राजस्थान के लोक देवता (पाँच पीर) panch peer of rajasthan

Kheem Singh Bhati
Kheem Singh Bhati
18 Min Read
राजस्थान के लोक देवता (पाँच पीर) panch peer of rajasthan

राजस्थान के लोक देवता (पाँच पीर), panch peer of rajasthan। वीर पुरुष जन कल्याण की भावना से अपने जीवन में त्याग, बलिदान, सेवा और उदारता आदि गुणों को अपना कर, श्रमर बन जाते हैं । ऐसे पुरुष देश, समाज श्रौर धर्म की मर्यादाओं का पालन करते हुए, अपने सम्पूर्ण जीवन को लोकहित में लगा देते हैं। उनके चरित्र उन्हें श्रादर्श बना देते हैं । वे अपने कार्यों के कारण दूसरे के लिए उदाहरण स्वरूप बन जाते हैं।

ऐसे लोकवीर, ‘लोक देवता’ के रूप में पूज्य हो जाते हैं । यही ‘लोक देवता’ बनने का रहस्य है । समाज में व्यवस्था बनाए रखने के लिए समयसमय पर कुछ नियम बनते रहते हैं । इन नियमों में आवश्यकता पड़ने पर कुछ परिवर्तन भी होता रहता है । वह नियम मानव मात्र के लिए लाभदायक है, यह ध्यान में रखा जाता है । इन नियमों का प्राधार जाति अथवा वर्ण का भेद नहीं होता है।

ऐसे मानव हितकारी नियमों का धारण करना अर्थात उनके अनुसार चलना प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है । इनका पालन लोक धर्म का मानना है । इन नियमों पालन में जो व्यक्ति अटूट साहस दिखाता है, वह प्रदेश के रूप में प्रसिद्ध हो जाता है । यही आर्दश पुरुष समाज में एक लोक देवता के रूप में मान्य हो जाता है ।

आदर्श वीर अपनी प्रसिद्धि के कारण लोकप्रिय हो जाता है। । दन्तकथाओं और विरुद गाने वालों द्वारा उनकी चरित्रगाथा प्रसार तथा प्रचार पाती रहती है । कई कल्पित और अमानवीय घटनायें उनके जीवन के साथ जुड़ जाती हैं । उस भू-भाग में उनके पराक्रम के गीत बढ़बढ़कर गाए जाने लगते हैं। मौखिक परम्परा के कारण कथाओं का प्रसार होते समय कई अंश छूट जाते हैं, कई अशों का रूप बदल जाता है तो कई अन्यों की कथाओं के अंश जुड़ जाते हैं ।

यह घटना, बढ़ना और परिवर्तन होने का सिलसिला लगातार चालू रहता है। इसी कारण इसे मौखिक साहित्य का नाम दिया जाता है जिसका रचियता और रचनाकाल प्रज्ञात रहता है । यही कारण है कि लोक देवताओं के सम्बन्ध में प्रामाणिक इतिहास खोज निकालना कठिन हो जाता है। मौखिक परम्परा वाले लोक साहित्य के आधार पर ही इन वीर आदर्श पुरुषों का जीवन चरित्र खोजना पड़ता है।

इन आदर्श वीर पुरुषों के जन्म स्थान, निवास स्थान, कार्य क्षेत्र और देहान्त के स्थान भी प्रसिद्ध हो जाते हैं। उनकी स्मृति में ऐसे स्थानों पर कुछ निर्माण कार्य भी हो जाता है । इनके प्रशंसक अथवा भक्त ऐसे स्मारकों को तीर्थस्थल की मान्यता दे देते हैं।

