मेवाड़ के प्रसिद्ध किला – कुम्भलगढ़ दुर्ग (Kumbhalgarh Fort)

Kheem Singh Bhati
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मेवाड़ के प्रसिद्ध किला – कुम्भलगढ़ दुर्ग (Kumbhalgarh Fort) : एक सुदृढ़ और विकट दुर्ग के रूप में कुम्भलगढ़ की अपनी निराली शान और पहचान है । यह किला न केवल मेवाड़ के अपितु समूचे राजस्थान के सबसे दुर्भेद्य दुर्गों की कोटि में रखा जाता है। मेवाड़ के यशस्वी शासक एवं अपने समय के महान् निर्माता महाराणा कुम्भा द्वारा दुर्ग-स्थापत्य के प्राचीन भारतीय आदर्शों के अनुरूप निर्मित कुम्भलगढ़ गिरि दुर्ग का उत्कृष्ट उदाहरण है।

उदयपुर से लगभग 60 मील तथा नाथद्वारा से अनुमानत: 25 मील उत्तर में अरावली पर्वतमाला के एक उत्तुङ्ग शिखर पर कुम्भलगढ़ का यह प्रसिद्ध दुर्ग अवस्थित है । इतिहास ग्रन्थ वीर विनोद के अनुसार इसकी चोटी समुद्रतल से 3568 फीट और नीचे की नाल से 700 फीट ऊँची है। मेवाड़ और मारवाड़ की सीमा पर सादड़ी गाँव के समीप स्थित कुम्भलगढ़ का सतत् युद्ध और संघर्ष के काल में विशेष सामरिक महत्त्व था।

ऐसा माना जाता है कि अनेक दुर्गों के निर्माता महाराणा कुम्भा ने गोड़वाड़ क्षेत्र की सुरक्षा के लिए इस विकट दुर्ग का निर्माण करवाया था । अरावली पर्वतमाला की विशाल पहाड़ियों और दुर्गम घाटियों से परिवेष्टित तथा सघन और बीहड़ वन से आवृत्त कुम्भलगढ़ दुर्ग संकटकाल में मेवाड़ के राजपरिवार का आश्रय स्थल रहा है। इस दुर्ग की सुदृढ़ प्राचीर ने निकटवर्ती पर्वतमालाओं को अपने में इस तरह समाहित कर लिया है कि दोनों एकाकार हो गये हैं।

किसी भी आक्रान्ता शत्रु के लिए कुम्भलगढ़ की मजबूत सुरक्षा व्यवस्था को भेदना लोहे के चने चबाना था। कुम्भलगढ़ प्रशस्ति में दुर्ग की समीपवर्ती पर्वत शृंखलाओं के बहुत सुन्दर और साहित्यिक नाम मिलते हैं यथा श्वेत, नील, हेमकूट, निषाद, हिमवत, गन्धमादन इत्यादि । इस प्रकार प्रकृति देवी ने कुम्भलगढ़ को जो नैसर्गिक सुरक्षा कवच प्रदान किया है वह अन्यत्र दुर्लभ है।

अपने स्थापत्य की इसी अनूठी विशेषता के कारण समुद्रतल से साढ़े तीन हजार फीट की ऊँचाई पर स्थित होते हुए भी यह किला हरी भरी वादियों के कारण दूर से नजर नहीं आता। इस किले की ऊँचाई के बारे में अबुल फजल ने लिखा है कि यह इतनी बुलन्दी पर बना हुआ है कि नीचे से ऊपर की ओर देखने पर सिर से पगड़ी गिर जाती है। मेवाड़ के इतिहास वीर विनोद’ के अनुसार महाराणा कुम्भा ने वि० संवत 1505 (1448 ई०) में कुम्भलगढ़ या कुम्भलमेरू दुर्ग की नींव रखी।

मेवाड़ के प्रसिद्ध किला - कुम्भलगढ़ दुर्ग (Kumbhalgarh Fort)
मेवाड़ के प्रसिद्ध किला – कुम्भलगढ़ दुर्ग (Kumbhalgarh Fort)

