गागरोण दुर्ग -योद्धाओं के शौर्य और पराक्रम तथा वीरांगनाओं के जौहर का प्रतीक

Kheem Singh Bhati
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गागरोण दुर्ग (Gagron Fort) – गागरोण का किला दक्षिण पूर्वी राजस्थान के सबसे प्राचीन और विकट दुर्गों में से एक है। कोटा से यह लगभग 60 कि०मी० तथा झालावाड़ से 4 कि०मी० की दूरी पर अवस्थित है। गागरोण व उसका निकटवर्ती प्रदेश शस्य श्यामल मालवा अंचल का भाग है तथा बहुत उर्वर और नैसर्गिक सौन्दर्य से सम्पन्न है।

यह ख्यातनाम दुर्ग अरावली पर्वतमाला की एक सुदृढ़ चट्टान पर कालीसिन्ध और आहू नदियों के संगम-स्थल पर स्थित है तथा तीन तरफ से उक्त नदियों से घिरा होने के कारण हमारे प्राचीन शास्त्रों में वर्णित जल दुर्ग की कोटि में आता है। गागरोण का भव्य दुर्ग खींची चौहानों का प्रमुख संस्थान रहा है जिसके साथ योद्धाओं के शौर्य और पराक्रम तथा वीरांगनाओं के जौहर की गाथा जुड़ी हुई है ।

गागरोण दुर्ग -योद्धाओं के शौर्य और पराक्रम तथा वीरांगनाओं के जौहर का प्रतीक
गागरोण दुर्ग -योद्धाओं के शौर्य और पराक्रम तथा वीरांगनाओं के जौहर का प्रतीक

गागरोण एक ऐतिहासिक और पुरातात्त्विक महत्त्व का स्थान है। यहाँ से पुरातत्ववेत्ताओं को ऐसे अनेक पाषाणकालीन उपकरण मिले हैं जो सभ्यता के आदिम काल पर प्रकाश डालते हैं। प्रागैतिहासिक मानव ने संभवत: इन्हीं पर्वत श्रेणियों से सुरक्षित वन्य भू-भाग को अपना विचरण क्षेत्र बनाया होगा। पौराणिक मान्यता इसका सम्बन्ध भगवान कृष्ण के पुरोहित गर्गाचारी से जोड़ती है जिनका यह निवास स्थान था तो कुछ विद्वान प्राचीन ग्रन्थों में उल्लेखित ‘गर्गराटपुर’ के रूप में इसकी पहचान करते हैं। ‘इम्पीरीयल गजेटियर’ (राजस्थान) में गागरोण की प्राचीनता को प्रकट करने वाली पौराणिक मान्यताओं का उल्लेख हुआ है –

“The village (Gagron) is believed to be very ancient and it is said to have been called ‘Gargashtar’ after Gargachari the purohit of Shri Krishna who lived here. Others identify it as the Gargaratpur of ancient writings, from which, the Hindu astronomer Garga calculated longitude.”

ऐतिहासिक परम्परा के अनुसार गागरोण पर पहले डोड (परमार) राजपूतों का अधिकार था , जिन्होंने इस दुर्ग का निर्माण करवाया। उनके नाम पर यह डोडगढ़ या धूलरगढ़ कहलाया । तत्पश्चात् यह दुर्ग खींची चौहानों के अधिकार में आ गया । ‘चौहान कुल कल्पद्रुम’ के अनुसार गागरोण के खींची राजवंश का संस्थापक देवनसिंह (उर्फ धारू) था, जिसने बीजलदेव नामक डोड शासक को (जो उसका बहनोई था) मारकर धूलरगढ़ पर अधिकार कर लिया तथा उसका नाम गागरोण रखा ।’ इस घटना का समय 12 वीं शती का उतरार्द्ध माना जाता है ।

