सन् 1650 में उन्हें गुजरात का सूबेदार नियुक्त कर दिया। जसवंतसिंह ने गुजरात में रहते वहाँ के उपद्रवियों को दबाया, अतः बादशाह ने उन्हें फिर से महाराजा की पदवी सन् 1659 में दे दी।’
दक्षिण में मराठे शक्तिशाली हो गये थे। उनकी बढ़ती हुई शक्ति को रोकने हेतु बादशाह ने जसवंतसिंह को दक्षिण भेज दिया।
जसवंतसिंह 1662 में औरंगाबाद पहुँच गये।’ मराठा राजा शिवाजी फिर भी मुगलों को परेशान करता रहा। जसवंतसिंह ने बादशाह और शिवाजी के बीच सम्बन्धों को मधुर बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। बादशाह ने महाराजा की बात मान कर शिवाजी को राजा की पदवी प्रदान की। सन्धि की शर्तों पर शिवाजी के पुत्र शम्भाजी को औरंगाबाद भेजा गया।
सम्राट् ने जसवंतसिंह से प्रसन्न होकर उन्हें चकला हिसार पतलाद और धंधुका के परगने देकर उन्हें गुजरात पहुँचने का आदेश दिया लेकिन शीघ्र ही मई 1671 में जसवंतसिंह को काबुल जाने का आदेश दे दिया ताकि वे पश्चिमोत्तर प्रदेश में पठानों के उपद्रवों को दबाने में सहायता करे। जसवंतसिंह सन् 1672 में पेशावर पहुँच गये, जहाँ वे पठानों को दबाने में लग गये। बाद में वे जमरुद (अफगानिस्तान) भेज दिये गये, जहाँ सन् 1678 की 28 नवम्बर को उनकी मृत्यु हो गई।
महाराजा जसवंतसिंह एक नीति निपुण, निडर और चतुर शासक थे। वे गुणीजनों के प्रशंसक तथा विद्वानों के आश्रयदाता थे। उन्होंने मारवाड़ के प्रशासन में कई सुधार किये। उन्होंने जोधपुर के कागा स्थान पर काबुल से बीज व पौध लाकर अनार का बगीचा लगवाया। राईकाबाग भी तब ही स्थापित किया।
उनकी रानियों ने कल्याणसागर और शेखावतजी के तालाब बनवाये। ख्यातों में उन्हें हिन्दुत्व का रक्षक कहा गया है। हिन्दू धर्म के गूढ़ रहस्यों को उसने समझने की चेष्टा की और अपने राज्य में कई मन्दिरों की सहायतार्थ धन दिया । औरंगजेब ने मन्दिर गिराने का आदेश उन्हीं के विरोध करने पर वापस लिये थे ।
जसवंतसिंह की मृत्यु के बाद उनके पुत्र अजीतसिंह का जन्म फरवरी, 1679 हुआ। बादशाह जसवंतसिंह से द्वेष रखता था, अतः उनकी मृत्यु के बाद बालक महाराजा को जोधपुर राज्य का शासक घोषित नहीं किया। उसने जनवरी, 1679 में जोधपुर में मुगल अधिकारी नियुक्त कर दिये और मारवाड़ को अपने अधिकार में कर लिया। जोधपुर का प्रबन्ध ताहिरखां को सौंप दिया। सोजत और जैतारण में भी शाही अधिकारी नियुक्त कर दिये । ‘
बालक महाराजा को बादशाह ने अपने पास रखना चाहा, लेकिन राठौड़ सरदारों ने इसे उचित नहीं समझा, अतः वे उसे चालाकी से सिरोही ले गये और वहाँ छिपा कर रखा। राठौड़ों ने मारवाड़ में मुगल सत्ता को स्वीकार नहीं किया और वे राठौड़ सरदार दुर्गादास के नेतृत्व में मुगल सेना से बराबर लड़ते रहे।
सोजत, डीडवाना, रोहिट आदि स्थानों पर मुगल सेना ने अधिकार कर लिया था, लेकिन राठौड़ 28 वर्ष तक संघर्ष करते रहे और मुगलों को चैन नहीं लेने दिया। राठौड़ों ने मेवाड़ के महाराणा से सहायता लेकर मुगल सेना का सामना किया।
राठौड़-मुगल संघर्ष ने राठौड़ सिसोदियों के मध्य एकता का सूत्रपात किया। मुगलों को मेवाड़ में महाराणा राजसिंह के नेतृत्व में और मारवाड़ में राठौड़ों की छापामार युद्ध नीति का सामना करना पड़ा। मुगल राठौड़ संघर्ष 1707 तक चला। औरंगजेब की मृत्यु के बाद मार्च माह में अजीतसिंह ने जोधपुर पर कब्जा कर लिया। औरंगजेब की मृत्यु का समाचार मिलने पर महाराजा अजीतसिंहजी बहुत प्रसन्न हुए और निम्न दोहा कहा-
आई खबर अचिंत री, मिट गई तन री दाह ।
कासिदों यूं भाखियो, मर गयौ औरंगशाह ।।
फिर धीरे-धीरे अन्य परगने मेड़ता, पाली, सोजत आदि पर भी अधिकार कर लिया गया। बादशाह बहादुरशाह ने विवश होकर अजीतसिंह से मेल कर लिया और उन्हें महाराजा की पदवी के साथ मनसब आदि दे दी ।।
