पाबूजी – राजस्थान के लोक देवता (1)

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पाबूजी – वीरवर गो भक्त पाबू राठौड़ का जन्म मारवाड़ के राठौड़ राजवंश से संबंधित है। राठौड़ राजा आसथान के आठ पुत्रों में दूसरे पुत्र धाँधल नामक थे। इन धांधल के दो पुत्र बूढ़ा और पाबू हुवे। इस परिवार का शासन कोलू (वर्तमान फलौदी तहसील) पर था जिसे चौहानों को हराकर धांधल ने जीता था।

पाबूजी का जन्म कोलू में सम्वत 1356 विक्रमी में हुआ माना जाता है। पाबू का लालन-पालन, अपने बड़े पाटवी भाई बूढा की तुलना में कुछ घटकर ही हुआ था। पाबू की सेवा में अथवा सहायता में कम नौकर ही रहे होंगे। इस परिस्थिति के कारण पाबू स्वयं मेहनत करने वाले और स्वावलम्बी बन गए। इस तरह उनके बचपन के जीवन ने उनके भावो जीवन की आधार शिला रखी।

पाबूजी को माता के संबंध में एक चमत्कार कथा है कि धांधल एक बार पाटण के सरोवर के किनारे डेरा डाले हुए थे। तब वहां पर स्नान करती एक अप्सरा को रोककर उसको अपनी रानी बना लिया। रानी बनने के पूर्व अप्सरा ने वचन ले लिया था कि धाँधल कभी उसे छिपकर देखने का प्रयत्न नहीं करेंगे। अप्सरा धाँधल के रनिवास में रहने लगी और उसके गर्भ से एक पुत्र लिया।

पाबूजी – राजस्थान के लोक देवता (1)

बांधल ने एक दिन अपने वचन को तोड़कर छिपकर अप्सरा और अपने पुत्र को देखना चाहा। धांधल ने जब महल में झांका तो उन्होंने देखा कि अप्सरा सिंहनी के रूप में बैठी अपने पुत्र को (जो भी सिंह रूप में था) दूध पिला रही है। धांधल को ग्राश्चर्य हुआ परन्तु अप्सरा का भेद खुल गया। श्रप्सरा लौटकर स्वर्ग चली गई। अप्सरा का पुत्र पाबू था जो पिता के पास बड़ा होकर पलने लगा। कथाओं में यह भी मान्यता है कि यह अप्सरा अपवे पुत्र पाबूजी की सहायता और रक्षा करने हेतु कालमी घोड़ी के रूप में अवतारित हुई ।

इस दिव्य काली घोड़ी को कालमी, भंवरी, केसर कालमी आदि नामों से गीतों में सम्बोधित किया गया है। यह घोड़ी जायल गांव (वर्तमान जिला नागौर) के वासी देवली चारणीं की थी। इस घोड़ी का जन्म भी विचित्र रूप से हुआ कहा जाता है। इस घोड़ी की माता का संबंध। समुद्र में रहने वाले एक दरियाई घोड़े से था और फिर यह बछेरी जनमी थी।

पुराणों में कथा है कि इन्द्र का घोड़ा (उच्चश्रेवा) समुद्र उत्पन्न हुआ था। इस परम्परा के आधार पर इस कालमी घोड़ो का जन्म भी दिव्य बताया गया है। कहने का तात्पर्य यह है कि पाबूजी और उनकी घोड़ी, दोनों जन्म से अलौकिक हैं। पाबूजी की अवस्था के संबंध में इतना ही ज्ञात होता है कि वह अकेले साँड पर चढ़कर शिकार को जाते थे और सफलता से शिकार कर लाते थे।

इसी दिशा में उन्हें सात भाईयों का साथ मिला जो जाति के थोरी थे । इन सात भाईयों के नाम चांदिया, देवीया, खमिया, खामू आदि थे। यह सातों भाई अपने परिवार सहित पाबूजी की शरण में आकर बस गए थे । यह पहिले बाघेला ठाकुर के पास नौकर थे । वहां से कुछ अपराध और कुछ झगड़ा कर शरण खोजते, पाबूजी के पास निडर होकर बस गए ।

ईन सात थोरो भाईयों की पाबजी ने बिना जाति भेदभाव पाबूजी के लिए. के अपना रखा था और यह सात भाई भौ हर समय अपनी जान हथेली पर ‘लिए रहते थे । इनकी सहायता और बल के आधार पर पाबू अनेक साहस और वीरता के काम कर सका पाबू ने जीवन भर इनका साथ निभाया ।