गागरोण के खींची राजवंश में एक से बढ़कर एक वीर और प्रतापी शासक हुए । सन् 1303 में यहाँ के राजा जैतसिंह के शासनकाल में सुलतान अलाउद्दीन खिलजी ने गागरोण दुर्ग (Gagron Fort) पर आक्रमण किया था परन्तु जैतसिंह ने उसका सफलतापूर्वक प्रतिरोध किया। उसके शासनकाल में खुरासान से प्रसिद्ध सूफी सन्त हमीदुद्दीन चिश्ती गागरोण आये जिनकी समाधि वहाँ विद्यमान है।

सूफी सन्त ‘मिट्ठे साहब’ के नाम से लोक में पूजे जाते हैं। गागरोण के खींची राजवंश में जैतसिंह के तीन पीढ़ी बाद पीपाराव एक भक्तिपरायण नरेश हुए। वे दिल्ली के सुलतान फीरोजशाह तुगलक के समकालीन थे। अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में पीपाजी ने राज्यवैभव त्यागकर प्रसिद्ध सन्त रामानन्द का शिष्यत्व स्वीकार कर लिया था। गागरोण दुर्ग (Gagron Fort) के पार्श्व में कालीसिन्ध और आहू नदियों के संगम के समीप ही उनकी छतरी बनी हुई है जहाँ उनकी पुण्यतिथि पर हर वर्ष मेला भरता।

गागरोण दुर्ग -योद्धाओं के शौर्य और पराक्रम तथा वीरांगनाओं के जौहर का प्रतीक
गागरोण दुर्ग -योद्धाओं के शौर्य और पराक्रम तथा वीरांगनाओं के जौहर का प्रतीक

परन्तु गागरोण (गागरोण दुर्ग) (Gagron Fort) का सर्वाधिक ख्यातनाम और पराक्रमी शासक भोज का पुत्र अचलदास हुआ, जिसके शासनकाल में गागरोण का पहला साका हुआ । यह अचलदास मेवाड़ के महाराणा मोकल का दामाद था। उसकी पटरानी लालां मेवाड़ी मोकल की बेटी और कुम्भा की बहिन थी।

सन् 1423 में मांडू के सुलतान अलपखाँ गोरी (उर्फ होशंगशाह) ने एक विशाल सेना के साथ गागरोण दुर्ग (Gagron Fort) पर आक्रमण कर किले को घेर लिया। मानधनी अचलदास ने आत्मसमर्पण करने की अपेक्षा तिलतिल असिधारा से खण्डित होना उचित समझा । फलत: भीषण संग्राम हुआ जिसमें ने अपने बंधु बांधवों और योद्धाओं सहित शत्रु से जूझते हुए वीरगति प्राप्त की तथा उसकी रानियों व दुर्ग की ललनाओं (वचनिका के अनुसार चालीस सहस्त्र) ने अपने को जौहर की ज्वाला में होम दिया ।

अचलदास के इस दुर्धर्ष संग्राम का उसके राज्याश्रित एवं समकालीन कवि शिवदास गाडण ने लगभग 574 वर्षपूर्वरचित अपनी काव्यकृति ‘अचलदास खींची री वचनिका में ओजस्वी वर्णन किया है जो डिंगल की आदि वचनिका होने के साथ ही उक्त युद्ध पर प्रकाश डालने वाली एकमात्र समसामयिक रचना है। इस युद्ध में वीर अचलदास के अद्भुत शौर्य और त्याग पर मुग्ध हो कवि ने कहा है –

भोज तणै भुजबलां असुर दहवट्टा कीया ।
अचलदास गागरुंण कोट माथा सूं दीया ।।
नमै न खीची नीम, गढ़पति गढ़ मेल्ही करी ।
उवह हुवै उपराविठउ, सींध जाइ तजि सीम ।।

अचलदास खींची री वचनिका में युद्ध के घटनाक्रम का संक्षिप्त किन्तु सजीव वर्णन हुआ है। वचनिका के अनुसार यह युद्ध (महाष्टमी से दूसरी अष्टमी तक अर्थात् 13 सितम्बर 1423 ई० से 27 सितम्बर 1423 तक) लगभग एक पखवाड़े चला था । अचलदास ने वंश-रक्षा के लिए अपने ज्येष्ठ पुत्र पाल्हणसी को दुर्ग से पलायन करने हेतु प्रेरित किया ।