उपलब्ध साक्ष्यों के अनुसार दुर्ग निर्माण के लिए जिस स्थान को चुना गया, वहाँ मौर्य शासक सम्प्रति (अशोक का द्वितीय पुत्र) द्वारा निर्मित एक प्राचीन दुर्ग भग्न रूप में पहले से विद्यमान था । 2 सम्प्रति ने जैन धर्म स्वीकार कर लिया था। इस कारण वहाँ कुछ प्राचीन जैन मन्दिरों का भी निर्माण किया गया था। महाराणा कुम्भा ने इस प्राचीन दुर्ग के ध्वंसावशेषों पर नये दुर्ग की आधारशिला रखी। इस किले के निर्माण में लगभग दस वर्ष लगे तथा विक्रम संवत 1515 (1458 ई०) में इसका निर्माण कार्य सम्पन्न हुआ।

यह निर्माण कुम्भा के प्रमुख शिल्पी और वास्तुशास्त्र के प्रसिद्ध विद्वान मंडन की योजना और देखरेख में किया गया । इतिहासकार गौरीशंकर हीराचन्द ओझा के अनुसार दुर्ग का निर्माण पूरा होने के उपलक्ष्य में कुम्भा ने इस अवसर की स्मृति में विशेष सिक्के दलवाये जिन पर कुम्भलगढ़ दुर्ग का नाम अंकित किया गया ।

किले पर आक्रमण

अपनी स्थापना के समय से ही कुम्भलगढ़ शत्रुओं की आँख की किरकिरी बना रहा। उसे एक के बाद एक अनेक आक्रमणकारियों के भीषण प्रहार झेलने पड़े किन्तु एक अवसर पर मुगल बादशाह अकबर का सेनानायक शाहबाजखाँ इसे लेने में सफल रहा, अन्यथा यह दुर्ग प्राय: अविजित ही रहा।

अपने निर्माता महाराणा कुम्भा के शासनकाल में भी कुम्भलगढ़ पर जोरदार आक्रमण हुए। वीर विनोद ‘ का उल्लेख है कि विक्रम संवत 1499 (1442 ई०) में मांडू (मालवा) के सुलतान महमूद खलजी ने कुम्भा के हाथों अपनीशर्मनाक पराजय का प्रतिशोध लेने के लिए महाराणा की अनुपस्थिति का लाभ उठाकर कुम्भलगढ़ पर जोरदार आक्रमण किया तथा किले के बाहर केलवाड़ा गाँव में गढ़ी के भीतर विद्यमान बाणमाता के प्राचीन मन्दिर को अपना लक्ष्य बनाया।

महाराणा कुम्भा का विश्वस्त सामन्त दीपसिंह अपने साथी योद्धाओं के साथ लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुआ। कुम्भलगढ़ दुर्ग को लेने में असफल आक्रान्ता महमूद खलजी ने हताश अपनी खीज मिटाने के लिए बाणमाता की भव्य प्रतिमा को खण्डित किया तथा मांडू वापस लौट गया ।

मेवाड़ के प्रसिद्ध किला - कुम्भलगढ़ दुर्ग (Kumbhalgarh Fort)
मेवाड़ के प्रसिद्ध किला – कुम्भलगढ़ दुर्ग (Kumbhalgarh Fort)

तदुपरांत गुजरात के सुलतान कुतुबुद्दीन’ ने 1457 ई० में एक विशाल सेना के साथ मेवाड़ पर प्रयाण किया तथा कुम्भलगढ़ दुर्ग को घेर लिया। भीषण युद्ध के बावजूद वह दुर्ग लेने में असफल रहा तथा वापस लौट गया। तारीख ए फरिश्ता में सुलतान कुतुबुद्दीन द्वारा महाराणा से विपुल मात्रा में स्वर्ण तथा रत्नाभूषण, हाथी आदि पेशकश में लेने का उल्लेख है किन्तु इस घटना की अन्य साक्ष्यों से पुष्टि नहीं होती ।

यह नियति की कैसी क्रूर विडम्बना है कि मेवाड़ के यशस्वी महाराणा कुम्भा की उन्हीं के द्वारा निर्मित कुम्भलगढ़ दुर्ग में उनके ज्येष्ठ राजकुमार ऊदा (उदयकरण) द्वारा धोखे से पीछे से वार कर हत्या कर दी गई। पितृघाती उदयकरण को उसके सामन्तों ने शिकार के बहाने कुम्भलगढ़ से बाहर भेज दिया तथा रायमल महाराणा बना ।

