कान्हड़देव – वीर योद्धा जिसके सामने अलाउद्दीन खिलजी को टेंकने पड़े थे घुटने (जालौर का किला)

Kheem Singh Bhati
22 Min Read

कान्हड़देव – वीर योद्धा जिसके सामने अलाउद्दीन खिलजी को टेंकने पड़े थे घुटने (जालौर का किला) – जालौर का किला पश्चिमी राजस्थान के सबसे प्राचीन और सुदृढ़ दुर्गों में गिना जाता है। यह सूकड़ी नदी के दाहिने किनारे मारवाड़ की पूर्व राजधानी जोधपुर से लगभग 75 मील दक्षिण में अवस्थित है। प्राचीन साहित्य और शिलालेखों में इसे जाबालिपुर, जालहुर आदि नामों से अभिहित किया गया है।

जनश्रुति है कि इसका एक नाम जालन्धर भी था। जिस विशाल पर्वत शिखर पर यह प्राचीन किला बना है उसे सोनगिरी (स्वर्णगिरी) व कनकाचल तथा किले को सोनगढ़ अथवा सोनलगढ़ कहा गया है। यहाँ से प्रादुर्भूत होने के कारण ही चौहानों की एक शाखा ‘सोनगरा’ उपनाम से लोक में प्रसिद्ध हुई।

जालौर एक प्राचीन नगर है। ज्ञात इतिहास के अनुसार जालौर और उसका निकटवर्ती इलाका गुर्जर देश का एक भाग था तथा यहाँ पर प्रतिहार शासकों का वर्चस्व था । प्रतिहारों के शासन काल (750-1018ई०) में जालौर एक समृद्धिशाली नगर था। प्रतिहार नरेश वत्सराज के शासन काल में 778 ई० में जैन आचार्य उद्योतन सूरी ने जालौर में अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ कुवलयमाला की रचना की ।

कान्हड़देव - वीर योद्धा जिसके सामने अलाउद्दीन खिलजी को टेंकने पड़े थे घुटने (जालौर का किला)
कान्हड़देव – वीर योद्धा जिसके सामने अलाउद्दीन खिलजी को टेंकने पड़े थे घुटने (जालौर का किला)

इतिहासकार डॉ० दशरथ शर्मा के अनुसार प्रतिहार नरेश नागभट्ट प्रथम ने जालौर में अपनी राजधानी स्थापित की। उसने (नागभट्ट प्रथम) ही संभवत: जालौर के इस सुदृढ़ ऐतिहासिक दुर्ग (जालौर का किला) का निर्माण करवाया जिसके बल पर वह सीमा पार से होने वाले अरब आक्रमणों का सशक्त और सफल प्रतिरोध कर सका। इस सम्बन्ध में उन्होंने लिखा है –

Tradition as recorded in Puratan – Prabhandhasangraha shows that Nagbhata I established his capital at Jalore…. The fort of Jalor is believed to have been built by him (Nagbhata I.)

अरब आक्रान्ताओं को रोकने में प्रतिहार नरेश नागभट्ट प्रथम तथा अन्य शासकों के महनीय योगदान की मुक्तकंठ से सराहना करते हुए वे इसे राष्ट्रीय चेतना का प्रतीक बताते हैं । यथा –

In the eight century, Arab invasions had thrown up leaders like Nagbhata I Dantidurga and Bappa Rawal who rising from comparatively insignificant positions in life succeeded in arousing the Hindus to a consciousness of
the danger threatening the country and leading almost a national crusade against the Arab invaders.

प्रतिहारों के पश्चात जालौर पर परमारों (पंवारों) का शासन स्थापित हुआ । इतिहासकार डॉ० गौरीशंकर हीराचन्द ओझा ने परमारों को जालौर दुर्ग का निर्माता या संस्थापक माना है। परन्तु ऐतिहासिक साक्ष्य इस सम्भावना की ओर संकेत करते हैं कि उन्होंने पहले से विद्यमान व प्रतिहारों द्वारा निर्मित इस प्राचीन दुर्ग का जीर्णोद्धार या विस्तार करवाया था ।

कान्हड़देव - वीर योद्धा जिसके सामने अलाउद्दीन खिलजी को टेंकने पड़े थे घुटने (जालौर का किला)
कान्हड़देव – वीर योद्धा जिसके सामने अलाउद्दीन खिलजी को टेंकने पड़े थे घुटने (जालौर का किला)

