राजस्थान के छत्तीस राजकुल (36 राजकुल)

Kheem Singh Bhati
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मुण्डराय के शासनकाल में महमूद गजनवी ने अनहिलवाड़ा पट्टन पर आक्रमण किया तथा लूट में विपुल धन-सम्पदा अपने साथ ले गया। गजनवी और उसके उत्तराधिकारियों के बारम्बार आक्रमणों तथा लूट ने अनहिलवाड़ा को समृद्धिहीन बना दिया। फिर भी, सिद्धराज जयसिंह ने इस राज्य को पुनः समृद्ध एवं प्रतिष्ठित किया 17 वह एक प्रतापी राजा हुआ। कर्नाटक और हिमालय के बीच में बसे हुए 22 नगर एक समय सिद्धराज की छत्रछाया में थे।

परन्तु सिद्धराज के उत्तराधिकारी उसके विस्तृत राज्य का सुख बहुत समय नहीं भोग सके। सिद्धराज जयसिंह सोलंकी के बाद चौहानों का एक वंशज कुमारपाल अनहिलवाड़ा के सिंहासन पर बैठा। चौहानवंशी होते हुए भी कुमारपाल सोलंकी वंश का हो गया। उसके शासनकाल में मुसलमानों ने उसके राज्य में अनेक बार लूटमार की तथा उसके राजत्व को श्रीहीन बना दिया।

कुमारपाल ने कठोर दुःख और मानसिक पीड़ा से अपने शरीर को छोड़ दिया। उसके बाद मूलदेव उसके सिंहासन पर बैठा। 1228 ई. में मूलदेव की मृत्यु के साथ ही अनहिलवाड़ा पट्टन के सोलंकी वंश का अवसान हो गया। इसके बाद सोलंकी वंश की बघेल 12 नामक एक शाखा के सरदार विशालदेव ने राज्य पर अधिकार कर पुनः शान्ति एवं व्यवस्था कायम की।

सोलंकी वंश की सोलह शाखायें हैं, जो इस प्रकार हैं –

      1. बघेल-बघेलखण्ड के राजा, जिनकी राजधानी बांधूगढ़ थी। पीथापुर, थराद और अदलज के सरदार।
      2. बेहिल – मेवाड़ के अधीन कल्याणपुर के जागीरदार।
      3. बीरपुरा – लूणावाड़ा के सरदार।
      4. भूरता ।
      5. कालेचा- जैसलमेर के अन्तर्गत बारू टेकरा और चाहिर में।
      6. लंघा- मुल्तान के निकट रहने वाले मुसलमान।
      7. तोगरू – पंचनद प्रदेश के निवासी मुसलमान।
      8. ब्रिकू – पंचनद क्षेत्र के निवासी मुसलमान।
      9. सोलके- दक्षिण में पाये जाते हैं।
      10. सिखरिया-सौराष्ट्र क्षेत्र में गिरनार में आबाद।
      11. राओका-जयपुर राज्य के अन्तर्गत टोड़ा क्षेत्र में आबाद है।
      12. राणकरा- मेवाड़ के अन्तर्गत देसूरी क्षेत्र में रहते हैं।
      13. खरूरा-मालवा में आलोट और जावरा के रहने वाले हैं।
      14. ताँतिया- चन्द्रभूड़ सकुनबरी।
      15. अलमेचा- इनका कोई विशेष स्थान नहीं है और
      16. कुलमोर-गुजरात के रहने वाले हैं।

       

10. प्रतिहार ( परिहार अथवा पड़िहार)- (राजस्थान के छत्तीस राजकुल) – अग्निवंशी परिहार वंश की ऐतिहासिक सामग्री भी बहुत कम मिल पाती है। राजस्थान के इतिहास में इस वंश का कोई भी उल्लेखनीय कार्य नहीं है और इस वंश के राजाओं ने बहुत समय तक दिल्ली के तोमरों और अजमेर के चौहानों के करद् सामन्तों के रूप में शासन किया।

परिहार वंश की प्राचीन राजधानी का नाम मंडौर था। संस्कृत में इसे मन्दोद्री कहते हैं। राठौड़ राजपूतों के उदय के बहुत समय पूर्व ही परिहार लोग मंडौर में प्रतिष्ठित हो चुके थे। यह नगर उस समय में मारवाड़ का एक सुप्रसिद्ध नगर था और आधुनिक जोधपुर से केवल पाँच मील की दूरी पर बसा हुआ है।

