मारवाड़ राजवंश का शौर्य युग

Kheem Singh Bhati
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मारवाड़ राजवंश का शौर्य युग लेख मारवाड़ के राजाओं का परिचय का अगला भाग है .. राव गांगा की मृत्यु के पश्चात् उसका ज्येष्ठ पुत्र मालदेव सन् 1531 में राजगद्दी पर बैठा। उस समय उसके अधिकार में केवल जोधपुर व सोजत के परगने थे। मालदेव एक महत्वाकांक्षी व साहसी शासक था।

उसके समय में बाबर की (सन् 1530) मृत्यु के बाद दिल्ली में हुमायूं शासन कर रहा था। वह गुजरात के बहादुरशाह और शेरशाह के विरुद्ध युद्ध में लड़ा था। यह देखकर मालदेव ने अपने राज्य विस्तार की नीति अपनाई । सन् 1531 में उसने भाद्राजून के सींधल राठौड़ वीरा को पराजित कर वहाँ अपने पुत्र रत्नसिंह को अधिपति बना दिया।

इस लेख का पिछला हिस्सा पढे —– मारवाड़ के राजाओं का परिचय

बाद में मेड़ता के वीरमदेव के राज्य को लेने का प्रयत्न किया लेकिन वीरमदेव ने उससे समझौता कर लिया। जब वीरमदेव समझौते के अनुसार भाद्राजून गया तब पीछे से नागौर के खान को कहकर मेड़ता पर सन् 1534 में आक्रमण करा दिया। मौका देखकर मालदेव ने नागौर पर आक्रमण कर दिया और उसे अपने अधिकार में कर लिया।

नागौर के खान ने मालदेव से समझौता कर अपने अधिकार के 21 गाँव हरसोलाव सहित मालदेव को दे दिये। वीरमदेव ने गुजरात के सुल्तान के सेनापति शमशेर-उ-मुल्क को हराकर अजमेर पर कब्जा कर लिया। मालदेव ने वीरम से अजमेर की मांग की लेकिन उसने मना कर दिया।

इससे मालदेव मेड़ता के वीरमदेव से नाराज था। उसने मेड़ता पर आक्रमण कर वीरमदेव को अजमेर भगा दिया। एक वर्ष बाद मालदेव ने अजमेर पर भी कब्जा कर लिया। वीरमदेव तंग आकर दिल्ली शेरशाह के पास चला गया। मालदेव ने सिवाणा पर भी अधिकार कर लिया और जालौर के सिकन्दरखां को बन्दी बना लिया।

सांचौर के चौहानों को भी पराजित कर गुजरात की ओर राधनपुर तथा खाबड़ प्रदेश पर अधिकार कर लिया। मालदेव ने सन् 1540 तक चाकसू, फतेपुर, टोडा, लालसोट, मलारणा आदि पर भी अधिकार कर लिया। सन् 1542 तक वह अपनी शक्ति की चरम सीमा तक पहुँच गया।’ राजरूपक में मालेदव की विजयों के लिए लिखा है –

माल गंग गादी राव मारू । सगळा किया आपरे सारू ।।

मेवाड़ में महाराणा सांगा की मृत्यु के पश्चात् शासन-व्यवस्था बिगड़ गई थी 1 इसका लाभ उठा कर दासी पुत्र वणवीर ने बदनौर, कोसीथल, मदारिया, नाडौल आदि पर अधिकार कर लिया और अपने समर्थकों को दे दिये। यह देखकर मालदेव ने सांगा के पुत्र उदयसिंह की सहायतार्थ सोनगरा अखेराज को मेवाड़ भेजा। राठौड़ों और सिसोदियों की सम्मिलित सेना ने मावली के पास बनवीर को पराजित किया और चित्तौड़ पर उदयसिंह का कब्जा करा दिया।