जालौर दुर्ग के तोपखाने से परमार राजा वीसल का एक शिलालेख मिला है जिसमें उसके पूर्ववर्ती परमार राजाओं का नामोल्लेख है। विक्रम संवत 1174 (1118ई०) के इस शिलालेख में वीसल की रानी मेलरदेवी द्वारा सिन्धुराजेश्वर के मन्दिर पर स्वर्ण कलश चढ़ाने का उल्लेख है।

उपलब्ध साक्ष्यों से पता चलता है कि प्रारंभिक परमार नरेश बहुत वीर और प्रतापी हुए परन्तु बाद में उनके क्रमानुयायी निर्बल पड़ते गये जिसके फलस्वरूप परिस्थिति के अनुसार कभी स्वतन्त्र रूप से तो कभी गुजरात के चालुक्य नरेशों के सामन्त के रूप में उन्होंने यहाँ शासन किया ।

जालौर दुर्ग पर विभिन्न कालों में प्रतिहार, परमार, चालुक्य (सोलंकी) चौहान, राठौड़ इत्यादि राजपूत राजवंशों ने शासन किया वहीं इस दुर्ग पर दिल्ली के मुस्लिम सुलतानों, मुगल बादशाहों तथा अन्य मुस्लिम वंशों का भी अधिकार रहा। विशेषकर जालौर के किले के साथ सोनगरा चौहानों की वीरता, शौर्य और बलिदान के जो रोमांचक आख्यान जुड़े हैं वे इतिहास के स्वर्णाक्षरों में उल्लेख करने योग्य हैं।

नाडौल के चौहानवंशीय युवराज कीर्तिपाल ने जालौर पर अधिकार कर परमारों का वर्चस्व सदा के लिए समाप्त कर दिया। इस प्रकार कीर्तिपाल चौहानों की जालौर शाखा का संस्थापक था। सूँधा पर्वत अभिलेख (वि०सं० 1319) में कीर्तिपाल के लिए ‘राजेश्वर’ शब्द का प्रयोग हुआ है जो उसकी महत उपलब्धियों के अनुरूप उचित लगता है।

कान्हड़देव - वीर योद्धा जिसके सामने अलाउद्दीन खिलजी को टेंकने पड़े थे घुटने (जालौर का किला)
कान्हड़देव – वीर योद्धा जिसके सामने अलाउद्दीन खिलजी को टेंकने पड़े थे घुटने (जालौर का किला)

कीर्तिपाल के वंशज जालौर के किले सोनलगढ़ व उसकी सोनगिरी पर्वतमाला के नाम से ‘सोनगरे’ चौहान कहलाये तथा बहुत वीर और प्रतापी हुए। जैसाकि डॉ० दशरथ शर्मा ने लिखा है-

Another Chauhan kingdom which put up a stiff fight to preserve the Hindu way of life was that of Chauhans of Jalor or Javalipur. A younger scion of the House of Nadol, after he had been driven out of Mewar by the Guhilas it had steadily increased in power under Kirtipal’s successors.

सोनगरों की मारवाड़ में अनेक शाखायें फैली जिनमें नाडौल, मंडोर, बाहड़मेर (बाड़मेर), श्रीमाल (भीनमाल), सत्यपुर (सांचौर) इत्यादि प्रमुख और उल्लेखनीय हैं। सोनगरे चौहानों ने परमारों से किरातकूप (किराडू) भी छीन लिया । इनमें कीर्तिपाल का पुत्र और उत्तराधिकारी समरसिंह बहुत वीर और पराक्रमी हुआ।

उसने विविध निर्माण कार्यों के द्वारा जालौर को सुरक्षा व्यवस्था को सुदृढ़ किया तथा अपने विजय अभियानों द्वारा नवस्थापित राज्य का विस्तार किया। सूँधा पर्वत शिलालेख से पता चलता है कि समरसिंह ने जालौर के कनकाचल अथवा स्वर्णगिरि को चतुर्दिक विशाल और उन्नत प्राचीर से सुरक्षित किया।

उसे युद्ध काल में मोर्चा लेने हेतु संहारक यन्त्रों और उपकरणों से सज्जित किया। किले के भीतर शस्त्रागार, अन्नभंडार इत्यादि बनवाये । इस प्रकार बहुविध उपायों द्वारा दुर्ग को दुर्जेय स्वरूप प्रदान किया। इस सम्बन्ध में डॉ० दशरथ शर्मा ने लिखा है –

Samarsimha built extensive ramparts on the Kanakachala or Suvarngiri hill of Jalor, equipping them with machines of many kinds and battlements of vidyadhari type.