ऐसा माना जाता है कि वचनिका का रचयिता गाडण शिवदास भी उसके साथ ही दुर्ग से बाहर निकल गया था । गागरोण का यह युद्ध अपनी असाधारणता के कारण लोक में कितना विख्यात हो गया था, इसका अनुमान परवर्ती काव्यों में हुए इस उल्लेख से लगाया जा सकता है जिसमें उक्त युद्ध की तुलना रणथम्भौर, जालौर और चित्तौड़ सहित अन्य इतिहास प्रसिद्ध साकों से की गयी है । गजगुणरूपक बंध का रचयिता गाडण केशवदास लिखता है –

जिम राजा ‘हमीर’ कियो साको रिणथं भर ।
राइसे णगढ़ जेम, कियो पूरणमलतूअर ।।
अचलदास गागुरण रैण ‘मूल’ जैसाणे ।
‘सोम’ मंडोवर कियो, कियो सातल सिविया ।।
चीतौड़ कियो जैमल चडे, पातल पावे द्रुग्ग सिरि ।
पट्टाण’ कते ‘कान्हड़ पर्छ, साको जिम गढ़ सोनगिरि ।।

गागरोण का दूसरा साका – गागरोण दुर्ग (Gagron Fort)

गागरोण दुर्ग (Gagron Fort) को अधिकृत करने के बाद होशंगशाह ने इसे अपने बड़े शाहजादे गजनीखाँ को सौंप दिया जिसने इस दुर्ग का विस्तार एवं परिवर्द्धन करवाया तथा उसे दुर्भेद्य रूप प्रदान किया। होशंगशाह की मृत्यु के बाद गजनीखाँ मांडू का सुलतान बना के पर उसका शासनकालं बहुत कम रहा । तत्पश्चात महमूद खलजी प्रथम मांडू का सुल्तान बना तो गागरोण का किला (गागरोण दुर्ग) (Gagron Fort) उसके अधिकार में चला गया।

महमूद खलजी ने पहले बदरखाँ को और उसकी मृत्यु के बाद दिलशाद को गागरोण का दुर्गाध्यक्ष नियुक्त किया। इधर पाल्हणसी अपने खोये हुए पैतृक राज्य को पुनः प्राप्त करने के लिए सामरिक तैयारी करता हुआ अनुकूल अवसर की प्रतीक्षा करने लगा। अपने मामा राणा कुम्भा की सैन्य सहायता से उसने 1437 ई० में गागरोण के दुर्गाध्यक्ष दिलशाद को परास्त कर किले पर अपना अधिकार कर लिया।

इस सम्बन्ध में कुम्भलगढ़ प्रशस्ति में उल्लेख है कि महाराणा कुम्भा ने मांडू अभियान से वापस लौटते हुए गागरोण को हस्तगत कर अपने भानजे पाल्हणसी को सौंप दिया । पाल्हणसी का गागरोण दुर्ग (Gagron Fort) पर लगभग सात वर्ष तक अधिकार रहा । उक्त अवधि में पिछले अनुभव से प्रेरणा लेते हुए उसने दुर्ग की रक्षा व्यवस्था को सुदृढ़ बनाया तथा संभावित विपत्ति को ध्यान में रखकर किले में रसद आदि का संचय किया ।
1444 ई० में महमूद खलजी ने गागरोण पर एक विशाल सेना के साथ जोरदार आक्रमण किया । तब गागरोण का दूसरा साका हुआ । गागरोण के इस दूसरे साके का मआसिरे महमूदशाही में विशद और सटीक वर्णन हुआ है जो समसामयिक व प्रत्यक्षदृष्ट होने का आभास देता है । हालांकि अन्य फारसी तवारीखों की भाँति मुस्लिम शासकों के प्रति किंचित पक्षपातपूर्ण होने पर भी यह उक्त युद्ध विषयक जानकारी का एक प्रमुख और प्रामाणिक स्रोत है।