उक्त प्रसंग का यह दोहा प्रसिद्ध है –

ऊदा बाप न मारजे लिखियो लाभै राज ।
देस बसायो रायमल, सरयो न एको काज ।।

महाराणा रायमल के कुंवर पृथ्वीराज और संग्रामसिंह (राणा सांगा) का बाल्यकाल कुम्भलगढ़ दुर्ग में ही व्यतीत हुआ। इनमें कुंवर पृथ्वीराज अपनी तेज धावक शक्ति के ‘इतिहास में उड़णा पृथ्वीराज’ के नाम से प्रसिद्ध है। यह कुंवर पृथ्वीराज अपने बहनोई सिरोही के राव जगमाल के षड्यन्त्र का शिकार हुआ तथा उसके द्वारा दी गई विषाक्त खाद्य सामग्री के सेवन से कुम्भलगढ़ के पर्वतांचल में सिरोही से वापस लौटते हुए काल-कवलित हो गया जिसकी स्मारक छतरी किले की तलहटी में आज भी विद्यमान है।

उसकी दूसरी छतरी किले के भीतर मामादेव कुण्ड के पास उसके दाह संस्कार स्थल पर बनी है। राणा सांगा की मृत्यु के अनन्तर मेवाड़ राजपरिवार की आन्तरिक कलह के घटनाक्रम में स्वामिभक्त पन्ना धाय ने अपने पुत्र की बलि देकर उदयसिंह को बनवीर (पासवान पुत्र) के कोप से बचाया व कुम्भलगढ़ में उसका लालन पालन किया। आगे चलकर इसी दुर्ग में उदयसिंह का मेवाड़ के महाराणा के रूप में राज्याभिषेक हुआ।

मेवाड़ के प्रसिद्ध किला - कुम्भलगढ़ दुर्ग (Kumbhalgarh Fort)
मेवाड़ के प्रसिद्ध किला – कुम्भलगढ़ दुर्ग (Kumbhalgarh Fort)

1537 ई० में यहीं से प्रयाण कर उदयसिंह ने बनवीर को परास्त कर चित्तौड़ पर वापस अपना अधिकार स्थापित किया। कुम्भलगढ़ दुर्ग में वीरशिरोमणि महाराणा प्रताप का जन्म हुआ था। वहाँ राजप्रासाद के रनिवास में वह साल (कक्ष या महल) जहाँ प्रताप का जन्म हुआ आज भी विद्यमान है 12 तदनन्तर गोगुन्दा में अपने राजतिलक के पश्चात् महाराणा प्रताप कुम्भलगढ़ आ गये तथा वहीं से मेवाड़ का शासन करने लगे।

1576 ई० में जब कुंवर मानसिंह ने विशाल मुगल सेना के साथ प्रताप पर चढ़ाई की तब महाराणा प्रताप कुम्भलगढ़ में ही लड़ाई की तैयारी कर हल्दीघाटी की ओर बढ़े। हल्दीघाटी युद्ध में अपनी पराजय के बाद महाराणा प्रताप ने कुम्भलगढ़ पहुँचकर अपनी खोई हुई सैन्य को पुनः संगठित किया और मुगलों से युद्ध की तैयारी की।

इस पर बादशाह अकबर ने अपने सेनानायक शाहबाज खाँ को एक विशाल सेना के साथ कुम्भलगढ़ दुर्ग पर अधिकार करने के लिए भेजा। सफलता की कोई आशा न देख महाराणा प्रताप अपने विश्वस्त योद्धा राव भाण सोनगरा को दुर्ग की रक्षा का भार सौंपकर सुरक्षित स्थान पर चले गये। मुगल सेना द्वारा किले की इस प्रकार घेरेबन्दी की गयी जिससे रसद पहुँचना कठिन हो गया। फलस्वरूप किले का दरवाजा खोलकर राव भाग सोनगरा व अन्य योद्धा मुगल सेना के साथ वीरतापूर्वक युद्ध करते हुए काम आये । इस आशय का एक प्राचीन दोहा उल्लेखनीय है-

कुम्भलगढ़ रा कांगरी, रहि कुण कुण राण ।
इक सिंहावत सूजड़ो इक सोनगिरो भाण ।।

इस प्रकार शाहबाज खाँ ने 1578 ई० में कुम्भलगढ़ पर मुगलों का आधिपत्य स्थापित किया। लेकिन अकबर द्वारा अपने सेनानायक शाहबाजखाँ को बंगाल व अन्यत्र युद्ध अभियानों में भेज दिये जाने के कारण दुर्गरक्षक शाही सैनिकों की कमजोर स्थिति का लाभ उठाकर महाराणा प्रताप ने कुम्भलमेर दुर्ग वापस ले लिया तथा तब से स्वतन्त्रता प्राप्ति तक यह मेवाड़ के शासकों के पास ही रहा । इस तरह कुम्भलगढ़ ने अनेक आक्रान्ताओं के भीषण प्रहार झेले हैं।