“जालौर के किले की दुर्जेय स्थिति को देखकर ‘ताज उल मासिर’ का लेखक हसन निजामी उस पर मुग्ध हो गया। उसने लिखा है, जालौर बहुत ही शक्तिशाली और अजेय दुर्ग है, जिसके द्वार कभी भी किसी विजेता के द्वारा नहीं खोले गये चाहे वह कितना ही शक्तिशाली क्यों न हो । “

जालौर के किले को दुर्भेद्य रूप प्रदान करने वाला समरसिंह एक विजेता और निर्माता होने के साथ ही कुशल कूटनीतिज्ञ भी था । उसने गुजरात के शक्तिशाली चालुक्य नरेश भीमदेव द्वितीय के साथ अपनी राजकुमारी लीलादेवी का विवाह कर उसे अपना सम्बन्धी व मित्र बना लिया। सूँधा अभिलेख में समरसिंह की कला के संरक्षक और विद्वानों के आश्रयदाता के रूप में महती प्रशंसा की गयी है ।

समरसिंह का उत्तराधिकारी उदयसिंह जालौर की सोनगरा चौहान शाखा का सबसे पराक्रमी और यशस्वी शासक हुआ। उसने अनेक विजय अभियानों के द्वारा न केवल सुदूर प्रदेशों तक अपने राज्य का विस्तार किया अपितु गुलामवेश के शक्तिशाली सुलतान इल्तुतमिश का भी सफलतापूर्वक प्रतिरोध किया।

सूँधा पर्वत शिलालेख’ में उदयसिंह को नाडौल, जाबालिपुर (जालौर) मान्डव्यपुर (मंडौर) वागभट्टमेरू (बाहड़मेर), सुरचंदा, रतहरड़ा (राड़धड़ा) खेड़ा, रामसैन्य, श्रीमाल (भीनमाल), रतनपुरा, सत्यपुर (सांचौर) इत्यादि प्रदेशों का स्वामी बताया गया है। उक्त शिलालेख में उदयसिंह को तुकों का मान मर्दन करने वाला कहा गया है। उसने इल्तुतमिश की शक्ति का उपहास करते हुए अपना राज्य विस्तार किया। उसकी नाडौल और मण्डोर विजय इस दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण थी।

जालौर के किले पर अधिकार करने के लिए आयी हुई मुस्लिम सेना को उसने पराजित किया। दिल्ली में अपना शासनाधिकार दृढ होने के बाद इल्तुतमिश ने उसे सबक सिखाने के लिए जालौर पर जोरदार आक्रमण किया तथा एक विशाल सेना के साथ किले को घेर लिया। उदयसिंह ने इस आक्रमण का डटकर मुकाबला किया। अन्ततः विजय की कोई आशा न देख इल्तुतमिश को घेरा उठाना पड़ा और दोनों में सन्धि हो गई।

उदयसिंह ने 100 ऊँट और 200 घोड़ों की प्रतीकात्मक भेंट देकर इल्तुतमिश को वापस लौटा दिया । लगभग पाँच वर्ष बाद विक्रम संवत 1278 के लगभग इल्तुतमिश ने राजपूताना पर फिर अभियान किया। उसकी चुनौती का सामना करने के लिए उदयसिंह ने गुजरात के वाघेला शासक के साथ मिलकर संयुक्त मोर्चा बना लिया। अत: इल्तुतमिश मारवाड़ और गुजरात के दो शक्तिशाली राजाओं से मुकाबला करने के बजाय बिना युद्ध किये वापस लौट गया ।

इतिहासकार डॉ० दशरथ शर्मा ने उदयसिंह को जालौर की सोनगरा चौहान शाखा का सर्वाधिक योग्य और प्रतापी शासक कहा है। वे लिखते हैं कि जिस समय शक्तिशाली मुस्लिम आक्रमणों के सामने अन्य हिन्दू राज्य ताश के पत्तों की तरह बिखर रहे थे और सपादलक्ष व नाडौल के चौहान राज्य नेस्तनाबूद हो गये थे, उनसे लगभग 25 वर्ष पहले उद्भूत जालौर का राज्य विपरीत परिस्थितियों में भी गौरव की ओर अग्रसर था।