गागरोण दुर्ग -योद्धाओं के शौर्य और पराक्रम तथा वीरांगनाओं के जौहर का प्रतीक
गागरोण दुर्ग -योद्धाओं के शौर्य और पराक्रम तथा वीरांगनाओं के जौहर का प्रतीक

मआसिरे महमूदशाही के अनुसार “सुल्तान महमूद खलजी अपने अमीर उमरावों और 29 हाथियों सहित स्वयं कालीसिन्ध नदी के तट पर आ उतरा और अपनी विशाल सेना से दुर्ग को चारों ओर से घेर लिया । पाल्हणसी ने दुर्ग की रक्षा की पिछले सात वर्षों से पूरी पूरी तैयारी कर रखी थी। फिर भी उसने मेवाड़ के तत्कालीन महाराणा एवं अपने मामा राणा कुम्भा से सैनिक सहायता की प्रार्थना की, जिस पर कुंभा ने धीरा (धीरजदेव) के नेतृत्व में आयुधों व अन्य सामग्री से सज्जित एक सैन्य दल उसके साथ भेज दिया। दोनों ओर से भीषण संग्राम हुआ, जो लगातार सात दिन तक चलता रहा। इस युद्ध में राजपूत अत्यधिक संख्या में मारे गये, फिर भी वे दुर्ग की रक्षा में अन्तिम क्षण तक चट्टान की तरह अविचल डटे रहे। ”

युद्ध के सातवें दिन सेनापति धीरा अपने योद्धाओं सहित वीरता पूर्वक लड़ते हुए मारा गया, जिससे पाल्हणसी की हिम्मत टूट गयी। इधर महमूद खलजी के सैनिकों ने दुर्ग में जल पहुँचाने के मार्ग को अवरुद्ध कर दिया। फलत: विजय की कोई आशा न देख पाल्हणसी अपने कुछ चुने हुए विश्वस्त सैनिकों के साथ रात्रि के अंधेरे में दुर्ग से बाहर पलायन कर गया । परन्तु जंगल में भटकते हुए उसका पाला बर्बर भीलों के एक गिरोह से पड़ गया, जिसने पाल्हणसी सहित उसके दल के प्रत्येक सैनिक का वध कर दिया।

उधर धीरा की मृत्यु और पाल्हणसी के पलायन से दुर्गवासियों में भय छा गया । अत: दुर्ग में शेष रहे योद्धा केसरिया वस्त्र धारण कर शत्रु सेना पर टूट पड़े तथा वीरांगनाओं ने जौहर का अनुष्ठान किया। विजयी सुलतान ने कुछ अरसे बाद दुर्ग में एक ओर कोट का निर्माण करवाया तथा उसका नाम ‘मुस्तफाबाद’ रखा ।’ तदनन्तर गागरोण दुर्ग (Gagron Fort) पर मेवाड़ के राणा सांगा ने अपना आधिपत्य स्थापित किया तथा इसे अपने विश्वासपात्र मेदिनीराय को सौंप दिया।

मांडू के सुलतान महमूद खलजी द्वितीय ने 1518-19 ई० के लगभग एक विशाल सेना के साथ गागरोण दुर्ग (Gagron Fort) को घेर लिया। इस पर राणा सांगा ने तत्काल मेदिनीराय को सैन्य सहायता भेजी, जिससे महमूद खलजी को किले का घेरा उठाने के लिए विवश होना पड़ा। इसके बाद गुजरात के शासक बहादुरशाह ने चित्तौड़ पर अभियान करने से पहले 1532 ई० के लगभग गागरोण दुर्ग पर अधिकार कर लिया। तत्पश्चात् शेरशाह सूरी जब बादशाह बना तो मालवा के अधिकांश भू भाग सहित गागरोण पर उसका अधिकार हो गया।