पाबूजी – राजस्थान के लोक देवता (1)

पाबूजी के बड़े भाई बड़ा ने अपनी पुत्री केलणंदे का विवाह प्रसिद्ध वोरं सोगाजी चौहान के साथ किया था । पाब ने अपनी भतीजो को सांडे दहेज में देने का संकल्प’ किया। पाबू ने कहा कि सिंध के दुष्ट राजा भूदा सूमरा का वरग (समूह-टोला) लाकर दूंगा । तूदा सूमरा बहुत दुष्ट और अत्याचारी, शासक था । वह रावण कहलाता था और उसका स्थाक लंकस्थली के नाम से जाना जाता था ।

पाबू ने अपने साथी हरिये को यह संकल्प पूरा करने वास्पे परामेश किया। पाबूजी अपने सभी साथियों सहित सहित र्साढों को लेने हेतु चला। पाबूजी दल को मार्ग में मिर्जा खान का राज मिला । वह पाबू को वीरता से परिचिज था। उसने कुछ भी विरोध नहीं किया उलटा उसने पाव को भेट आदि भेज कर पूरा सम्मान किया ।

पाबू दल ने सिन्ध नदी पारकर सूमरा के राज्य के जंगल में चरते साँड़ों के समूह को घेरकर हांकना प्रारम्भ किया । पाबूजी ने साँडे ले जाने की सूचना दूदा सूमरा को भेज दी। दूदा सूमरा ने तैयारी करके पाबू दल का पीछा किया । मार्ग में मिर्जा खान का राज्य प्राया और उससे सूमरा ने सहायता मांगी।

मिर्जा खान ने बहुत समझदारी से सूमरा को पीछे लौटा दिया कि पाबू तुम्हारी दुष्टता का दण्ड देने आया था और बहुत बलवान है, तुम उससे न लड़ो तो अच्छा होगा । दूदा सूमरा सारी स्थिति को समझ गया और चुपचाप लौट गया।

सिंध के रास्ते लौटते हुए जब अमरकोट, में होकर पाबू निकल रहे थे तो वहाँ की राजकुमारी फुलमदे उन पर मोहित हो गई। उसके पिता सोढा राणा ने पाबू को विवाह का प्रस्ताव भेजा। पाबू ने कहा कि मेरा सारा जीवन वचन पालन हेतु कटिबद्ध है और न मालूम कब मेरे प्राणों का बलिदान हो जावे । यह उत्तर सुनकर राजकुमारी फूलमदेह और अधिक आकर्षित हुई ।

राज कुमारी का यह सोचना था कि कायर पति के संग सारा जीवन बिताने से वीर पुरुष की एक घड़ी भर को पत्नी बनना अधिक सुखदायक है । तब पाबू और सोढा राजकुमारी की सगाई हो गई। पाबूजी ने लंकस्थली से सांडों को लाकर अपनी भतीजी को भेंट की। भतीजी केलणदे और उसके पति गोगाजी चौहान ने पाबूजी के वचन पालन की बहुत प्रशंसा की ।

पाबूजी की एक बहिन सोनबाई थी जिसका विवाह सिरोही के राच से हुआ था । सोनबाई की सौत बाघेलो थी जो अपने पीहर से बहुत गहने लाई थी। सोनबाई को पीहर का अहंकार बना रहता था। एक दिन चौपड़ खेलते सोनबाई को सौत बाघेलो ने ताना मारा कि तुम्हारा भाई पाबू तो थोरी लोगों के साथ उठता बैठता है और अपने बराबरी के आसून पर बिठाता है।

थोरी, बावरी.. आदि हल्की जाति के होते हैं। सौत बाघेली का यह ताना सोनाबाई ने सुना और जवाब दिया कि मेरे भाई के थोरी साथी तो भाईयों से बढ़कर स्नेह निभाते हैं पर तुम्हारे पीहर के उमराव लोगों से अधिक वीर और स्वामीभक्त हैं। इतना सुनकर बाघेली कुपित हुई और राव ने भी उसका पक्ष लिया।

राव ने सोन बाई को चाबुक को मार दी। सोनबाई ने उस समय तो सहलिया और तत्काल अपने भाई पाबू के पास सारो घटना संदेशवाहक के साथ भेज दी । पाबू को जब राव के अत्याचार और जाति के अहंकार का पता चला तो पाबू ने शिक्षा देने के लिए अपने थोरी मित्रों से परामर्श किया । थोरियों की शत्रुता तो बाघेला सरदार आना से पहले से ही थी और वे आना का प्रदेश छोड़कर पाब की शरण में आए थे।