वहां पर समय-समय पर मेले भी लगने लग जाते हैं, तो भी और अज्ञानी लोग चमत्कारों की झूठी कथाये इन वीर पुरुषों के स्मारकों के साथ जोड़ देते हैं जिससे यात्रियों की भीड़ चढ़ावा चढ़ाकर श्रामदनी बढ़ाती रहती है । करामात और चमत्कार को भोली जनता हजारों की संख्या में बहाँ पर प्राकर्षित होती रहती है । धीरे-धीरे यह भी प्रचार होने लगता है कि वीर आदर्श पुरुष अमुक देवता का अवतार है । जब अवतार को कल्पना प्रचारित की जाती है तो उसके संगी साथी भी अवतार के अंश रूप घोषित कर दिए जाते हैं ।

राजस्थान के लोक देवता (पाँच पीर) panch peer of rajasthan

ऐसे लोक देवताओं का इतिहास अपने सही रूप में समय के साथ विलुप्त हो जाता है। परन्तु मौखिक रूप में उनके जीवन और उनकी शक्तियों का बखान तथा उससे सम्बन्धित स्थानों का महत्व लगातार प्रचारित होता रहता है। समाज में हर काल में आदर्श पुरुष तो होते ही हैं परन्तु चरम सीमा का त्याग व साहस का प्रदर्शन करने वाले विरले पुरुष ही ‘लोक देवता’ का सम्मान प्राप्त करते हैं ।

भले ही समय के साथ उनका सही इतिहास समाज भूल जावे परन्तु उनके आदर्श चरित्र सदैव स्मरण करने और अनुकरण करने के विषय रह जाते हैं। ऐसें आदर्श पुरुषों के सद्कार्य उनके पराक्रम होते हैं। जिन्हें राजस्थानी भाषा में ‘पवाड़ा’ कहते हैं । यह ‘पवाड़े’ गीत के रूप में लोक समुदाय रचता है जिसमें वीर पुरुष के पराक्रमों (चरितों) का गुणगान होता है।

इन चरित्रों को जब गद्य रूप में कहानी के रूप में कहते हैं तो उसे राजस्थानी में ‘बात’ कहते हैं । इन चरितों की घटनाओं का क्रमबद्ध (धारा प्रवाह) चित्रण किसी पट्ट (कपड़े) पर करते हैं तो उस चित्रित पट्ट को राजस्थानी में ‘फड़’ कहते हैं इन चित्रित घटनाओं को समझाकर अथवा गीतों द्वारा बखान कर संकेत किया जाता है तो उसे ‘फड़ बाचना’ कहते हैं ।

फड़ वाचने का काम भोपे करते हैं। रस्सियों के सहारे चित्रित फड़ को बांधकर दिवाल की तरह खड़ी तान दिया जाता है । ‘भोपा अपनी वेशभूषा पहिनकर, अपनी स्त्री (भोपी) के संग फड़ के सामने भ्राता है । वह लम्बा लाल अगरखा, गोटे किनारी वाला पहिनकर, सर पर पगड़ी बांधता है। पैरों में घु घरू और बांये हाथ में ताँत का बाजा (रावण हत्था) लिए रहता है। वह घूम-घूमकर, पाँवों का ठपका देकर, बाजे पर तान निकालकर विरुद गाता है । वह जिस घटना का वर्णन करता है उस पर भोपी दिए (दीपक) द्वारा प्रकाश डालती है।

भोपी हाथ में तेल का दिया लटकाए रहती है । भोपे के अलाप में गीत की टेक को वह तार स्वर में दुहराकर अलाप भरती है। वह बाँचना देर रात तक चलता है । गाँवों की तारा छाई रात के शान्त बातावरण में लोक वीरों का गुणगान बहुत भारी प्रभाव सुनने वालों पर डालता है । इन लोक वीरों के पवाड़े और फड़े इनके चरित को अमर बना देती हैं । ज्ञान और मनोरंजन का यह पूर्व साधन हैं ।