एक अवसर पर ग्वालियर से रवाना होकर शेरशाह गागरोण आया था और यहाँ रायसेन के पूरणमल ने उससे भेंट की थी । तदुपरान्त गागरोण (गागरोण दुर्ग) (Gagron Fort) पर मुगलों का आधिपत्य हो गया। बादशाह अकबर सन् 1561 में आधमखाँ के विद्रोह को दबाने के सिलसिले में मालवा गया तब उसकी सेना ने गागरोण दुर्ग पर घेरा डाला। उस समय गागरोण का दुर्गाध्यक्ष मांडू के सुलतान बाजबहादुर का कोई सामन्त था, जिसने अकबर जैसे शक्तिशाली शासक से युद्ध करना व्यर्थ समझकर किला उसके हवाले कर दिया।

इस बीच, खींची चौहानों ने अपने पैतृक संस्थान गागरोण दुर्ग (Gagron Fort) पर पुनः अधिकार स्थापित करने हेतु रायमल खींची के नेतृत्व में अपना संघर्ष जारी रखा किन्तु मुगल सेनानायक आम्बेर के कुंवर मानसिंह और उनके भतीजे राव खंगार ने उनके इरादे विफल कर दिये। 1567 ई० में अपने चित्तौड़ अभियान के लिए जाते समय बादशाह अकबर कुछ दिनों के लिए गागरोण में ठहरा था, जहाँ अबुल फजल के बड़े भाई फैजी ने उससे भेंट की थी ।

अकबर ने गागरोण दुर्ग (Gagron Fort) बीकानेर के राजा कल्याणमल के पुत्र पृथ्वीराज को जागीर में दे दिया जो एक भक्त कवि और वीर योद्धा था। विद्वानों का अनुमान है कि इस पृथ्वीराज ने अपना प्रसिद्ध ग्रंथ वेलिक्रिसन रूक्मणी री गागरोण में रहकर लिखा । कारण, वेलि का प्रकृति वर्णन गागरोण की नैसर्गिक सुषमा और सुरम्य परिवेश से सादृश्य रखता है। मुगलकाल में गागरोण का सामरिक महत्त्व इस तथ्य से प्रकट है कि आईने अकबरी में गागरोण का उल्लेख मालवा सूबे की एक सरकार के रूप में किया गया है ।

तत्पश्चात जहाँगीर ने इसे बूंदी के राव रतन हाड़ा को जागीर में इनायत कर दिया । शाहजहाँ के शासनकाल में जब कोटा में हाड़ाओं का पृथक् राज्य स्थापित हुआ तब गागरोण कोटा के राव मुकुन्दसिंह को इनायत हुआ तथा फिर स्वतन्त्रता प्राप्ति तक कोटा के हाड़ा नरेशों के अधिकार में रहा, जिन्होंने इस प्राचीन दुर्ग का जीर्णोद्धार एवं विस्तार करवाया ।

नैणसी की ख्यात के अनुसार राव मुकुन्दसिंह ने दुर्ग में अनेक महल इत्यादि बनवाकर उसे नये सिरे से सजाया संवारा ।’ राव दुर्जनसाल ने किले के भीतर भगवान मधुसूदन का भव्य मन्दिर बनवाया । तत्कालीन कोटा रियासत के सेनापति जालिमसिंह झाला ने गागरोण के किले की मरहठों, पिण्डारियों तथा अन्य संभावित आक्रान्ताओं से सुरक्षा के लिए अनेक भवनों के अलावा एक विशाल परकोटे का निर्माण करवाया, जो उन्हीं के नाम पर जालिमकोट कहलाता है। इस दुर्ग में कोटा रियासत के सिक्के ढालने के लिए टकसाल भी स्थापित की गई। गागरोण के इस किले का उपयोग राजनैतिक कैदियों को नजरबन्द रखने के लिए भी किया जाता रहा ।

गागरोण दुर्ग -योद्धाओं के शौर्य और पराक्रम तथा वीरांगनाओं के जौहर का प्रतीक
गागरोण दुर्ग -योद्धाओं के शौर्य और पराक्रम तथा वीरांगनाओं के जौहर का प्रतीक