उदयसिंह स्वयं कला और साहित्य का मर्मज्ञ व विद्वानों का आश्रयदाता था। उसका मंत्री यशोवीर भी बहुत विद्वान था । सारतः जालौर उदयसिंह के शासनकाल में अपने विस्तार और वैभव की पराकाष्ठा पर पहुँचा। तदनन्तर चाचिगदेव और सामन्तसिंह जालौर के शासक हुए। लेकिन जालौर को प्रसिद्धि और गौरव दिलाया वीर कान्हड़देव सोनगरा और उसके पुत्र वीरमदेव के उद्भट शौर्य और बलिदान ने।

दिल्ली के सर्वाधिक शक्तिशाली और साम्राज्यवादी सुलतान अलाउद्दीन खिलजी ने रणथम्भौर और चित्तौड़ विजय के बाद मारवाड़ को अपने आक्रमणों का लक्ष्य बनाया। जालौर पर उसके आक्रमण का एक प्रमुख कारण यह भी था कि सन् 1298 ई० में अलाउद्दीन खिलजी ने गुजरात विजय करने और वहाँ के प्रसिद्ध सोमनाथ मन्दिर को ध्वस्त करने के लिए अपने सेनानायकों उलूगखाँ और नुसरतखाँ के अधीन जो विशाल सेना वहाँ भेजी उसे वीर कान्हड़देव (तब युवराज) ने अपने जालौर राज्य से होकर गुजरने की अनुमति नहीं दी और फलत: उसे मेवाड़ होकर जाना पड़ा।

इतना ही नहीं गुजरात अभियान से जालौर होकर वापस लौटती शाही सेना को कान्हड़देव के सैनिकों ने परेशान किया तथा बहुत सारा लूट का माल और सोमनाथ की खण्डित प्रतिमा के हिस्से मुस्लिम सैनिकों से छीन लिये। अत: अलाउद्दीन की साम्राज्यवादी महत्त्वाकांक्षा और कान्हड़देव को सबक सिखाने की इच्छा उसके जालौर आक्रमण का कारण बनी।

अलाउद्दीन ने पहले सिवाणा के किले पर जोरदार आक्रमण कर उस पर अपना अधिकार स्थापित किया जहाँ कान्हड़देव का भतीजा सातलदेव दुर्ग की रक्षा करता हुआ अपने सहयोगी योद्धाओं सहित वीरगति को प्राप्त हुआ। तदनन्तर अलाउद्दीन ने जालौर दुर्ग को अपना लक्ष्य बनाया। उसने अपने सर्वाधिक योग्य सेनापति कमालुद्दीन को जालौर अभियान की बागडोर सौंपी। खिलजी सेना ने जालौर के किले को चारों ओर से घेर लिया। जालौर का यह घेरा लम्बे अरसे तक चला।

कान्हड़दे प्रबन्ध का उल्लेख है कि कमालुद्दीन ने किले की ऐसी घेराबन्दी की कि न तो कोई व्यक्ति भीतर से बाहर आ सकता था और न ही किले के भीतर रसद या शस्त्र आदि पहुँचाना सम्भव था। दीर्घकालिक घेरे के कारण किले के भीतर खाद्य सामग्री का अभाव होता चला गया। संकट की इस घड़ी में बीका नामक दहिया राजपूत सरदार ने विश्वासघात किया और शत्रु सेना को किले के भीतर पहुँचने का गुप्त मार्ग बता दिया।

वीरशिरोमणि कान्हड़देव ने अपने राजकुमार वीरमदेव और विश्वस्त योद्धाओं के साथ अलाउद्दीन की सेना के साथ घमासान युद्ध करते हुए वीरगति प्राप्त की और किले के भीतर सैकड़ों ललनाओं ने जौहर का अनुष्ठान किया। तब कहीं जाकर 1311-12ई० के लगभग अलाउद्दीन का जालौर (जालौर का किला) पर अधिकार हो सका।

कवि पद्मनाभ विरचित ऐतिहासिक काव्य कान्हड़दे प्रबन्ध तथा ‘वीरमदेव सोनगरा री बात’ नामक कृतियों में जालौर के किले पर लड़े गये इस घमासान युद्ध का विस्तृत और रोमांचक वर्णन हुआ है। यथा —

ऊपरि थकी ढीकुली ढालइ लोढीगडा विछूटइ ।
हाथी घोडउ आडइ आवइ, तेहमरइ अणष्टई ।।
यंत्र मगरवी गोलानां षइ, दू सांधि सूत्रहार ।
जिहां पडइ तिहां तरूअर भांजइ, पडतठ करहि संहार ।।

(जालौर का किला)

युद्ध में भाग लेने वाले विभिन्न खांपों के क्षत्रिय योद्धाओं और अन्य लोगों का वर्णन भी बहुत प्रभावशाली बन पड़ा है।