राजस्थान के लोक साहित्य में वीर पुरुषों के जो चरित गीतो’, पवाड़ों, फड़ों आदि द्वारा बखाने जाते हैं उनसे कुछ लाभप्रद और शिक्षाप्रद निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं । इन लोकमान्य देवताओं के प्रशंसक अथवा भक्त सभी जाति और मत-मतान्तर वाले होते हैं । जाति और पांति का भेद भाव इनमें नहीं बदला जाता । सभी प्रान्तों में बिना किसी वर्ण भेद के इन लोक देवताओं की मान्यता ग्रामीण समाज में बहुत अधिक है । यह अपने उपदेशों में सरल और हितकारी बातों पर जोर डालते हैं।

किसी अन्य मत अथवा धर्म की निन्दा नहीं करते हैं। इनका सम्बन्ध किसी मर्यादा अथवा प्राचीन धार्मिक शास्त्र से नही है। मनुष्य मात्र को विकार रहित जीवन व्यतीत करने का मार्ग बताते हैं । सत्य, दया, अहिंसा, दान, परोपकार आदि गुणों का प्रचार कर हैंते । धर्म अथवा जाति के विरोध में कोई शत्रु भाव नहीं रखते हैं। ऐसे उपदेशों में मनुष्य का मनुष्य से भेद भाव रखना अथवा छूआछूत रखना असम्भव है ।

हिन्दु समाज के यह अवगुण, इन लोक देवताओं के उपदेशों से दूर हो गए हैं। इसके कारण सभी जाति के लोग एक साथ मिलकर भजन-पूजन और प्रसाद ग्रहण करने में हाथ बंटाते है । इन लोक देवताओं की भले ही भिन्न-भिन्न स्थानों पर गादियाँ (केन्द्र) हों परन्तु उपदेश के रूप में सभी एक ही भाँति का मानव कल्याणकारी संदेश देते हैं।

सच्चे रूप में यह सन्त का कार्य करते हैं जो मनुष्य ही नहीं, जीव मात्र के कल्याण की कल्पना रखते हैं । जाति, जन्म, रूढ़िवादी धार्मिक मान्यताओ से हटकर, इन देवताओं का संदेश है । इनके नाम पर चली जो वाणियाँ मिलती हैं वे सारी निर्गुण भक्ति का उपदेश देती हैं। सारे संसार व जीवों को बनाने वाला एक ईश्वर है जो परम शक्तिमान है ।

वह अच्छे तथा बुरे कामों का फल देता है। पापी को दुःख भोगना पड़ता है और पुण्य करने वाला सुख भोगता है। मानव धर्म के मुख्य लक्षण इन उपदेशों में प्रकट हो जाते हैं । अच्छे जीवन बिताने के लिए मानव को काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह, अहंकार, ईर्ष्या प्रादि विकारों से दूर रहने की सीख देते हैं। यह सारे उपदेश उनकी मेंवाणियों में भरे पड़े हैं जो साधारण बोलचाल की भाषा नमें हैं।

इनके समस्त उपदेशों का सार दो पंक्तियों में न कहा जा सकता है कि उपकार से बढ़कर पुण्य नहीं और परपीड़ासे बढ़कर पाप नहीं । रइन लोक देवताओं की गुणगाथा ज्योज्यो फैलने लगी त्यों-त्यों समय के साथ इनके जीवन चरित्र में अलौकिक घटनाये जुड़ने लगी । इसका परिणाम यह हुआ कि ये शक्ति के केन्द्र माने जाने लगे और अन्धविश्वास अथवा अज्ञानी लोंगो ने इनके गुणों के पालन को भूलकर इनकी पूजा करने लगे ।

इन वीर पुरुषों ने परिश्रम और त्याग से जो कार्य सफल किए वे इनके भक्त केवल इनका नाम जपकर, प्राप्त करना चाहने लगे । रोगी और निर्बल स्वास्थ्य लाभ करने तथा निर्धन भक्त शीघ्र धनवान बन जाने हेतु इनकी मनौती मानने लगे।