बीकानेर का शासक राव जैतसी इस समय अपनी शक्ति बढ़ाने में लगा था। मालदेव शंकित हो गया और उसने उसकी शक्ति नष्ट करने के लिए सन् 1541 में उसके विरुद्ध सेना भेज दी, पर जोधपुर की सेना ने रात के अंधेरे में जैतसी पर सन् 1542 में साहेबा नामक स्थान पर आक्रमण कर दिया। युद्ध में जैतसी मारा गया। सेना ने आगे बढ़कर बीकानेर राज्य के आधे हिस्से पर कब्जा कर लिया। मालदेव ने सामन्त कूंपा को वहाँ का राज-काज सौंप दिया।

इस प्रकार राव मालदेव की उत्तर में सीमा बीकानेर तथा हिसार तक पहुँच गई। पूर्व में बयाना व धौलपुर, दक्षिण में चित्तौड़ तक तथा पश्चिम में जैसलमेर तक राधनपुर सीमा पहुँच गई थी। सन् 1542 तक राव मालदेव अपनी उन्नति के शिखर पर पहुँच गया था।

सन् 1540 में मुगल सम्राट् हुमायूं चौसा और कन्नौज के युद्ध में पराजित होकर मारा-मारा फिर रहा था। मालदेव ने हुमायूं को सहायता देने के लिए एक संदेश 1541 में भेजा ताकि वह तत्कालीन राजनीतिक स्थिति का लाभ उठा सके।

दूसरी ओर राव मालदेव के शत्रु शेरशाह के दरबार में पहुँच चुके थे। मालदेव इस कारण शेरशाह से नाराज था। हुमायूं ने पहले तो मालदेव के संदेश की परवाह नहीं की लेकिन बाद में पछताया और जब उसके सहायक उसे छोड़ चले गये तब स्वयं मालदेव के राज्य फलौदी परगने में पहुँचा। उसने एक दूत अनगखां के माध्यम से मालदेव से सहायता की बात चलाई।

मालदेव ने तब कोई स्पष्ट आश्वासन नहीं दिया। विवश होकर हुमायूं उमरकोट चला गया। मुस्लिम इतिहासकारों ने मालदेव पर हुमायूं से धोखा करने का आरोप लगाया है लेकिन यह सही प्रतीत नहीं होता है। मालदेव ने हुमायूं की सहायता नहीं की। उधर बीकानेर व मेड़ता के शासकों द्वारा बहकाये जाने पर शेरशाह ने एक बड़ी सेना लेकर मारवाड़ पर चढ़ाई कर दी।

ताकि मालदेव जैसे शक्तिशाली राजा को दबाया जा सके। शेरशाह सेना लेकर आ गया लेकिन उसे ऐसा प्रतीत होने लगा कि मालदेव को हराना आसान नहीं है। फारसी तवारीखों ( इतिहास ग्रंथों के अनुसार शेरशाह 80,000 सैनिक और शक्तिशाली तोपखाने के साथ डीडवाना पहुँचा। जहाँ मालदेव का सेनाध्यक्ष कूंपा डेरा डाले हुआ था।

शेरशाह कूंपा को हराकर बाबरा (जिला पाली) पहुँचा। मालदेव भी और अपनी सेना सहित सुमेल गिरि नामक स्थान पर जनवरी 1544 में पहुँचा। सुमेल गिरि दो नजदीक-नजदीक परन्तु अलग-अलग गाँव हैं। युद्ध गिरि में हुआ था।

ये दोनों स्थान मारवाड़ व अजमेर की सीमा के पास स्थित थे। शेरशाह ने अब एक चाल चली। अपने नाम जाली पत्र तैयार करवाये जिनमें लिखा हुआ था कि वे मालदेव को गिरफ्तार कर आपकी सेवा में पेश कर देंगे। ऐसे पत्र मालदेव के डेरे के पास फिंकवा दिये।

उसने मेड़ता के वीरमदेव की ओर से भी ऐसा पत्र मालदेव के पास भिजवा दिया जिसमें लिखा था कि आपके राज्य को कुछ सरदार शेरशाह से मिल गये हैं। इन पत्रों को पढ़कर मालदेव घबरा गया। राठौड़ सरदारों में फूट पड़ गई। मालदेव 4 जनवरी, 1544 की रात में ही अपनी मुख्य सेना लेकर मैदान से भाग निकला।