सोलंकी वाघेला सुहड़ रोसाला राउत राठउड ।
एक राउत चाउडा हूण, अति फूटरा उतारा लूण ||
जइवता यादव परमार गुहिल सर्व सबल झूझार ।

(जालौर का किला)

कवि ने अपने वीर चरित्रनायक कान्हड़दे के चरित का पठन और श्रवण तीर्थयात्रा के समान पुण्यफलदायी बताया है। यथा —

कान्हड़चरिय जि को नर भणइ, एक चितिजिको नर सुणइ ।
तीरथफल बोल्यु जेतलु, पामइ पुण्य सबे तेतलूं 1 35 11

कान्हड़देव के साथ ही जालौर से अतुल पराक्रमी और यशस्वी सोनगरा चौहानों का वर्चस्व समाप्त हो गया। इसके साथ ही वीरता और शौर्य के एक स्वर्णिम युग का अवसान हो गया। तदनन्तर जालौर पर मुसलमानों का आधिपत्य रहा। जोधपुर के राव गांगा के शासन काल में राठौड़ों ने जालौर पर चढ़ाई की।

जालौर के अधिपति मलिक अलीशेरखाँ ने चार दिन तक राठौड़ सेना का मुकाबला किया तथा यह आक्रमण विफल हो गया। तत्पश्चात राव मालदेव ने जालौर पर आक्रमण कर उस पर अपना अधिकार कर लिया। लेकिन मालदेव की मृत्यु होते ही बिहारी पठानों ने जालौर राठौड़ों से छीन लिया। इसके बाद जोधपुर के महाराजा गजसिंह ने 1607 ई० के लगभग जालौर पर आक्रमण कर उसे बिहारी पठानों से जीत लिया।

तत्पश्चात जब जोधपुर की गद्दी के लिए भीमसिंह और मानसिंह के बीच उत्तराधिकार का संघर्ष चला तब अपने संकट काल में महाराजा मानसिंह ने इसी दुर्ग में आश्रय लिया था तथा अपने बड़े भाई व जोधपुर के तत्कालीन महाराजा भीमसिंह के इस आदेश का कि वे जालौर का दुर्ग (जालौर का किला) खाली कर जोधपुर आ जाएँ, उन्होंने जो वीरोचित उत्तर दिया वह लोक में आज भी प्रेरक वचन के रूप में याद किया जाता है —

आभ फटै, घर ऊलटै, कटै बगतरों कोर ।
सीस पड़े, धड़ तड़फड़े, जद छूटै जालौर ।।

(जालौर का किला)

किले का स्थापत्य (कान्हड़देव का जालौर का किला)

मारवाड़ और गुजरात की सीमा पर बने जालौर दुर्ग को अपनी सामरिक स्थिति के कारण प्राचीनकाल से ही आक्रान्ताओं के भीषण प्रहार झेलने पड़े। विभिन्न कालों में इस किले पर दुर्धर्ष एवं घमासान युद्ध लड़े गये किन्तु अपने दुर्भेद्य स्वरूप और सुदृढ़ता के कारण कभी भी किले का आसानी से पतन नहीं हुआ। बल्कि हर आक्रान्ता को इस पर अधिकार करने के लिए अपनी जान की बाजी लगानी पड़ी।

यहाँ तक कि अलाउद्दीन खिलजी जैसा विजेता भी तीन वर्ष या इससे अधिक चलने वाले दीर्घकालिक घेरे के उपरान्त, जालौर दुर्ग पर अधिकार कर सका और वह भी एक विश्वासघाती द्वारा किले के गुप्त मार्ग का भेद देने के बाद । उक्त उदाहरण से इस किले की सुदृढ़ता का अनुमान किया जा सकता है। अपनी सुदृढ़ता के कारण जालौर दुर्ग (जालौर का किला) संकटकाल में जहाँ मारवाड़ (जोधपुर) के राजाओं का आश्रय स्थल रहा वहीं इसमें राजकीय कोष भी रखा जाता रहा ।

सोनगिरि पर्वतमाला पर बना जालौर का किला गिरि दुर्ग का सुन्दर उदाहरण है। क्षेत्रफल की दृष्टि से यह दुर्ग 800 गजा लम्बा और 400 गज चौड़ा है। आसपास की भूमि से यह लगभग 1200 फीट ऊँचा है।’ जालौर दुर्ग (जालौर का किला) के स्थापत्य की प्रमुख विशेषता यह है कि इसकी उन्नत प्राचीर ने अपनी विशाल बुर्जों सहित समूची पर्वतमाला को अपने में यों समाविष्ट कर लिया है कि इससे किले की सही स्थिति और रचना के बारे में बाहर से कुछ पता नहीं चलता, जिससे शत्रु भ्रम में पड़ जाता है ।

