जयपुर। गुलाबी नगरी की सुंदरता उसके मंदिरों, किलों और बावड़ियों में निहित है, जिनका अपना एक अद्वितीय इतिहास है। विध्न विनाशक भगवान गणेश के शहर में कई मंदिर हैं, जिनकी अपनी महिमा और ऐतिहासिकता है। कुछ गणेश मंदिर ऐसे भी हैं, जो रियासतकालीन हैं और अपने भीतर कई कहानियाँ और दृष्टांत छिपाए हुए हैं। जयपुर के राजा सवाई माधोसिंह (प्रथम) भगवान गणेश के बड़े उपासक थे और उन्होंने अपने ससुराल मावली (मेवाड़) की यात्रा के दौरान जयपुर में भगवान गणेश का मंदिर बनाने की इच्छा व्यक्त की।
मेवाड़ के राजा ने भगवान गणेश की मूर्ति को एक बैलगाड़ी से जयपुर लाने का आदेश दिया। मान्यता है कि इस मूर्ति को गुजरात से लाकर पहले उदयपुर के मावली में रखा गया, फिर बाद में जयपुर लाया गया। जयपुर पहुँचते ही बैलगाड़ी मोतीडूंगरी पहाड़ी की तलहटी में रुक गई, और सभी प्रयासों के बावजूद इसे हिलाया नहीं जा सका। उसी स्थान को भगवान की इच्छा मानकर मंदिर का निर्माण किया गया। मंदिर का निर्माण 1761 ईस्वी में सेठ जयराम पालीवाल और महंत शिव नारायण शर्मा की देखरेख में हुआ।
माना जाता है कि मंदिर की मूर्ति उस समय से 500 वर्ष से अधिक पुरानी थी। वर्तमान में इसे लगभग 750 वर्ष या उससे भी अधिक पुराना माना जाता है। मंदिर का निर्माण राजस्थानी पत्थर और संगमरमर से किया गया था और इसे चार महीनों में पूरा किया गया। इसमें नागरा शैली के साथ तीन गुंबद हैं, जो देश के तीन प्रमुख धर्मों का प्रतीक माने जाते हैं। मंदिर के पास एक किला भी है, जिसमें शिवलिंग स्थापित हैं, जो केवल महाशिवरात्रि के दिन दर्शन के लिए खुलता है।
भक्तों का विश्वास है कि नए वाहन खरीदने के बाद उनकी पूजा यहाँ करवाने से दुर्घटनाओं से बचा जा सकता है। मंदिर के महंत कैलाश शर्मा ने बताया कि 26 अगस्त को सिंजारे के दिन 15 हजार माणक, मोती और पन्ने से जड़ा हुआ स्वर्णमंड़ित मुकुट धारण करवाया गया। इस मुकुट को बनाने में लगभग 28 साल लगे हैं। शर्मा ने बताया कि मुकुट में दस किलो चांदी पर सोने का पानी चढ़ाया गया है, और इसमें जगह-जगह फूल-पत्तियों का बारीक काम किया गया है।