पीछे बची राठौड़ सेना ने कूंपा और जैता के नेतृत्व में शेरशाह का डटकर सामना किया लेकिन अन्त में पराजित हुए। शेरशाह जीत गया, लेकिन उसे कहना पड़ा कि “मैंने मुट्ठी भर बाजरे के लिए ही दिल्ली की सल्तनत दांव पर लगा दी थी। विजय के बाद शेरशाह ने मालदेव का पीछा करने के लिए एक सेना भेजी और स्वयं अजमेर पहुँच कर उस पर कब्जा कर लिया।

इसके बाद वह नागौर गया और कल्याणमल को बीकानेर दे दिया। मेड़ता पर वीरमदेव का कब्जा पहले ही करा चुका था। जोधपुर में ख्वाजा खां और ईसा खां को शासन प्रबन्ध के लिए नियुक्त कर दिया। शेरशाह का मारवाड़ पर 524 दिन तक कब्जा रहा और उसकी मृत्यु के पश्चात् मालदेव ने जून 1545 में जोधपुर पर पुनः अधिकार कर लिया।

बाद में उसने फलौदी, पोकरण, बाड़मेर, कोटड़ा, मेड़ता, जालौर व बदनौर पर भी अधिकार कर लिया। जैसलमेर के भाटियों को भी दबाया।

मालदेव के 22 पुत्र थे, लेकिन उसकी इच्छानुसार उसका छठा पुत्र चन्द्रसेन उसके राज्याधिकारी बने। इस प्रकार अपने बड़े भाइयों का अधिकार छीनकर राजगद्दी पर 31 दिसम्बर 1562 को बैठने के कारण पाँचों बड़े भाई उससे नाराज हो गये। मालदेव का ज्येष्ठ पुत्र राम तब मेवाड़ में निर्वासित जीवन व्यतीत कर रहा था।

वह सोजत पहुँच कर लूटमार करने लगा। दूसरे भाई रायमल ने दूनाड़ा में उपद्रव आरम्भ कर दिया। तीसरा भाई उदयसिंह ने गांगाणी और बावड़ी पर अधिकार कर लिया। जब चन्द्रसेन ने अपने भाइयों के विरुद्ध सेना भेजी तब राम और रायमल अपनी-अपनी जागीरों से भाग गये। उदयसिंह युद्ध में घायल होकर लोहावट चला गया।

अकबर राजपूत राजाओं से मैत्री सम्बन्ध बनाने के लिए नवम्बर 1569 में नागौर पहुँचा। वहाँ उसके 50 दिन रहते उससे मिलने बीकानेर और जैसलमेर के राजा आये। राव चन्द्रसेन और उसके भाई राम और उदयसिंह भी वहाँ पहुँचे। नागौर के दरबार का वातावरण देखकर चन्द्रसेन समझ गया कि अकबर राजपूत राजाओं में फूट डालना चाहता है, अतः वह दरबार से चला गया।

उसने अपने ज्येष्ठ पुत्र रामसिंह को अवश्य अकबर के पास छोड़ दिया। अबुल फजल और बदायूँनी का मत है कि नागौर में राव चन्द्रसेन ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली लेकिन बाद की परिस्थितियाँ यह नहीं बतलाती है। इस घटना के बाद अकबर ने भाद्राजून पर आक्रमण करने सूबेदार खान कला को भेज दिया जो स्पष्ट बतलाता है कि चन्द्रसेन ने अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की।

इसके विपरीत अकबर ने चन्द्रसेन के भाइयों को लालच देकर अपने पक्ष में कर लिया। उसने उदयसिंह को समावली के गुजरों को दबाने के लिए भेज दिया और रायसिंह को अपने पास रख लिया। सन् 1572 में जोधपुर का शासन प्रबन्ध बीकानेर के रायसिंह को सौंप दिया।