कन्नौज के राठौड़ राजा, कान्यकुब्ज से भागकर मंडौर के परिहारों के यहाँ आये, जहाँ उन्हें आश्रय प्राप्त हुआ। इस उपकार का बदला राठौड़ लोगों ने विश्वासघात के द्वारा दिया। चूंडा नामक राठौड़ राजा ने परिहारों के अन्तिम राजा का राज्य छीनकर अपना अधिकार कर लिया और मंडौर के दुर्ग पर राठौड़ों का झण्डा फहराने लगा। इस घटना के पूर्व परिहारों को मेवाड़ के राजाओं से निरन्तर संघर्ष करना पड़ा था। इस संघर्ष ने उनकी शक्ति को निर्बल बना दिया था। पहले परिहारों के राजा लोग ‘राणा’ कहलाते थे। गुहिलवंशी राजा राहुप ने मंडौर पर आक्रमण करके परिहारों को पराजित किया और उनसे ‘राणा’ की उपाधि छीन ली |

राजस्थान के छत्तीस राजकुल (36 राजकुल)
राजस्थान के छत्तीस राजकुल (36 राजकुल)

परिहार वंश के लोग सम्पूर्ण राजस्थान में बिखरे पड़े हैं। परन्तु उनके अधिकार में किसी स्वतन्त्र जागीर का उल्लेख नहीं मिला। कोहारी, सिन्धु और चम्बल नदियों का जहाँ पर संगम होता है, उस क्षेत्र में परिहार वंश के बहुत से लोग बसे हुए हैं और आसपास के अनेक गाँव उन्हीं के द्वारा बसाये गये हैं। परिहार वंश की बारह शाखाओं में इन्दा और सिन्धल ही विशेष प्रसिद्ध हैं। इन दोनों शाखाओं के कुछ लोग मारवाड़ की लूनी नदी के दोनों किनारों पर पाये जाते हैं।

11. चावड़ा अथवा चावरा (राजस्थान के छत्तीस राजकुल) – चावड़ा अथवा चावरा वंश के लोगों ने किसी समय में इस देश में प्रसिद्धि प्राप्त की थी, लेकिन अब उनका अस्तित्व मिटता जा रहा है। उनकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में हमें कोई जानकारी नहीं मिलती है। सूर्यवंशी तथा चन्द्रवंशियों के साथ उनका कोई सम्बन्ध नहीं है। ऐसी स्थिति में सीथियन लोगों से उनकी उत्पत्ति का अनुमान किया जा सकता है। परन्तु भट्टग्रन्थ से पता चलता है कि मेवाड़ के सूर्यवंशी वर्तमान राजवंशों के साथ इस वंश के लोगों का वैवाहिक सम्बन्ध था।

चावड़ों की राजधानी सौराष्ट्र के समुद्री किनारे पर स्थित दीव बन्दर के टापू में थी। इस बात के प्रमाण मिलते हैं कि दीव के राजा ने 746 ई. में अनहिलवाड़ा पट्टन की नींव डाली थी, आगे चलकर भारत के इस क्षेत्र का एक प्रमुख नगर बना। चावड़ा वंश के कुछ उल्लेख प्राचीन ग्रन्थों में उपलब्ध हैं। मेवाड़ के इतिहास से ज्ञात होता है कि मुसलमानों के पहले आक्रमण से चित्तौड़ को बचाने के लिए चतनसी नामक एक चावड़ा सरदार एक सेना के साथ युद्ध के लिये गया था।

महमूद गजनवी ने जब सौराष्ट्र पर आक्रमण कर उसकी राजधानी अनहिलवाड़ा को जीत लिया तो उसने वहाँ के राजा को सिंहासनच्युत कर उसके स्थान पर वहाँ के एक प्राचीन राजपरिवार के सदस्य को सिंहासन पर बैठाया, जिसका नाम दाबशिलिम था। प्राप्त लेखों से पता चलता है कि डाबी एक वंश की शाखा थी, जिसको बहुत-से लोग चावड़ा वंश के अन्तर्गत मानते हैं। कुछ उसे प्राचीन यदुवंश की शाखा मानते हैं। एक हजार वर्ष बीत जाने के बाद भी सूर्यवंशी राजाओं और सौराष्ट्र के चावड़ों तथा सौरों के सम्बन्ध कायम हैं। राणा परिवार राजस्थान में अत्यधिक सम्मानपूर्ण माना जाता है और चावड़ा वंश पतनोन्मुख अवस्था में है। फिर भी, चावड़ा वंश की लड़कियाँ राणा परिवारों में ब्याही जाती हैं।

