डिगिग्निज ग्रन्थकार के अनुसार यूची अथवा जिट लोग पाँचवीं और छठवीं शताब्दी में पंजाब में रहते थे और इस वंश के जिस राजा का ऊपर उल्लेख किया गया है, उसकी राजधानी सालिन्द्रपुर 16 थी। इससे अनुमान किया जाता है कि सालिवाहनपुर का ही नाम पहले सालिन्द्रपुर रहा होगा, जहाँ यदुवंशी भाटियों ने टाँक जाति को पराजित करके अपना शासन स्थापित कर लिया था। इससे कितने समय पूर्व जिट लोगों ने राजस्थान में प्रवेश किया था, इसका निर्णय तो शिलालेखों के आधार पर ही किया जा सकता है। परन्तु इतना निश्चित है कि 440 ई. में उनका शासन चल रहा था।
सलिवाहन से खदेड़े जाने के बाद यादव जाति ने सतलज नदी पार करके मरुभूमि में दहिया और जोहिया राजपूतों के यहाँ आश्रय लिया और इस क्षेत्र में उन्होंने अपनी प्रथम राजधानी देरावल में स्थापित की। बाद में, उनमें से बहुतों ने इस्लाम अपना लिया। इस समय से वे लोग जाट कहे गये, जिनकी बीस से अधिक शाखाओं का उल्लेख यदुवंश के इतिहास में किया गया है।
जिट लोगों के सम्बन्ध में बहुत सी बातें महमूद के इतिहास में पढ़ने को मिलती हैं। 1026 ई. में जिट लोगों ने महमूद की सेना का मार्ग रोककर उससे घमासान युद्ध किया था, परन्तु जिटों को परास्त होना पड़ा। बहुत से लोग मारे गये और जो लोग बचे, उनके द्वारा बीकानेर की स्थापना हुई।
इस घटना के थोड़े ही दिनों के बाद जिट लोगों का मूल राज्य भी नष्ट हो गया और बहुत से जिट लोगों ने भागकर भारत में शरण ली। 1360 ई. में तोगलताश तैमूर जेटी जाति का प्रधान था। 1369 ई. में उसकी मृत्यु के बाद जेटी लोगों की प्रधानता की पदवी बड़े खान के नाम से चगताई तैमूर को मिली। 1370 ई. में उसने जेटी जाति की एक राजकुमारी के साथ विवाह किया परन्तु बाद में चगताई और जेटी लोगों में भयंकर संघर्ष शुरू हो गया, जिसमें जेटी लोगों की पराजय हुई। फिर भी, पंजाब उनके अधिकार में बना रहा और आज तक लाहौर का प्रतापी राजा जिटवंशी है।
इस राजा का अधिकार उन सभी प्रदेशों में है, जहाँ पर पाँचवीं सदी में यूची लोग रहते थे और जहाँ गजनी से भागकर आने के बाद यदुवंशी लोगों ने टाँक लोगों के पतन के बाद अपना अधिकार जमा लिया था। जिट लोगों के घुड़सवारों और सीथियन लोगों के तरीके बहुत कुछ मिलते-जुलते हैं।
16. हूण जाति – (राजस्थान के छत्तीस राजकुल) – राजस्थान के 36 राजवंशों में जिन सीथियन जातियों को स्थान मिला है, उनमें एक हूण लोग भी हैं। यह ठीक किस समय भारत में आये, इसका भलीभाँति निरूपण करना कठिन है। इतना निश्चित है कि प्राचीन समय में जिन जातियों ने भारत में आक्रमण किया था, उनमें एक यह जाति भी है और इस जाति के कुछ लोग आज भी सौराष्ट्र में पाये जाते हैं।
इस देश के प्राचीन ऐतिहासिक ग्रन्थों और शिलालेखों में हूण जाति के लोगों के सम्बन्ध में अनेक बातों का उल्लेख पाया जाता है। 17 एक शिलालेख में लेख है कि बिहार क्षेत्र के एक राजा ने अपनी दिग्विजय के समय अन्य देशों को जीतने के साथ-साथ हूणों को भी पराजित किया था और उनकी शक्ति को नष्ट कर दिया था। इस घटना के पूर्व इस जाति का वर्णन पहले कहीं दिखाई नहीं देता। इसके बाद, मेवाड़ के प्राचीन भट्टग्रन्थों से विदित होता है कि जिस समय मुसलमानों ने सबसे पहले चित्तौड़ पर आक्रमण किया था, उस समय उसकी रक्षा के लिए जिन राजाओं ने सहयोग दिया था, उनमें हूणों का सरदार अंगत्सी भी था।