मुगल शक्ति को आंककर चन्द्रसेन भाद्राजून छोड़कर सिवाणा चला गया। भाद्राजून पर मुगल सेना का अधिकार हो गया। चन्द्रसेन ने मौका देखकर आसरलाई (जैतारण परगना) व भिणाय (अजमेर जिला) के गाँवों में लूटमार कर कुछ धन इकट्ठा किया, तब अकबर ने बीकानेर के शासक रायसिंह को 1573 में चन्द्रसेन को सिवाणा से निकालने को भेजा।

चन्द्रसेन सिवाणा से पीपलोद चला गया और लुकछिप कर मुगल सेना पर आक्रमण करता रहा। जब मुगल सेना का ज्यादा ही दबाव बढ़ा तो वह मेवाड़ की ओर चला गया। मुगल सेना ने सोजत पर भी अधिकार कर लिया। ऐसी स्थिति में चन्द्रसेन वापस सोजत के पास सरवाड़ में आ डटा लेकिन वहाँ से मुगल सेना ने उसे भगा दिया।

चन्द्रसेन हरियामाली में जा रहा और वहाँ सेना इकट्ठी कर सोजत पर कब्जा कर लिया। बादशाह ने जब और सेना भेजी तब चन्द्रसेन सारण की पहाड़ियों में चला गया जहाँ उसका अचानक देहान्त 1581 में हो गया।’ इस प्रकार अकबर चन्द्रसेन को अपने अधीन करने की इच्छा पूरी नहीं कर सका। चन्द्रसेन महाराणा प्रताप की भाँति ही स्वतंत्रता प्रेमी था।

चन्द्रसेन के ज्येष्ठ पुत्र रायसिंह का 1582 में सोजत में राजतिलक हुआ, लेकिन अगले वर्ष ही मुगल सेवा में रहते हुए सिरोही के राव सुरतान के षड़यंत्र से दत्ताणी गाँव में शत्रुओं द्वारा घेरा जाकर सन् 1583 में मारा गया।

रायसिंह के बाद मालदेव का पाँचवां पुत्र उदयसिंह सन् 1583 में जोधपुर राज्य की गद्दी पर बैठा । वह जोधपुर का पहला शासक था, जिसने बादशाह की अधीनता स्वीकार कर मुगल मनसबदारी प्राप्त की। बादशाह ने उन्हें राजा की उपाधि प्रदान की। स्थूलकाय होने के कारण वह मोटा राजा के नाम से प्रसिद्ध था।

बादशाह ने उसे लाहौर की सुरक्षा हेतु नियुक्त कर रखा था और वहीं 1595 में उसकी मृत्यु हो गई । राजा उदयसिंह के पुत्र शूरसिंह राजगद्दी प्राप्त करने के बाद भी ज्यादातर् बादशाह की सेवा में लाहौर में रहे। बादशाह ने उन्हें दो हजारी जात और सवा हजार का मनसब एवं राजा की उपाधि प्रदान की थी।

सन् 1619 में दक्षिण में मुगल सेना में ही रहते महकर के थाने में इनका स्वर्गवास हो गया। राजा सूरसिंह के समय मारवाड़ राज्य का राजस्व प्रबन्ध मुगल शैली पर आरम्भ किया गया। जोधपुर नगर
में सूरसागर तालाब, तलहटी के महल, रामेश्वर महादेव का मन्दिर और सूरज कुण्ड इन्हीं ने बनवाये।

सूरसिंह के उत्तराधिकारी गजसिंह का सन् 1619 में राजतिलक किया गया, तब ही उन्हें तीन हजारी जात, दो हजार का मनसब और राजा की में बुरहानपुर उपाधि से सम्मानित किया गया। उन्हें जोधपुर, जैतारण, सोजत, सिवाणा, सातलमेर, पोकरण आदि परगनों की जागीर भी प्रदान की गई।

गजसिंह भी ज्यादातर दक्षिण में सम्राट् के पास युद्ध कार्य में ही लगे रहे। बादशाह ने प्रसन्न होकर सन् 1623 में पाँच हजारी जात और चार हजार का मनसब प्रदान कर उन्हें शाहजादा खुर्रम के विरुद्ध भेजा था।’ जहाँगीर की मृत्यु के बाद वह शाहजहाँ के समय में मुगल दरबार में सक्रिय रहे।