इनके मृत्यु स्थल, तीर्थ बन गए और वहां की मिट्टी का तिलक होने लगा। यह सब अन्ध विश्वास का फल है । इन वीर पुरुषों की कथनी और करनी में अन्तर नहीं रहा परन्तु इनके भक्तों में केवल कथनी ही रह गई ।
इन लोक देवताओं की धातु के पतरे पर बनी, मूर्तियाँ अथवा प्रतीक (चिन्ह) जिन्हें लोक भाषा में फल कहने हैं, लोग पहिह्नने लगे। इन्हें वे संकट निवारण का कवच मानने लगे । रात्रि भर जाग कर इनका यश गान गाते, जिसे जम्मा वहते हैं और फल की आशा करने लगे ।

कर्म करने से दूर रहने और सदाचार का पालन नहीं करने से कोई फल अन्ध विश्वासी लोगों को नहीं मिला । शिक्षा के प्रसार के साथ ज्ञान और विवेक का प्रचार अब होने लगा है। इसके फलस्वरूप अन्य श्रद्धा का नाश भी होने लगा है । राजस्थान के गांवों में अनेक देवताओं के स्थान हैं । यह देवता भी जाति और स्थान विशेष के कारण। संख्या में बहुत ज्यादा हैं।

इनमें मुख्य रूप से पाँच लोक देवताओं की गणना निम्न दोहे से जानी जा सकती है-‘पाबू, हरभू, रामदेव, माँगलिया मेहा । पाँचों पीर पधारज्यो, गोगाजी जेहा ॥’ अर्थात–पाबू (राठौड़), हरभू (सांखला), रामदेव (तँवर), मेहा (सांखला) और गोगाजी (चौहान), इन पांचों पीरों का आवाहन करता हूं कि वह जैसे भी हों, अवश्य पधारें । यहां पर ‘पीर’ शब्द के प्रयोग पर कुछ विचार कर विचार कर लेना उचित होगा क्योंकि इन पांच पीरों में से दो की मान्यता – 1. रामशाह पोर ( रामदेव) और 2. जाहिर पीर (गोगन्दे) हिन्दुओं के अतिरिक्त मुसलमानों में बहुत अधिक हैं ।

पश्चिमी भारत में हजारों की संख्या में इनके अनुयायी फैले हुए हैं। ‘पीर’ शब्द फारसी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है, सिद्ध अथवा महात्मा ! यह पाँचों आदर्श वीर पुरुष अपने लोक कल्याणकारी जीवन के कारण सारे जन समुदाय में आदर पा गए। हिन्दू इन्हे देवता तो मुसलमान पीर । अलौकिक घटनाओं को इनके जीवन चरित में जोड़ दिया गया ती यह सबके लिए पूजनीय हो गए । मुसलमान भी इन पोरों की मनौती मानने लगे ।

यह पाँच ही क्यों गिने गए, के सम्बन्ध में इतना लिखना पर्याप्त होगा कि राजस्थान में मान्यता प्राप्त अनेक लोक देवता हैं परन्तु अपने समय में यह पांचों ऐतिहासिक पुरुष होने के कारण साथ ही गिन लिए गए । यह पांचों क्षत्रिय जाति के हैं और इनके जीवन काल में इनके कार्य का मुख्य क्षेत्र मरु प्रदेश ही रहा है। सनातन परम्परा में पांच की सँख्या शुभ मानी जाती है। भागवत (वैष्णव) धर्म के प्रारम्भ होने के समय उसके पांच उपास्य देव (पंच वृष्णी वोर) रहे ।

समय के साथ पांच की संख्या रुढ़ हो गई । सनातन धर्म में भी पांच हिन्दू देवता, — 1. विष्णु, 2. शिव, 3. गणपति, 4. सूर्य और 5. देव प्रतिनिधि स्वरूप मान लिए गए और एक ही धरातल पर इन पाँचों के मन्दिर ‘पंचायत’ शैली के बनने लगे । दैनिक व्यवहार में भी पंच कर्म यज्ञ हमारे में प्रचलित हैं ही।

