दुर्गों से सम्बन्धित सैन्य यन्त्र। सतत युद्ध और संघर्षों के काल में दुर्गों का अत्यधिक महत्त्व था। राज्यलक्ष्मी का उत्थान और पतन, जय पराजय सभी कुछ दुर्गों के अस्तित्व के साथ जुड़ा था । दुर्ग मध्यकालीन क्षत्रिय नरेशों की स्वतन्त्रता और स्वाभिमान के साक्षात प्रतिरूप थे। उनके साथ नारी के शील और सम्मान की रक्षा भी जुड़ी थी। दुर्ग की रक्षा जीवन मरण का प्रश्न था क्योंकि दुर्ग का पतन राज्य के नाश का ही पर्याय था। मध्यकाल में प्राय: प्रत्येक दुर्ग पर भीषण एवं दुर्धर्ष युद्ध लड़े गये जिनमें हाथी, घोड़ों सहित विभिन्न प्रकार के सैन्य यन्त्रों और आयुधों की प्रभावशाली भूमिका होती थी ।
कान्हड़देप्रबन्ध, हम्मीरायण, अचलदास खींची री वचनिका, लावारासा सहित अधिकांश ऐतिहासिक काव्यों में विभिन्न सैन्य यन्त्रों का उल्लेख हुआ है । उदाहरणत: कान्हड़देप्रबन्ध में जालौर दुर्ग में विद्यमान ढेकुली, मगरबी-यंत्र, अग्निबाण इत्यादि द्वारा शत्रु सेना पर कहर ढाने का उल्लेख हुआ है। यथा –
ऊपरि थकी ढीकुली ढालइ, लोढीगडा विछूट।
हाथी घोडळ आडइ आवइ, तेहि मरइ अणष्टइ ।।
आगि वर्ण ऊंडता आवई नालइ नाघ्या गोला।
भूका करइ भीति भांजीनइ, तणषा काडइ डोला ।।
यंत्र सगरबी गोला नषइ, दू सांधि सूत्रहार।
जिहां पडइ तिहां तरूअर भांजइ, पडतउ करइ संहार ।।
डॉ० दशरथ शर्मा जालौर के किले में विद्यमान सैन्य यन्त्रों का उल्लेख करते हुए लिखते हैं – Of Military machines, the chief mentioned are-maghribi, dhenkuli and jhujha – bana.
हम्मीर महाकाव्य, हम्मीरायण तथा अन्य ग्रन्थों में अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण के समय रणथम्भौर की सुरक्षा व्यवस्था का वर्णन करते हुए वहाँ विद्यमान युद्धोपकरणों में परम्परागत अस्त्र शस्त्रों के अलावा अग्निबाणों (प्रक्षेपास्त्र) यन्त्र नालि, ढेकुली, भैरव यन्त्र, मरकटी यन्त्र आदि का उल्लेख हुआ है। इनमें से अन्तिम उल्लेखित यंत्रों द्वारा शत्रु पर पत्थरों की बौछार की जाती थी।
इसी तरह अरोदा, गरगच मंजनीक नामक यन्त्र भी उस युग के पत्थर फेंकने के प्रभावशाली उपकरण थे। अचलदास खींची री वचनिका में गागरोण के दुर्ग में विद्यमान उपकरणों का उल्लेख करते हुए मुदफर को चतुर्दिक मार करने वाला यंत्र बताया गया है। उसमें विभिन्न किस्म के पारवर सज्जित अश्वों, खेड़ा (शस्त्र विशेष; संभवतः खांडा) तीर कमान इत्यादि के भी उल्लेख हैं।
मुस्लिम इतिहास लेखकों प्रमुखत: अबुल फजल ने किलों पर आक्रमण करने के लिए पाशीब और साबात बनाने का उल्लेख किया है । डॉ० के० एस० लाल के अनुसार पाशीब किले की प्राचीर पर हमला करने के लिए रेत और अन्य वस्तुओं से निर्मित एक ऊँचा चबूतरा होता था।
दुर्गों से सम्बन्धित सैन्य यन्त्र
साबात को कविराजा श्यामलदास ने वीर विनोद में ‘पेचदार छत्ता’ कहकर अभिहित किया है जबकि इतिहासकार ओझा जी’ ने फारसी लेखकों का सन्दर्भ देते हुए लिखा है कि साबात गाय भैंस के मोटे चमड़े की छावन से ढ़का हुआ एक चौड़ा रास्ता होता है जिसमें किलेवालों की मार से सुरक्षित बचकर आक्रान्ता किले के बहुत नजदीक तक पहुँच जाते हैं । अकबर ने 1567 ई० में चित्तौड़ पर आक्रमण के समय ऐसे दो साबात बनवाये थे जिन्होंने उसकी सफलता में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी।
किलों से सम्बन्धित सैन्य यन्त्रों में तोपों का अत्यधिक महत्त्व था । संस्कृत में तोप को शतघ्नी (शत = सौ घ्नी = नष्ट करने वाली) कहा गया है।
राजस्थान में छोटी बड़ी तोपों के उनको ले जाने वाले विविध वाहनों के अनुसार विभिन्न नाम हैं जैसे- गजनाल, शुतुरनाल (जुजरबा), नरनाल आदि ।
इनमें गजनाल व नरनाल का आईने-अकबरी में भी उल्लेख हुआ है । रैकलो या रहकला ये तोपें बैलों अथवा घोड़ों द्वारा खींची जाती हैं। अबुल फजल लिखता है कि बड़ी तोपों को खींचने हेतु कई हाथियों और हजारों बैलों की जरूरत होती थी ।
समय के प्रवाह के साथ आधुनिक युग में ये यन्त्र और उपकरण युद्ध में उपयोगिता न रहने के कारण महत्त्वहीन हो गये हैं परन्तु वीरता और शौर्य के साक्षी दुर्गों की दास्तान इनके बिना अधूरी है।
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