जब फर्रुखसियर दिल्ली की गद्दी पर बैठा, तब अजीतसिंह काफी शक्तिशाली हो गये। उन्होंने जोधपुर पर नियुक्त शाही अधिकारियों को निकाल बाहर किया। बादशाह ने उनको दण्ड देने के लिये हुसैनकुली खां को एक बड़ी सेना के साथ मारवाड़ भेजा।
अजीतसिंह ने हुसैन अली खां की शर्तों के अनुसार संधि कर ली। बाद में जब दिल्ली दरबार के सैय्यद बन्धुओं और बादशाह के बीच अनबन हो गई, तब अजीतसिंह दरबारी षड़यंत्र में सम्मिलित हो गये जिसके कारण फर्रुखसियर की हत्या कर दी गई। सन् 1719 तक अजीतसिंह भारत का एक प्रमुख राजपूत राजा बन गये। नये बादशाह मुहम्मदशाह के समय मुगल दरबार के षड्यंत्र चलते रहे। इसी के फलस्वरूप अजीतसिंह की हत्या उसके ही पुत्र बख्तसिंह ने 1724 में कर दी जब वे अपने महलों में सो रहे थे।
बख्ता बखत बायरो, मार्यौ क्यूं अजमाल । हिन्दवाणी रो सेवरो, तुरकाणी रो साल ।।
हे बिना बख्त (तकदीर) वाले बख्तसिंह तुमने अजमाल (अजीतसिंह) को क्यों मारा? वह हिन्दुओं का सेहरा (सिरमौर) और तुर्कों का दुश्मन था। अजीतसिंह एक योग्य शासक थे। उन्होंने मारवाड़ के राज्य की नई व्यवस्थ कायम की। वे साहित्य प्रेमी भी थे। वह स्वयं विद्वान् और कवि थे। उन्होंने भवन निर्माण में भी बड़ी रुचि ली।
जोधपुर के दुर्ग में फतेह महल और दौलतखाने के महल बनवाये। इन भवनों में स्थानीय और मुगल कला का अच्छा मिश्रण है। मण्डो में जसवंतसिंह का विशाल एवं कलात्मक स्मारक बना कर उन्होंने अपनी पितृभक्ति का अच्छा परिचय दिया।’
अजीतसिंह के ज्येष्ठ पुत्र अभयसिंह अपने पिता की हत्या के समय दिल्ली थे। अतः वहाँ ही उनका राज्याभिषेक हुआ। इस अवसर पर बादशाह ने उन्हें नागौ का परगना और खिलअत देकर सम्मानित किया। बादशाह ने उन्हें राजराजेश्वर की उपाधि प्रदान की।
सन् 1725 में वह गुजरात के उपद्रव शांत करने को भेजे गये इसके बाद दिल्ली और वहाँ से मारवाड़ आकर अपने भाइयों और सरदारों के विद्रोह को शांत किया । तब ही जोधपुर में परम्परागत रूप से राजतिलक उत्सव मनाय गया। उन्होंने मेड़ता की रक्षा का भार शेरसिंह मेड़तिया को सौंपकर स्वयं ने नागौ के इन्द्रसिंह को युद्ध में हराया।
सन् 1730 में महाराजा को गुजरात का सूबेदा बनाया गया।’ अभयसिंह ने वहाँ सरबुलन्दखां को पराजित किया। मराठों को हराक बड़ौदा पर भी अधिकार कर लिया। उनके जीवन काल में बीकानेर के साथ सीमान्त के झगड़े के कारण बीकानेर से सम्बन्ध बिगड़ गये लेकिन बाद में मैत्री कर ली अजमेर पर भी अधिकार कर लेने से उनका जयपुर से भी झगड़ा हुआ, लेकि जयपुर नरेश ने उनसे संधि करना ही उचित समझा।
अभयसिंह के अपने छोटे भाई बख्तसिंह से सम्बन्ध अंतिम दिनों में बिगड़ गये थे। इसी का लाभ उठाकर मराठ ने मारवाड़ पर आक्रमण कर दिया, लेकिन एक भीषण युद्ध के पश्चात् मराठों क खदेड़ दिया गया। अभयसिंह की सन् 1749 में अजमेर में मृत्यु हो गई ‘
अभयसिंह ने अभय तालाब, अठपहलू कुआ और कोट महल, महाराज अजीतसिंह का देवल, मंडोर में देवताओं की साल आदि कानिर्माण कराया। अभयसिंह की मृत्यु के पश्चात् उनका पुत्र रामसिंह राज्यासीन हुआ। उनके समय में राठौड़ राज परिवार में गृह कलह आरम्भ हो गया। सरदार लोग महाराजा रामसिंहजी से खुश नहीं थे। प्रजा भी उनकी प्रशासनिक अक्षमता से खुश नहीं थी।
रामे सूं राजी नहीं, कूके मुरधर देस । जोधांणो झाला करै, आव धणी बखतेस ।।
अर्थात् महाराजा रामसिंह से प्रजा संतुष्ट नहीं है और जोधपुर झाला (इशारा ) करके आप बखतसिंह को बुला रहा है।
रामसिंह का सर्वाधिक विरोध अजीतसिंह के कनिष्ठ पुत्र बख्तसिंह ने किया। वख्तसिंह ने युद्ध कर 1751 में जोधपुर पर अधिकार कर लिया ।’ फलस्वरूप रामसिंह का शेष जीवन संघर्ष करने में ही बीता। उन्हें जयपुर के ईश्वरसिंह और मरठों से भी सहायता प्राप्त हुई थी लेकिन वह सफल नहीं हो सके। सन् 1751 में उनकी मृत्यु हो गई ।
यह लेख आगे भी चालू है —– अगला भाग पढे मारवाड़ के महाराजा बख्तसिंह (1751-1752)
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