उन्होंने बीजापुर तथा कंधार की लड़ाई में बड़ी वीरता दिखाई थी। बादशाह जहाँगीर ने उनकी मनसब 5000 जात और 5000 सवार कर दी थी। उस समय किसी भी हिन्दू राजा को इससे ऊँची मनसब प्राप्त नहीं थी। उनकी मृत्यु के समय मारवाड़ के शासन के अधीन 5400 गाँव थे और उनके अधीन 9 बड़े दुर्ग थे।

उनकी मृत्यु आगरा में ही सन् 1638 में हुई गजसिंह अपने ज्येष्ठ पुत्र अमरसिंह से नाराज रहता था अतः उन्होंने अपने द्वितीय पुत्र जसवंतसिंह को उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। अमरसिंह को नागौर दे दिया। सन् 1638 में जसवंतसिंह का आगरा में ही राजतिलक हुआ।

बादशाह ने उन्हें खिलअत, जड़ाऊ कटार, चार हजारी जात, चार हजार सवारों का मनसब, राजा का खिताब, निशान, नक्कारा, सुनहरी जीन सहित घोड़ा और हाथी देकर राजा की पदवी दी। उस समय वह ग्यारह वर्ष के ही थे।

बादशाह ने उन्हें राज-काज में सहायता देने के लिए आसोप के ठाकुर राजसिंह कूंपावत को इनका प्रधान नियुक्त किया, बाद में इनका मनसब 5000 जात और 5000 सवारों का कर दिया। सन् 1640 में जब वह जोधपुर आये तब यहाँ राजतिलक उत्सव मनाया गया। जसवंतसिंह ने शाहजहाँ के कंधार अभियान में बड़े साहस का परिचय दिया। सन् 1665 में इनका मनसब 6000 जात और 6000 सवार का कर दिया। इसके साथ ही इन्हें ‘महाराजा’ की पदवी भी दी।

सन् 1658 में बादशाह शाहजहाँ बीमार पड़ा तब उसके पुत्रों में उत्तराधिकार के लिए युद्ध प्रारम्भ हो गया। औरंगजेब दक्षिण से चलकर धर्मत के मैदान में आ डटा। बादशाह ने शाहजादा दारा के साथ जसवंतसिंह, मुकुन्दसिंह हाडा आदि के साथ औरंगजेब का सामना करने को भेजा।

जसवंतसिंह बड़ी वीरता से लड़े, लेकिन वह सहसा शत्रु सेना से घिर गये और युद्ध करते हुए घायल हो गये। उनके साथी उन्हें युद्ध क्षेत्र से बाहर ले आये और जोधपुर लौटने को विवश कर दिया।’ सहस्रों राजपूतों के बलिदान के बाद भी विजय औरंगजेब की हुई। युद्ध के बाद जसवंतसिंह जोधपुर पहुँचे।

बाद में (14 अगस्त, 1658) जसवंतसिंह बादशाह की सेवा में उपस्थित हुए। तब आमेर नरेश मिर्जा जयसिंह की सिफारिश पर बादशाह ने जसवंतसिंह को क्षमा प्रदान की और उन्हें अपनी सेवा में ले लिया, लेकिन औरंगजेव जसवंतसिंह पर उनकी मृत्यु तक सन्देह करता ही रहा यद्यपि जसवंतसिंह औरंगजेब के सम्राट बनने पर उसकी सेवा में उपस्थित हो गये।

बादशाह ने उनका मनसब बहाल कर दिया लेकिन मन में उससे नाराज रहा। जब शाहजादा शुजा ने औरंगजेब पर आक्रमण किया तब बादशाह ने जसवंतसिंह को उसका सामना करने सेना के दाहिने पार्श्व का सेनापति बनाकर भेजा। युद्ध में अंतिम सफलता औरंगजेब को प्राप्त हुई। इसके पश्चात् जसवंतसिंह जोधपुर चले आये। औरंगजेब इससे नाराज हो गया।

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