुव बन चुके हैं। नीतीश कुमार ने बिहार में सुशासन का प्रतीक बनने के साथ-साथ एक समय में उन्हें भविष्य के प्रधानमंत्री के रूप में देखा गया।
वहीं, लालू प्रसाद यादव ने सामाजिक न्याय की लड़ाई में पिछड़ों और वंचितों को सशक्त किया, जिससे यह विचारधारा आज सभी राजनीतिक दलों में प्रमुख बन गई है। 2025 के विधानसभा चुनावों के परिणाम 14 नवंबर को आएंगे, जो न केवल सत्ता का फैसला करेंगे, बल्कि दोनों नेताओं की विरासत का भी निर्धारण करेंगे। नीतीश के समर्थकों का कहना है कि उन्होंने 2005 में बिहार को लालू-राबड़ी के जंगलराज से बाहर निकालकर विकास की दिशा में अग्रसर किया।
2023 की जाति जनगणना और 75% आरक्षण नीति ने सामाजिक न्याय को नया आयाम दिया, लेकिन बार-बार गठबंधन बदलने से उनकी छवि को नुकसान पहुंचा है। उनकी स्वास्थ्य समस्याओं को विपक्ष ने मुद्दा बनाया है। जेडीयू के लिए यह एक चुनौतीपूर्ण समय है। नीतीश ने अपने बेटे निशांत कुमार को राजनीति से दूर रखा है। यदि निशांत राजनीति में आते हैं, तो उन्हें नीतीश के पुत्र होने के नाते कुछ समर्थन मिल सकता है, जैसे तेजस्वी को लालू के नाम पर मिलता है।
लेकिन अगर निशांत सक्रिय नहीं होते हैं, तो गैर यादव ओबीसी और ईबीसी जातियों का झुकाव बीजेपी की ओर हो सकता है। नीतीश ने स्पष्ट किया है कि वह 2025 में खुद को सीएम चेहरे के रूप में पेश करेंगे, लेकिन उनकी उम्र और स्वास्थ्य उनके उत्तराधिकार पर सवाल उठाते हैं। जेडीयू में अन्य चेहरे भी हैं, लेकिन उनकी स्वीकार्यता सीमित है। यदि एनडीए 130-160 सीटें जीतता है, जैसा कि कई पोल्स में दिखाया गया है, तो नीतीश की सुशासन विरासत कुछ समय तक बनी रह सकती है।
लेकिन अगर जेडीयू 40 से कम सीटें जीतती है, तो बीजेपी हावी हो सकती है। बीजेपी, जो ऊपरी जातियों और पासवानों पर निर्भर है, नीतीश की विरासत को हिंदुत्व और विकास के साथ जोड़ सकती है। नीतीश का करिश्मा और ईबीसी गठजोड़ उनके बिना टिकना मुश्किल है, क्योंकि जेडीयू में दूसरी पंक्ति का नेतृत्व कमजोर है। नीतीश ने अपने पीछे किसी नेतृत्व को पनपने नहीं दिया। लालू प्रसाद यादव ने मंडल आंदोलन के जरिए बिहार में सामाजिक न्याय की नींव रखी, जिसने पिछड़ों, दलितों और मुस्लिमों को सशक्त किया। उनका मुस्लिम-यादव गठजोड़ आरजेडी का आधार है।
लालू ने पंचायतों में ओबीसी आरक्षण और सामाजिक सशक्तिकरण को बढ़ावा दिया। हालांकि, चारा घोटाला और खराब प्रशासन ने उनकी छवि को नुकसान पहुंचाया। जेल और स्वास्थ्य समस्याओं के बावजूद, लालू की रणनीति ने 2020 में आरजेडी को 75 सीटें और 23% वोट शेयर दिलाया। उनकी विरासत सामाजिक न्याय, ओबीसी-दलित-मुस्लिम सशक्तिकरण और करिश्माई नेतृत्व है। तेजस्वी यादव, जो लालू की विरासत के स्पष्ट उत्तराधिकारी हैं, ने जनवरी 2025 में राष्ट्रीय कार्यकारिणी से लालू के बराबर शक्तियां प्राप्त कीं। तेजस्वी ने यादव, मुस्लिम और कुछ गैर-यादव ओबीसी-दलितों को जोड़ने के लिए एमवाई फार्मूला अपनाया है।
उनके 10 लाख नौकरियों का वादा और नीतीश के खिलाफ युवा अपील ने उन्हें 41% लोगों के लिए सीएम पद की पसंद बना दिया है। तेजस्वी की ताकत उनकी युवा अपील और लालू की विरासत को राष्ट्रीय स्तर पर ले जाने की महत्वाकांक्षा है, लेकिन वह लालू के करिश्मे को पूरी तरह से दोहरा नहीं पाए हैं। यदि तेजस्वी इस बार हारते हैं, तो लालू की विरासत खत्म हो सकती है। तेजस्वी की उम्र अभी कम है और उनके पास राजनीति के लिए समय है, लेकिन बिहार की राजनीति कठिन होती जा रही है।
यदि इस बार तेजस्वी मुख्यमंत्री नहीं बनते हैं, तो अगली बार जनसुराज और बड़ी पार्टी के रूप में चुनाव में मौजूद रहेंगे। दूसरी ओर, कांग्रेस अपने पारंपरिक वोटर्स को बनाए रखने के लिए तैयार है। यह स्पष्ट है कि तेजस्वी के लिए यह एक महत्वपूर्ण क्षण है। नेतृत्व में कमजोरी होने पर पहले परिवार में विघटन होता है और फिर पार्टी में। तेज प्रताप यादव और रोहिणी आचार्य ने तेजस्वी के खिलाफ आवाज उठाई है। मीसा भारती भी शायद नाखुश लोगों में शामिल हैं।