इन उपर्युक्त पाँच वोरों के अतिरिक्त अन्य कई देवता प्रसिद्ध हैं जाट जाति के तेजा धोला (सांपों के देवता), गूजरों के देवनारायण (बगड़ावत वाले देवजी), मालासी (शेखावटी वाले), संकड़ देवता (हरिराम जी), श्याम जी (खाटूवाले) और इतिहास प्रसिद्ध अमरसिंह राठौड़ कुछ उदाहरण हैं। महिलाओं के नाम भी इसी श्रेणी में भ्राते हैं, जैसे रानी पद्मनी, हाडी रानी, रूठी रानी उमादै भटियानी, पन्ना धाय (उदयपुर), गोरां (जोधपुर), इन्द्राबाई (खुदड़ जोधपुर) ।

प्रसिद्ध कवियत्रो मीरां के अनुयायी उसके नाम का सम्प्रदाय अलग से चला इन लोक देवताओं से सम्बोधित सम्प्रदाय भी बन गए। जहां पर इनका जन्म अथवा देहान्त हुआ, वहां पर गादियां स्थापित हो गई। वह केन्द्र बन गई जहां से इनके सम्प्रदाय का प्रचार होता रहता है। इन पीरों के नाम पर चढ़ी वाणियां और इनके भक्तों की वाणियों का प्रकाशन भी इन केन्द्रों से होता रहता है ।

इस प्रकार की वाणियों का रचयिता अथवा रचनाकाल तय करना लगभग सम्भव होता हैं क्यों कि सारा साहित्य मौखिक परम्परा में होता है। यही दशा देवताओं सम्बम्धी बात व गाथा की है। ऐसे ही साहित्य के आधार पर इनकी जीवन गाथा को लिखने का प्रयास करेंगे ।

राजस्थान के पांच लोक देवताओं के चरित उनके गीत, पवाड़े, बात, फड़ और प्रवादों से जाने जा सकते हैं। इनमें हरभू और उनके पिता मेहा के सन्बन्ध में ऐसी सामग्री नगण्य हैं | पाबू के सम्बन्ध में राजस्थानी ख्यालों में पाबू को बातों का अच्छा संग्रह मिलता है । गोगाजी के काल के सम्बन्ध में भारी मत भेद है। यहां पर राजस्थानी बात के आधार पर ही गोगाजी का वृत्तान्त लिखेंगे । आगे पांच लोक देवताओं (पोरों) की जीवनी और उनसे सम्बन्धित मुख्य घटनायें क्रमशः प्रस्तुत हैं ।

इन पांच लोक देवताओं की विशाल मूर्तियां सम्वतः 1776 विक्रमी में जोधपुर के राजा अजीतसिंह के राज्य काल में मंडोर नामक स्थान पर बनाई गई । मंडोर के उद्यान में एक खड़ी चट्टान में लगातार खोदकर लगभग दस-दस फुट ऊंची ये मूर्तियां बनी हैं। इन देवताओं की वेशभूषा और स्वरूप के सम्बन्ध में यह प्राचीनतम उपलब्ध प्रमाण हैं। सारी मूर्तियां घोड़े पर सवार पुरुषों की हैं ।

राजस्थान के 5 लोक देवताओं panch peer of rajasthan, के बारे में यहाँ पढे –

पाबूजी – राजस्थान के लोक देवता (1)
मेहाजी – राजस्थान के लोक देवता (2)
हरभूजी – राजस्थान के लोक देवता (3)
रामदेव जी – राजस्थान के लोक देवता (4)
गोगाजी – राजस्थान के लोक देवता (5)

देश विदेश की तमाम बड़ी खबरों के लिए निहारिका टाइम्स को फॉलो करें। हमें फेसबुक पर लाइक करें और ट्विटर पर फॉलो करें। ताजा खबरों के लिए हमेशा निहारिका टाइम्स पर जाएं।

Share This Article