जालौर दुर्ग (जालौर का किला) के भीतर जाने के लिए मुख्य मार्ग शहर के भीतर से है जो टेढ़ा मेढ़ा व घुमावदार है तथा लगभग 5 कि०मी० लम्बा है। सर्पिलाकार प्राचीर से गुम्फित इस मार्ग में सूरजपोल किले का प्रथम प्रवेश द्वार है जिसकी धनुषाकार छत का स्थापत्य अपने शिल्प और सौन्दर्य के साथ सामरिक सुरक्षा की आवश्यकता का सुन्दर समावेश किये हुए है।

यह प्रवेश द्वार एक सुदृढ़ दीवार से इस प्रकार आवृत्त है कि आक्रान्ता शत्रु प्रवेश द्वार को अपना निशाना नहीं बना सके। इसके पाश्र्व में एक विशाल बुर्ज बनी है। दुर्ग का दूसरा प्रवेश द्वार ध्रुवपोल तीसरा चाँदपोल और चतुर्थ सिरेपोल भी बहुत मजबूत और विशाल हैं।

जालौर दुर्ग (जालौर का किला) के ऐतिहासिक स्थलों में महाराजा मानसिंह के महल और झरोखे, दो मंजिला रानी महल, प्राचीन जैन मन्दिर, चामुण्डा माता और जोगमाया के मन्दिर, दहियों की पोल, सन्त मल्लिकशाह की दरगाह प्रमुख और उल्लेखनीय हैं। किले में स्थित परमार कालीन कीर्ति स्तम्भ कला का उत्कृष्ट नमूना है।

जालौर के किले (जालौर का किला) का तोपखाना बहुत सुन्दर और आकर्षक है जिसके विषय में कहा जाता है कि यह परमार राजा भोज द्वारा निर्मित संस्कृत पाठशाला थी जो कालान्तर में दुर्ग के मुस्लिम अधिपतियों द्वारा मस्जिद में परिवर्तित कर दी गयी तथा तोपखाना मस्जिद कहलाने लगी। अजमेर में निर्मित भव्य संस्कृत पाठशाला की भी वही गति हुई तथा सम्प्रति वह अढ़ाई दिन का झोंपड़ा कहलाती है।

पहाड़ी के शिखर भाग पर निर्मित वीरमदेव की चौकी उस अप्रतिम वीर की यशोगाथा को संजोये हुए है। किले के भीतर जाबालिकुण्ड, सोहनबाव सहित अनेक जलाशय और विशाल बावड़ियाँ जलापूर्ति के मुख्य स्रोत हैं। दुर्ग के भीतर अन्न भंडार, सैनिकों के आवास गृह, अश्वशाला इत्यादि भवन भी बने हुए हैं। कान्हड़देप्रबन्ध में जालौर के इस प्राचीन किले (जालौर का किला) को एक विषम से की गयी है और दुर्भेद्य दुर्ग बताते हुए उसकी तुलना चित्तौड़, चम्पानेर, ग्वालियर आदि प्रसिद्ध दुर्गों से की गई हैं –

कणयाचल जगि जाणीइ, ठाम तर्णउ जावालि ।
तहीं लगइ जगिजालहुर, जण जंपड़ इण कालि ।।
विषम दुर्ग सुणीइ घणा इसिठ नहीं आसेर ।
जिसठ जालहुर जाणीइ, तिसठ नहीं ग्वालेर ।।
चित्रकूट तिसउ नहि, तिसठ नहीं चांपानेर ।
जिसठ जालहुर जाणीइ, तिसहु नहीं भामेर ।(

(जालौर का किला)

युग परिवर्तन के साथ स्वर्णिम अतीत का प्रहरी जालौर दुर्ग (जालौर का किला) समुचित संरक्षण और देखरेख के अभाव में काल के क्रूर प्रवाह को झेलता हुआ पूर्णत: श्रीहीन होकर विनाश के कगार पर खड़ा है। गौरवशाली इतिहास और सांस्कृतिक वैभव के धनी इस दुर्ग (जालौर का किला) को एक अच्छे पर्यटन केन्द्र के रूप में विकसित किया जाना चाहिए ।

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