स्थापत्य की दृष्टि से अनूठा

मेवाड़ और मारवाड़ की सीमा पर अवस्थित कुम्भलगढ़ अपने सामरिक महत्त्व और अभेद्य स्वरूप के कारण गिरि दुर्ग का उत्कृष्ट उदाहरण है। जैसाकि प्रसिद्ध इतिहासकार हबिलास शारदा ने लिखा –

The highest monument of Kumbha’s military and constructive genius, however is the wonderful fortress of Kumbhalgarh or Kumbhalmer, second to none in strategical importance or historical renown. It was to this impregnable fortress that the Maharanas of Mewar always turned their eyes, when Udaipur became unsafe and Chittor untenable.

It is to Kumbhalmer that Maharanas from Udai Singh to Raj Singh, sent the royal households, when the entire might of the Mughal Empire was used for the destruction of their country. This strong hold, the ever memorable Kumbhalgarh, provided shelter to those who were dear to the noble defenders of their fatherland.

इतिहासकार कर्नल टॉड ने कुम्भलगढ़ के दुर्भेद्य स्वरूप की प्रशंसा करते हुए उसे चित्तौड़ के बाद दूसरे स्थान पर रखा है-

Inferior only to Chittor is that stupendous work called after him (Kumbha ) Koombhomer the hill of Khoombho’, fromitsnatural position, and the works he raised, impregnable to a native army.

वीर विनोद में भी कहा गया है कि चित्तौड़ के बाद दूसरे नम्बर पर कुम्भलगढ़ आता है। नि:संदेह वीरता और बलिदान की रोमांचक गौरव गाथाओं के कारण चित्तौड़ का स्थान इतिहास में सर्वोपरि है लेकिन अपने अनूठे स्थापत्य और नैसर्गिक सुरक्षा कवच की दृष्टि से कुम्भलगढ़ बेजोड़ है तथा अपना कोई सानी नहीं रखता।

एक समतल मैदान में विशाल पहाड़ी पर स्थितं चित्तौड़ का किला शत्रु सेना द्वारा आसानी से घेरा जा सकता था लेकिन अनियमित आकार की पर्वत शृंखलाओं से एकरूप कुम्भलगढ़ दुर्ग की प्राचीर को भेद पाना या उसकी थाह लेना अत्यन्त कठिन था। जैसाकि हरबिलास शारदा ने लिखा है-

Kumbhalgarh is defended by a series of walls with battlements and bastions built on the slopes of a hill. ………. The formidable bastions in the battlemented wall of Kumbhalgarh are peculiar in shape and are so built that the enemy may not be able to scale them by means of ladders.

कई मील लम्बी उन्नत और विशाल प्राचीर जिस पर तीन चार घुड़सवार एक साथ चल सकें, प्राचीर के मध्य आनुपातिक दूरी पर बनी विशाल बुजें, ऊँचे और अवरोधक प्रवेश द्वार कुम्भलगढ़ के किले को दुर्भेद्य स्वरूप प्रदान करते हैं। अपनी इस विशेषता के कारण कुम्भलगढ़ का दोहरा महत्त्व था । जहाँ एक ओर यह दुर्ग सैनिक अभियानों के संचालन की दृष्टि से उपयोगी था वहीं विपत्ति के समय शरणस्थल के रूप में भी उपयुक्त था।

मेवाड़ के प्रसिद्ध किला - कुम्भलगढ़ दुर्ग (Kumbhalgarh Fort)
मेवाड़ के प्रसिद्ध किला – कुम्भलगढ़ दुर्ग (Kumbhalgarh Fort)

कुम्भलगढ़ के स्थापत्य में उसकी यह विशेषता किले के भीतर बने लघु दुर्ग याआन्तरिक दुर्ग कटारगढ़ के रूप में प्रकट हुई है। कुम्भलगढ़ दुर्ग के पर्वतांचल से अनेक विकट पहाड़ी मार्ग या दर्रे मारवाड़, मेवाड़ तथा अन्य स्थानों की ओर गये हैं जिनका निरन्तर युद्ध और संघर्ष के काल में विशेष सामरिक महत्त्व था। इनमें किले के उत्तर की तरफ पैदल रास्ता टूटया का होड़ा, पूर्व की तरफ हाथिया गुढ़ा की नाल में उतरने का रास्ता दाणीवटा कहलाता है। यह नाल केलवाड़ा के उत्तर से मारवाड़ की ओर गयी है।