अब पाबू और थोरी मंडली ने सजधज कर बाघेला का वध किया मोर सारे गहने और धन माल लूट कर एकत्रित किया । आना के सारे उमराव या तो मारे गए या भाग गए। आना का पुत्र असहाय हो शरण में आया । पाबू ने पुत्र को उसके पिता के स्थान पर बिठाकर टीका किया। पाबू अपने थोरी साथियों और धन माल के साथ सिरोही अपनी बहिन सोनबाई के ससुराल पहुंचा ।

सिरोही राव पहिले तो पाबू दल को देख कर भयभीत हुआ पर पाबू के समझाने पर वह शान्त हुआ । पाबू ने कहा कि वे लोग सिरोही में मेहमान बनकर नहीं आए हैं । केवल एक ताने का उत्तर देने आये है । रानी बाघेलो के सामने पाबू ने अपने थोरी भाईयों की प्रशंसा की और बाघेला के उमरावों की कायरता प्रकट की ।

इस पर बाघेली से वाद विवाद बढ़ गया। तब पाबूजी ने सारा रहस्य प्रकट किया कि उमराव समाप्त हो गए हैं, बाघेला का वध हो गया है, उसके पुत्र को शरण में ले राज्य सौंप दिया है और बाघेला का सारा धन-गहना लूट कर ले आए हैं । इस करारे जवाब को सुनकर बाघेलो जड़वत हो गई । सिरोही के देवड़ा राव ने भी क्षमा चाही । पाबू ने इस तरह अपने थोरी भाईयों का जाति सम्मान गिरने नहीं दिया। फिर सारा दल घर लौट आया ।

घर लौटकर पाबूजी ने विवाह की तैयारी करनी आरम्भ की । पाबू को ज्ञात हुम्रा कि अमरकोट के राजद्वार पर विवाह का तोरण बांधा जावेगा और उसे छता कठिन है जब तक ऊंची छलांग मारकर कोई घोड़े पर से नहीं कूदे । पाबू की निगाह में देवल चारणी को कालमी घोड़ी प्राई। वे उसे मांगने चारणी के पास गए । चारणी ने कहा कि हे ! वीरवर तुम्हें मैं मना नहीं कर सकती परन्तु मेरी कठिनाई पर ध्यान दो ।

चारणो ने बताया कि उसकी कालमी घोड़ी उसकी गायें चराकर जंगल से ले आती है और गोधन की रक्षा करती है। इस घोड़ी को जायल के खींची जींदराव ने मांगी थी परन्तु उसको नहीं दी। इस कारण वह शत्रु-भाव रखता है और अवसर पड़ते हो घोड़ी के न होने पर, गायों को ले जावेगा। सारी बात को पाबू ने सुना और समझा ।

फिर बाबू ने कहा कि हे माता ! मैं वचन देता हूं कि जब भी जरूरत पड़ेगी मैं तत्काल दौड़ा आऊगा । जूते भी पहिनने में समय नष्ट नहीं करूंगा । ऐसी प्रतिज्ञा सुनकर चारणी ने केसर कालमी घोड़ी को पाबू के हवाले कर दी घोड़ो का पाकर पाबू को अपार हर्ष हुआ । राठौड़ अपनी राठौड़ वेषभूषा और सवारी के लिए सजग रहते हैं । ध्यान विशेष रूप से पांच वस्तुओं पर रहता है । इस सम्बन्ध में प्रसिद्ध दूहा है-

घोड़ा, जोड़ो, पागड़ो, मुच्छांतणी मरोड़ ।
ये पॉबू ही राखली, रजपूती राठौड़।।

पाबूजी अपनी मनचाही सवारी (कालमी घोड़ी) और बांई ओर झुकी टेढी पाग के लिए अधिक प्रसिद्ध है। पाबूजी पूरी तरह सजधज कर, बारात लेकर अमर काट पहुंचे। अमरकोट के सोढे राना की राजकुअरी फूलमदे भी नव दुल्हन बनकर स्वागत के लिए तैयार थी । केसर कालमी ने ऊंची कूद लगाई और उस पर पाबूजी ने मुख्य द्वार पर लटके तोरण को छूकर रस्म ग्रदा को । फिर वह राजा पाबजी विवाह मंडप में ले जाए गए ।