राजकुमार अनहिलवाड़ा पट्टन के राजा भोज की पुत्री का विवाह जयसिंह के साथ हुआ था। भोज की मृत्यु के बाद जयसिंह का पुत्र मूलराज सोलंकी अनहिलवाड़ा के सिंहासन पर बैठा। यह बात संवत् 987 अर्थात् 930-931 ई. के आस-पास की है। उस समय अनहिलवाड़ा का स्थान भारत में ठीक उसी प्रकार का था, जिस प्रकार यूरोप में वेनिस का। अपनी समृद्धि के लिए यह नगर सम्पूर्ण भारत में विख्यात हो रहा था। चामुण्डराय के शासनकाल में महमूद गजनवी ने अनहिलवाड़ा पट्टन पर आक्रमण किया तथा लूट में विपुल धन-सम्पदा अपने साथ ले गया।

गजनवी और उसके उत्तराधिकारियों के बारम्बार आक्रमणों तथा लूट ने अनहिलवाड़ा को समृद्धिहीन बना दिया। फिर भी, सिद्धराज जयसिंह ने इस राज्य को पुनः समृद्ध एवं प्रतिष्ठित किया 17 वह एक प्रतापी राजा हुआ। कर्नाटक और हिमालय के बीच में बसे हुए 22 नगर एक समय सिद्धराज की छत्रछाया में थे। परन्तु सिद्धराज के उत्तराधिकारी उसके विस्तृत राज्य का सुख बहुत समय नहीं भोग सके।

सिद्धराज जयसिंह सोलंकी के बाद चौहानों का एक वंशज कुमारपाल अनहिलवाड़ा के सिंहासन पर बैठा। चौहानवंशी होते हुए भी कुमारपाल सोलंकी वंश का हो गया। उसके शासनकाल में मुसलमानों ने उसके राज्य में अनेक बार लूटमार की तथा उसके राजत्व को श्रीहीन बना दिया। कुमारपाल ने कठोर दुःख और मानसिक पीड़ा से अपने शरीर को छोड़ दिया। उसके बाद मूलदेव उसके सिंहासन पर बैठा। 1228 ई. में मूलदेव की मृत्यु के साथ ही अनहिलवाड़ा पट्टन के सोलंकी वंश का अवसान हो गया। इसके बाद सोलंकी वंश की बघेल 12 नामक एक शाखा के सरदार विशालदेव ने राज्य पर अधिकार कर पुनः शान्ति एवं
व्यवस्था कायम की।

सोलंकी वंश की सोलह शाखायें हैं, जो इस प्रकार हैं-

  • (1) बघेल-बघेलखण्ड के राजा, जिनकी राजधानी बांधूगढ़ थी। पीथापुर, थराद और अदलज के सरदार
  • (2) बेहिल – मेवाड़ के अधीन कल्याणपुर के जागीरदार।
  • (3) बीरपुरा – लूणावाड़ा के सरदार।
  • (4) भूरता ।
  • (5) कालेचा- जैसलमेर के अन्तर्गत बारू टेकरा और चाहिर में
  • (6) लंघा- मुल्तान के निकट रहने वाले मुसलमान
  • (7) तोगरू – पंचनद प्रदेश के निवासी मुसलमान।
  • (8) ब्रिकू – पंचनद क्षेत्र के निवासी मुसलमान।
  • (9) सोलके- दक्षिण में पाये जाते हैं।
  • (10) सिखरिया-सौराष्ट्र क्षेत्र में गिरनार में आबाद।
  • (11) राओका-जयपुर राज्य के अन्तर्गत टोड़ा क्षेत्र में आबाद है।
  • (12) राणकरा- मेवाड़ के अन्तर्गत देसूरी क्षेत्र में रहते हैं।
  • (13) खरूरा-मालवा में आलोट और जावरा के रहने वाले हैं।
  • (14) ताँतिया- चन्द्रभूड़ सकुनबरी
  • (15) अलमेचा- इनका कोई विशेष स्थान नहीं है और
  • (16) कुलमोर-गुजरात के रहने वाले हैं।

12. प्रतिहार ( परिहार अथवा पड़िहार)- (राजस्थान के छत्तीस राजकुल) – अग्निवंशी परिहार वंश की ऐतिहासिक सामग्री भी बहुत कम मिल पाती है। राजस्थान के इतिहास में इस वंश का कोई भी उल्लेखनीय कार्य नहीं है और इस वंश के राजाओं ने बहुत समय तक दिल्ली के तोमरों और अजमेर के चौहानों के करद् सामन्तों के रूप में शासन किया।

परिहार वंश की प्राचीन राजधानी का नाम मंडौर था। संस्कृत में इसे मन्दोद्री कहते हैं। राठौड़ राजपूतों के उदय के बहुत समय पूर्व ही परिहार लोग मंडौर में प्रतिष्ठित हो चुके थे। यह नगर उस समय में मारवाड़ का एक सुप्रसिद्ध नगर था और आधुनिक जोधपुर से केवल पाँच मील की दूरी पर बसा हुआ है।

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