राष्ट्रपति संदर्भ मामले में उच्चतम न्यायालय का महत्वपूर्ण निर्णय

Sabal SIngh Bhati
By Sabal SIngh Bhati - Editor

नई दिल्ली। उच्चतम न्यायालय ने राष्ट्रपति संदर्भ मामले की सुनवाई के छवें दिन मंगलवार को स्पष्ट किया कि वह इस आधार पर फैसला नहीं करेगा कि कौन-सी राजनीतिक व्यवस्था सत्ता में है या थी। वह केवल संविधान की व्याख्या करेगा और विशिष्ट उदाहरणों पर विचार नहीं करेगा। मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई और न्यायमूर्ति सूर्य कांत, न्यायमूर्ति विक्रांत नाथ, न्यायमूर्ति पीएस नरसिम्हा और न्यायमूर्ति अतुल एस. चंदुरकर की संविधान पीठ ने सुनवाई के दौरान ये स्पष्ट किया। क्या कोर्ट यह कर सकता है?

पीठ ने पूछा कि क्या न्यायालय संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत शक्तियों का प्रयोग करके राज्यपाल और राष्ट्रपति द्वारा शक्तियों के प्रयोग के लिए एक सीधा सूत्र निर्धारित कर सकता है। यदि विलंब के व्यक्तिगत मामले हैं तो पीड़ित पक्ष राहत पाने के लिए न्यायालय का दरवाजा खटखटा सकते हैं। न्यायालय यह निर्देश दे सकता है कि निर्णय एक समय सीमा के भीतर लिया जाए, हालाँकि, इसका अर्थ यह नहीं हो सकता कि न्यायालय राज्यपाल और राष्ट्रपति की कार्रवाई के लिए एक सामान्य समय-सीमा निर्धारित कर दे। पीठ ने पूछा सवाल।

पीठ ने याचिकाकर्ताओं से जानना चाहा कि अगर राष्ट्रपति या राज्यपाल तमिलनाडु के मामले में आठ अप्रैल, 2025 को अपने फैसले में इस न्यायालय द्वारा तय की गई विधेयकों को मंजूरी देने की समय-सीमा का पालन नहीं करते हैं तो इसके क्या परिणाम होंगे? साथ ही, अदालत ने सभी विधेयकों के लिए एक निश्चित समय-सीमा तय करने की शक्ति पर भी संदेह व्यक्त किया। मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली पांच न्यायाधीशों की पीठ ने पूछा, अगर विधेयक समय-सीमा के भीतर पारित नहीं होते हैं तो क्या राज्यपाल या राष्ट्रपति पर अदालत की अवमानना का मुकदमा चलाया जा सकता है?

इस पर तमिलनाडु सरकार का पक्ष रख रहे वरिष्ठ अधिवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने उत्तर दिया कि विधेयकों पर मान्य स्वीकृति एक परिणाम हो सकती है। न्यायालय ने कहा कि विधेयकों को स्वीकृति देने में देरी के कुछ मामलों को देखते हुए राज्यपालों और राष्ट्रपति के लिए संविधान के अनुच्छेद 200 और 201 के अनुसार कार्य करने के लिए एक निश्चित समय-सीमा निर्धारित करना उचित नहीं ठहराया जा सकता। सिंघवी ने तर्क किया कि राज्यपालों द्वारा विधेयकों को अनिश्चित काल तक रोके रखने की बार-बार की घटनाओं को देखते हुए ये समय-सीमाएं आवश्यक थीं।

उन्होंने कहा कि विधेयक को ‘रद्द’ करने का अधिकार केवल मंत्रिमंडल को है, किसी और को नहीं। यह राज्यपाल द्वारा नहीं किया जा सकता। इस न्यायालय के पास संविधान की कोई योजना नहीं बचेगी (यदि इसकी अनुमति दी जाती है)। उन्होंने ने तर्क किया कि राज्यपाल किसी विधेयक का अंतिम मध्यस्थ नहीं हो सकता।

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