मंगल गीत गाए जा रहे थे । सारा राजभवन बंधु वाँधवों और अतिथियों से ठसाठस भरा था । विवाह कराने वाले पुरोहित ने मंत्रों का पाठ किया । हवन होने लगा । विवाह की क्रिया आरम्भ हुई । फूलमदे सुन्दरी का हाथ पाबूजी के हाथ में थमा दिया गया । वह हस्तमिलाप हुआ जिसे राजस्थानी में ‘हथलेवा’ जोड़ना कहते हैं । हवन की अग्नि के चारों ओर घूमकर फेरे लगने आरम्भ हुए । इन फेरों के पश्चात् बेटी फूलमदे पराई हो जाने वाली थी ।

फेरों के विशेष गीत वधू पक्ष वाली सुहागनों ने गाने प्रारम्भ किए । चारों ओर हर्ष और उल्लास का वातावरण था । वीर पुरुष भी शृंगार के गीत सुनकर मुग्ध हो गए थे। वधू के परिवार की आखों में हर्ष के शीतल प्रांसू उमड़ आए । परन्तु भावी को कोई नहीं जान सका । विवाह मंडप के पास बंधी कालमी घोड़ी अचानक हिनहिना उठी । अपने खुरों से रोंदने लगी । घोड़ी ने संकेत कर दिया कि चारणी देवल की गायों पर खींची जिंदाराव ने हमला कर दिया है।

दिव्य घोडी का संकेत होते ही वचन पालक सत्यनिष्ठ पाबू हथलेवा छुड़ाकर खड़ा हो गया और उसी दशा में वरवेश में घोड़ी पर प्रारूढ़ होकर चल दिया। वर पाबू ने अपनी नवविवाहित वधू के स्नेह और मोह पर भी ध्यान नहीं दिया। पाबू ने क्षण भर की देरी नहीं की। अपने वचन के पालन में गायों की रक्षा हेतु वह चढ़ा जा रहा था । पाबू के साथी भी तत्तकाल उसके पीछे रवाने हो गए ।

सारे मोद, प्रमोद, हर्ष व उल्लास का वातावरण चिन्तायुक्त हो गया । नव वधू फूलमदे की एक आंख में आँसू था कि जीवन का विवाह संस्कार अधूरा क्यों रहा तो दूसरा नेत्र अधिक प्रसन्न था कि वह एक प्रतिज्ञा पालक वीर की पत्नी है । खींची जिंदराव और पाबू दल में जमकर लड़ाई हुई। पाबू के थोरी भाईयों ने अपूर्व वीरता दिखाई । वे सारी गाए छुड़ाकर टोल कर ले गए।

इस मुठभेड़ में वर भेसधारी पाबू पर ही विशेष प्रहार हुए। वे बुरी तरह घायल हो गए। घावों और रक्त से सरोबार पाबू बेहोश होकर गिर रहें थे तब उन पर शत्रुपक्ष के भाटी फरड़ा नामक योद्धा ने वार कर दिया। पाबू की देह लीला समाप्त हो गई। पाबू के बड़े भाई बूढ़ा को जब पाबू के देहान्त की सूचना मिली तो वह भी सेना लेकर चढ़ आया और शत्रुपक्ष को तहस करता स्वयं भी काम आ गया ।

चारणी को उसकी गायें मिल गई। पाबू का वर भेष में मृत शरीर नववधू फं लमदे को मिला । सोलह शृंगार सज फलमदे अपने पति को गोद में सुलाकर चिता मैं बैठी । धाँय धाँय चिता जल उठी । फलमदे के लिए यह सती होने के क्षण अपूर्व थे। उसकी कामना पूर्ण हुई कि कायर पति के संग जोवन बिताने के बजाय वीर पति का एक घड़ी का साथ, स्वर्ग तुल्य है ।

वरवधू जल गए । उनकी आत्माओं ने स्वर्ग का मार्ग अपनाया जहां न बिछोह हैं और न बिछड़ने का भय। वीरवर वचन पालक पाबू अपनी करनी द्वारा अपना यश छोड़ गए । वे एक आदर्श उदाहरण छोड़ गए कि मानव को सत्य वचन को रक्षा, सब कुछ त्याग कर करनी चाहिए। यदि इस मार्ग का अनुसरण और पालन हमारा समाज करे तो कितना सुख होगा । फलमद ने भी राजस्थान की नारी मर्यादा को निभाकर अपने वंश का मुख उज्जवल किया ।

वर (दूल्हा) के वेश में सजे धजे पाबूजी के मृत शरीर के सौन्दर्य को अनेक गीतों और पवाड़ों में गाया जाता रहा है। प्रतिज्ञा पालन और वचन निभाने वाले पाबूजी के होठों पर मन्द मुस्कान सन्तोष की सूचक रही होगो । कविगण इस त्याग और बलिदान की घटना को भाव विभोर होकर गाते हैं। ऐसो कविता को कुछ पंक्तियां भी अर्थ सहित यहां प्रस्तुत हैं-