सारतः गागरोण दुर्ग (Gagron Fort) ने इतिहास के अनेक झटके झेले हैं । अनेक राज्यलक्ष्मियों के उत्थान और पतन का यह मूक साक्षी है ।

किले का स्थापत्य – गागरोण दुर्ग (Gagron Fort)

जहाँ तक गागरोण दुर्ग (Gagron Fort) के अपने स्थापत्य, निर्माण तथा गौरव गरिमा का प्रश्न है यह दुर्ग आज भी न केवल हाड़ौती अंचल में अपितु समूचे राजस्थान में बेजोड़ माना जाता है । गागरोण दुर्ग की सबसे बड़ी विशेषता है-इसकी नैसर्गिक सुरक्षा व्यवस्था । ऊँची पर्वतमालाओं की अभेद्य दीवारों, सतत प्रवहमान नदियों और सघन मेवाड़ वन ने गागरोण को प्राकृतिक सुरक्षा कवच प्रदान किया है। मालवा, गुजरात, और हाड़ौती का सीमावर्ती दुर्ग होने से गागरोण का सामरिक दृष्टि से बड़ा महत्त्व था।

गागरोण के किले (गागरोण दुर्ग) (Gagron Fort) को अपनी इस विशिष्ट सामरिक स्थिति के कारण आक्रान्ताओं के भीषण प्रहार झेलने पड़े। यह दुर्ग अपने अनूठे स्थापत्य के कारण भी उत्कृष्ट है । दुर्ग के निर्माण में भौगोलिक स्थिति का पूरा उपयोग करते हुए इसकी बनावट पहाड़ी की बनावट के अनुरूप रखी गयी है। फलत: गागरोण का किला (गागरोण दुर्ग) पर्वतमाला के आकार से इस तरह मिल गया है कि दूर से सहसा दिखलाई नहीं पड़ता । अपनी बनावट की इस अद्भुत विशेषता के कारण शत्रु के लिए दूर से किले की स्थिति का अनुमान करना कठिन रहा होगा।

वृहदाकार पाषाण-शिलाओं से निर्मित दुर्ग की उत्तङ्ग प्राचीरें, विशालकाय बुर्जे तथा सतत जल से भरी रहने वाली गहरी खाई, घुमावदार सुदृढ़ प्रवेश द्वार इन सबकी वजह से गागरोण के किले (गागरोण दुर्ग) की सुरक्षा व्यवस्था को भेदना किसी भी आक्रान्ता के लिए लोहे के चने चबाने से कम नहीं था । गागरोण दुर्ग (Gagron Fort) के इसी दुर्भेद्य स्वरूप की प्रशंसा करते हुए इतिहासकार कर्नल टॉड ने लिखा है

“Until you approach close to Gagrown its town and castle appear united and present a bold and striking object, and it is only on mounting the ridge that one perceives the strength of this position, the rock being scraped by the action of the waters to an immense height……. On whichever side an enemy might approach it, he would have to take the bull by the horns.”

तिहरे परकोटे से सुरक्षित गागरोण दुर्ग (Gagron Fort) के प्रवेश द्वारों में सूरजपोल, भैरवपोल तथा गणेशपोल प्रमुख हैं तथा इसकी विशाल सुदृढ़ बुर्जों में रामबुर्ज और ध्वजबुर्ज उल्लेखनीय हैं । प्राचीन काल में गांगरोण के मुख्य प्रवेश द्वार पर लकड़ी का उठने वाला पुल बना था । यहाँ के विशिष्ट स्थलों में दुर्ग में विशाल जौहर कुण्ड तथा राजा अचलदास और उनकी रानियों के महल, नक्कारखाना, बारूदखाना, टकसाल, मधुसूदन और शीतलामाता के मन्दिर, सूफी सन्त मिट्ठे साहब की दरगाह तथा औरंगजेब द्वारा निर्मित बुलन्द दरवाजा प्रमुख हैं।