किले के पश्चिम की तरफ का रास्ता टीडाबारी कहलाता है जिसमें थोड़ी दूर पर किले की तलहटी में महाराणा रायमल के कुंवर पृथ्वीराज की छतरी बनी है। इसके अलावा केलवाड़ा से लगभग दस मील दूर चार भुजा से मारवाड़ की ओर जाने के लिए देसूरी की नाल एक अपेक्षाकृत चौड़ा मार्ग है।

कुम्भलगढ़ दुर्ग में जाने के लिए केलवाड़ा कस्बे से (जहाँ बाणमाता का प्रसिद्ध मन्दिर है) पश्चिम में लगभग 700 फीट ऊँची नाल चढ़ने पर किले का पहला दरवाजा आरेठपोल’ आता है। यहाँ से लगभग एक मील की दूरी तय करने पर ‘हल्लापोल’ नामक दरवाजा है। उक्त प्रवेश द्वार से थोड़ा आगे चलने पर हनुमानपोल दरवाजा है। वीर विनोद के अनुसार इस दरवाजे पर प्रतिष्ठापित हनुमान प्रतिमा महाराणा कुम्भा नागौर से विजय कर लाये थे।

तत्पश्चात् किले का विजयपोल दरवाजा आता है जहाँ अनेक प्राचीन भवनों और देवमन्दिरों के भग्नावशेष काल के क्रूर प्रवाह के मूक साक्षी हैं। यहाँ पर नीलकंठ महादेव का मन्दिर तथा यज्ञ की एक प्राचीन वेदी बनी है जिसके विषय में अनुश्रुति है कि दुर्ग की स्थापना के समय यहाँ यज्ञ किया गया था। इसी स्थान से किले के भीतर पर्वत शिखर पर बने लघु दुर्ग’ कटारगढ़’ की चढ़ाई प्रारंभ होती है।

भैरवपोल, नीबूपोल, चौगानपोल, पागड़ापोल और गणेशपोल कटारगढ़ के मुख्य प्रवेश द्वार हैं। इस लघु दुर्ग या गढ़ी के प्रमुख भवनों में महाराणा के महल, देवी का प्राचीन मन्दिर, बादल महल, झाली रानी का मालिया (महल) प्रमुख हैं। कर्नल टॉड ने कुम्भलगढ़ दुर्ग से सम्बन्धित एक रोचक प्रणय कथा का उल्लेख किया है। इसके अनुसार महाराणा कुम्भा झालावाड़ की राजकुमारी को जो मंडोर की मंगेतर थी शक्ति के बल पर जबरन विवाह लाये थे । यथा-

Koombho mixed gallantry with his warlike pursuits. He carried off the daughter of the chief of Jhalawar, who had been betrothed to the prince of Mundore; this renewed the old feud, and the Rathore made many attempts to redeem his affianced bride.

His humiliation was insupportable, when through the purified atmosphere of the periodical rains the towers of Khoombhomer became visible from the castle of Mundore, and the light radiated from the chamber of the fair through the gloom of a night in Bhadoon to the hall where he brooded over his sorrows……Night lamp was an understood signal of the Jhalani….. Though he cut his way through the Jhal, he could not reach the Jhalani.

कटारगढ़ के उत्तर में नीचे वाली भूमि में झालीबाव (बावड़ी) तथा मामादेव का कुण्ड है। यह कुण्ड महाराणा कुम्भा की उनके ज्येष्ठ पुत्र राजकुमार ऊदा द्वारा जघन्य हत्या की लोमहर्षक घटना का साक्षी है। इस कुण्ड से थोड़ी दूर पर कुम्भा द्वारा निर्मित कुम्भास्वामी नामक विष्णु मन्दिर है। उक्त मन्दिर के गवाक्ष में अत्यन्त कलात्मक और सजीव प्रतिमायें प्रतिष्ठापित हैं। इस मन्दिर के प्रांगण से बाहर महाराणा कुम्भा द्वारा पाषाण शिलाओं पर अपनी प्रशस्ति उत्कीर्ण करवायी । सम्प्रति ये शिलाएँ उदयपुर संग्रहालय में रखी हैं ।

सारत: कुम्भलगढ़ दुर्ग अतीत की एक बहुमूल्य ऐतिहासिक धरोहर संजोये हुए है।

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