‘राजकुँवरी वरी जेण वागे रसिक । वरी धड़ कँवारी तेण वागे ॥
अर्थात्-रसिकवर (पाबूजी) ने जिस सुसज्जित वेष में राज कुमारी का वरण किया, उसी वेष में उन्होंने शत्रुओं को कुंआरी सेना का वरण (परास्त) किया ।

‘सघण बूठां कुसुम वोहजिण मोडसिर । विखम उण मोड़ सिर लोह बूठो।।
अर्थात् –विवाह के समय जिस सुसज्जित सर पर कुसुमों की विपुल वर्षा हुई थी उसी मुकुटधारी शोश पर रण में लोहें (तलवार) की प्रबल वर्षा हुई ।

‘सूर बाहर चढे चारणां-सुरहरी, इतै जस जितै गिरनार-आबू।
बिहंड खल खीचियां-तणा दल विमड़े, पोढिया सैज रण-भौम पाबू।।

अर्थात्–चारणी को गायों की रक्षा हेतु शूरवोर पाबूजी रण चढे । उनका यश तब तक गिरनार व ग्राबू पर्वत की भांति अटल रहेंगे । दुष्ट खींचियों के दल का समूल नाश करके वह पाबू रण भूमि की शैय्या पर सदा के लिए सो गया ।

पाबूजी का विवाह और देहान्त की घटनायें साथ साथ हुई हैं । इनके देहान्त के सम्बन्ध में यह दोहा प्रचलित है-

तेरा संवत तैइसी मास मिगसर । तिथ नौमी वद पख रिव सुभवार ॥
अर्थात् –सम्वत 1383 विक्रम माघ वद नवमी, रविवार (तदानुसार तारीख 19 नवम्बर 1326 सन्) । पाबूजी के बड़े भाई बूढ़ाजी ने वीर गति पाई तब उनकी पत्नी गर्भवती थी। सती होने के लिए उसने अपने गर्भ को चीरकर शिशु को बाहर निकाला। पेट चीरकर अर्थात् झाड़ कर पुत्र निकाला । इसलिए नवजात शिशु का नाम भरड़ा पड़ा । भरड़ा की माता तो सती हो गई, और झरड़ा बड़ा होने लगा ।


भरड़ा जब युवा हुआ तो उसने सबसे पहिले अपने पिता और काका (पाबूजी) का बदला निकाला खींचियों का जड़मूल से नाश कर दिया । भरड़ा की पितृ भक्ति की प्रशंसा होने लगी । आगे जाकर राव आसथान के पुत्र राव घूहड़ के पुत्र रायमल्ल ने भाटी फरहा से भी बदला लिया । उसका वध कर उसके चौरासी गाँव अपने मारवाड़ राज्य में मिला लिये। पाबूजी जैसे सत्यनिष्ठ वचन पालक वीर का जिसने विरोध किया, उन सबका नाश होकर ही रहा ।

पाबूजी के जीवन में जाति का भेदभाव कुछ भी स्थान नहीं रखता था। वे पिछड़ी जाति के सात भाईयों को शरण देकर एक आदर्श का उदाहरण प्रस्तुत कर चुके हैं। इस मानवी व्यवहार के कारण पाबूजी थोरो व भोल जाति में प्रति लोकप्रिय हो गए । आज भी पाबूजी की मान्यता इस जाति में भरपूर हैं। चारणी को गायों को रक्षा करने वाले पाबूजो का यश गान चारण कवियों मुक्त कंठ से किया है ।

पाबूजी का जन्म स्थान कोलू है जो वर्तमान फलौदी गाँव से अठारह मील दूर है। कोलू में पाबूजी का मन्दिर बना है। इसी क्षेत्र के देचू गांव में पाबूजी ने वीरगति पाई थी । कोलू के मन्दिर में कई शिलालेख लगे हैं। इनमें सबसे पुराना पढ़ा गया लेख सम्वत् 1415 विक्रमी का है जिसमें धाँधल सोम पुत्र सोहड़ द्वारा मन्दिर निर्माण करने का उल्लेख है । भूतपूर्व मारवाड़ रियासत में पाबूजो के वंशज ताजीमी जागीरदार थे और उनको जागोर (ठिकाना) केरू था।

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kheem singh Bhati is a author of niharika times web portal, join me on facebook - https://www.facebook.com/ksbmr
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