रियासत काल में गागरोण के किले के एक पुराने महल में खींची राजा का पलंग रखा रहता था, जिसके बारे में लोक मान्यता थी कि राजा रात्रि को वहाँ सोते हैं और हुक्का पीते हैं। गागरोण के किले (गागरोण दुर्ग) के भीतर शत्रु पर पत्थरों की वर्षा करने वाला विशाल यन्त्र आज भी विद्यमान है। किले के पार्श्व में कालीसिन्ध के तट पर एक ऊँची पहाड़ी को गोध कराई कहते हैं । जनश्रुति है कि पुराने समय में जब किसी राजनैतिक बन्दी को मृत्युदण्ड देना होता था तब उसे इस पहाड़ी पर से नीचे गिरा दिया जाता था । जेसाकि प्रारंभ में उल्लेख किया है, गागरोण का किला (गागरोण दुर्ग ) राजस्थान में जल दुर्ग का उत्कृष्ट उदाहरण है। शुक्रनीति में जल दुर्ग के लक्षणों का उल्लेख करते हुए कहा गया है.

जलदुर्ग स्मृतं तज्ज्ञैरासमन्तन्महाजलम् ।’

अर्थात् जो चारों ओर से जल से आवृत्त या परिवेष्ठित हो, उसे जल दुर्ग कहते हैं। इस दृष्टि से गागरोण का किला (गागरोण दुर्ग) जल दुर्ग की कोटि में आता है क्योंकि यह तीन ओर से आहू और कालीसिन्ध नदियों से घिरा है। इनमें आहू नदी कोटा के निकटवर्ती पहाड़ियों से तथा कालीसिन्ध मध्यप्रदेश से निकलकर विपरीत दिशा में बहती हुई आती हैं। गागरोण दुर्ग (Gagron Fort) के दक्षिण में इनका मिलन होता है जहाँ से ये दोनों नदियाँ एकरूप होकर दुर्ग के पूर्वी भाग की परिक्रमा करती तथा चट्टानों के बीच अठखेलियाँ करती हुई प्रचण्ड वेग से किले के समानान्तर बहकर गणेश घाट से सीधे उत्तर की ओर प्रवाहित हो जाती हैं।

आहू और कालीसिन्ध नदियों का संगमस्थल स्थानीय भाषा में ‘सामेलजी’ के नाम से विख्यात है तथा पवित्र माना जाता है। इसके पास ही गागरोण के सन्त नरेश पीपाजी की छतरी है। इस स्थान से थोड़ा आगे दुर्ग में जाने का पुल है जिसकी समीपवर्ती बुर्ज के पास बनी सुरंग से नदी का पानी किले के भीतर पहुँचाया जाता था। इस प्रकार अरावली पर्वतमाला की गोद में अवस्थित तथा उसकी परिक्रमा करती आहू और कालीसिन्ध नदियों की अविरल जलधारा से परिवेष्ठित गागरोण दुर्ग (Gagron Fort) नयनाभिराम दृश्य प्रस्तुत करता है।

दुर्ग के चतुर्दिक फैला आमझर वन नाना प्रकार के पक्षियों के कलरव और मयूरध्वनि से गुंजित रहता है। वहाँ के पक्षियों में मनुष्य की आवाज की हूबहू नकल करने वाले गागरोण के राय तोते बहुत प्रसिद्ध रहे हैं। जनश्रुति है कि चित्तौड़ की रानी पद्मिनी के पास जो हीरामन तोता था वह इसी प्रजाति का था । प्रसिद्ध इतिहास लेखक कर्नल टॉड जब गागरोण गया तो वहाँ के नैसर्गिक सौन्दर्य को देखकर मुग्ध हो गया था। उसने गागरोण के प्राकृतिक वैभव का बहुत सुन्दर वर्णन करते हुए लिखा है-
Independent of ancient associations there is a wild grandeur about Gagrown, which makes it well worthy of a visit.

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