डिगिग्निज के मतानुसार अंगत हूणों और मुगलों के एक विशाल दल का नाम था अबुलगाजी के अनुसार जो तातार चीन देश की विशाल दीवार की रक्षा करते थे, उन्हें अंगती अथवा अंगुट नाम से पुकारा जाता था। उन लोगों का अपना एक राजा था, जिसकी बहुत प्रतिष्ठा थी। जिन देशों में हियागनों और ओहओन अर्थात् तुर्क और मुगल जाति के लोग रहते थे, उन्हीं का नाम तातार था।
तातार नाम तातान देश से चला। इस देश की सीमा इर्टिश के पास से लेकर अल्ताई पहाड़ों के बराबर पीले सागर के किनारे तक विस्तृत थी। रोम के पतन का इतिहास लिखने वाले गिबन ने हूणों के उस समय का इतिहास लिखा है, जब हूणों ने यूरोप पर चढ़ाई की थी।
कास्मंस नामक यात्री के ग्रन्थ के आधार पर डेनविल साहब ने लिखा है कि हूण लोग भारत के उत्तरी भाग में निवास करते थे। यदि उनके मत को सही मान लिया जाय तो अवश्य ही कहना पड़ेगा कि हूणों ने भारत में क्रमश: प्रवेश करके सौराष्ट्र और मेवाड़ में विजय प्राप्त की होगी।
जनश्रुति के आधार पर लोगों का विश्वास है कि हूणों ने सर्वप्रथम चम्बल नदी के पूर्वी किनारे पर स्थित बाड़ोली (बिडोली) नामक स्थान पर पड़ाव डाला था। इस क्षेत्र में उन्होंने कई मन्दिरों तथा भवनों का निर्माण करवाया था। ऐसे मन्दिरों में एक मन्दिर इस जाति के राजा का वैवाहिक स्थान है, जिसका नाम है- सेनगर चाओरी। कहते हैं कि उस राजा का अधिकार चम्बल नदी के दूसरे किनारे तक फैला हुआ था। इस जाति का अस्तित्व अभी तक पूरी तरह से नष्ट नहीं हुआ है और यूरोप तथा एशिया के भिन्न-भिन्न स्थानों में उसके थोड़ेबहुत चिह्न दिखाई देते हैं।
17. कट्टी अथवा काठी- (राजस्थान के छत्तीस राजकुल) – इस जाति के सम्बन्ध में पहले ही लिखा जा चुका है। राजस्थान और सौराष्ट्र के भट्टग्रन्थों में उन्हें राजवंशों में स्थान दिया गया। पश्चिमी प्रायद्वीप की प्रसिद्ध जातियों में एक जाति यह भी है। इस जाति के लोगों ने सौराष्ट्र का नाम बदलकर काठियावाड़ कर दिया है।
प्रकाठियावाड़ में इस जाति ने अपना अस्तित्व कायम रखा है। इस जाति की धार्मिक और सामाजिक मान्यताएँ एवं परम्पराएँ तथा उनके शरीर की बनावट और मुखाकृति उनके सीथियन होने का सबूत देती है। सिकन्दर के आक्रमण के समय काठी जाति सिन्धु नदी की पाँचों शाखाओं के संगम स्थान पर निवास करती थी। इन लोगों ने सिकन्दर से जमकर युद्ध किया था तथा सिकन्दर को भाग्य से ही विजय मिल पाई थी। जैसलमेर के भट्टग्रन्थों से विदित होता है कि वहाँ के लोगों ने काठी लोगों के साथ युद्ध किया था।
बारहवीं सदी में भी यह जाति अपना अस्तित्व कायम रखे हुए थी। मुहम्मद गौरी के विरुद्ध इस जाति के कई सरदारों ने अपने सैनिक दस्तों के साथ पृथ्वीराज और जयचन्द का साथ दिया था। उस समय में वे अनहिलवाड़ा पाटन के अधीन सामन्त राजा के रूप में शासन करते थे। काठी लोग अब तक सूर्य भगवान् की पूजा किया करते थे। वे लोग शान्ति से जीवन व्यतीत करना अच्छा नहीं समझते। चोरी, युद्ध और आक्रमण उनको प्रिय लगते हैं।
कप्तान मैक्समर्डी ने इन लोगों के सम्बन्ध में लिखा है-“काठी जाति के लोग अनेक बातों में राजपूतों से भिन्न हैं। वे स्वाभाविक रूप से निर्दयी हैं और बहादुरी में वे राजपूतों से भी अधिक हैं। शारीरिक शक्ति में उनका स्थान ऊँचा है। कद में वे साधारण आदमी की अपेक्षा लम्बे होते हैं। उनका कद प्राय: 6 फीट से अधिक होता है। उनके शरीर मजबूत और मेहनत से भरे होते हैं। उनके मुख पर सुन्दरता नहीं होती, लेकिन उनकी मुखाकृति में कट्टरता पाई जाती है। उनके जीवन में कोमलता किसी प्रकार की भी नहीं होती।”
18. बल्ला और बाला- (राजस्थान के छत्तीस राजकुल) – भट्टग्रन्थों में बल्ला जाति को भी 36 राजवंशों में स्थान दिया गया। इन्हें ‘ठट्टमुल्तान के राव’ के नाम से पुकारा गया है, जिससे मालूम होता है कि ये लोग सिन्धु नदी के किनारे रहते थे। ये लोग अपने को सूर्यवंशी कहते हैं और श्रीराम के पुत्र लव के वंशज बताते हैं। इन लोगों का प्राचीन निवास स्थान सौराष्ट्र में टाँक अथवा धंक नामक बस्ती थी। प्राचीनकाल में इस स्थान को गोंगी-पट्टन कहा जाता था।
यहाँ बसने के बाद इन लोगों ने आस-पास के क्षेत्र को जीतकर उसे ‘बल्ल क्षेत्र’ का नाम दिया और बल्लभीपुर में अपनी राजधानी स्थापित की। इनके राजाओं ने ‘बल्लाराय’ की उपाधि धारण की। ये लोग अपने-आपको गुहिलोत राजपूतों के बराबर का मानते हैं। हो सकता है कि बल्ला गुहिलोत वंश की शाखा हो। बल्ला लोगों का मुख्य देवता सूर्य था। इनकी अनेक बातें सीथियन लोगों
से मिलती हैं।
19. कट्टी– (राजस्थान के छत्तीस राजकुल) – ये लोग अपने को बल्लावंश की शाखा मानते हैं। तेरहवीं शताब्दी में बल्ला लोग मेवाड़ में भी छापा मारने लगे। मेवाड़ के राणा हमीर ने इन लोगों पर आक्रमण किया और चोटीला के बल्ला सरदार को मार डाला। टाँक का वर्तमान राजा बल्लावंशी है।
20. झालामकवाणा– (राजस्थान के छत्तीस राजकुल) – ये लोग सौराष्ट्र प्रायद्वीप में रहते हैं और राजपूत कहे जाते परन्तु चन्द्र, सूर्य और अग्नि कुल में इनका कोई वृत्तान्त नहीं पाया जाता। ऐसा ज्ञात होता हैं, कि ये लोग भारत के उत्तरी हिस्से से इस तरफ चले आये थे। भारत अथवा राजस्थान के इतिहास में भी इस जाति के लोगों ने अधिक प्रसिद्धि प्राप्त नहीं की।
सौराष्ट्र के बड़े क्षेत्रों में एक क्षेत्र झालावाड़ है, जहाँ झाला मकवाणा लोगों की प्रधानता है। इस क्षेत्र में बीकानेर (बेकनीर), तलवद और ध्रांगदरा नामक बड़े-बड़े नगर हैं। इस क्षेत्र में झाला लोग कब आये और उनका पुराना इतिहास क्या है, इसका निर्णय करने के लिए हमारे पास पर्याप्त ऐतिहासिक सामग्री नहीं है, परन्तु कुछ ऐतिहासिक घटनाएँ इस सम्बन्ध में हमारी सहायता करती हैं। मुसलमानों के प्रारम्भिक आक्रमण के समय झाला जाति के लोगों ने राणा को सैनिक सहायता दी थी और पृथ्वीराज के इतिहास में भी झालाओं का उल्लेख मिलता है। झालाओं की कई शाखाएँ हैं जिनमें मकवाणा प्रधान है।