रणथंभौर दुर्ग – सबसे ज़्यादा आक्रमण झेलने वाला किला।

Kheem Singh Bhati
15 Min Read
रणथंभौर दुर्ग - सबसे ज़्यादा आक्रमण झेलने वाला किला।

रणथंभौर दुर्ग। हम्मीर की आन और बान का प्रतीक रणथंभौर दुर्ग राजस्थान का एक प्राचीन एवं प्रमुख गिरि दुर्ग है जिसकी निराली शान और पहचान है। बीहड़ वन और दुर्गम घाटियों के मध्य अवस्थित यह दुर्ग अपनी नैसर्गिक सुरक्षा व्यवस्था, विशिष्ट सामरिक स्थिति और सुदृढ़ संरचना के कारण एक अजेय दुर्ग समझा जाता था।

अपनी इन अद्भुत विशेषताओं के कारण रणथम्भौर मध्यकाल में महत्त्वाकाँक्षी शासकों की लालसा तथा आक्रान्ताओं की आँखों की किरकिरी बना रहा । तत्कालीन राजपूताना में साम्राज्य विस्तार का कोई भी सपना रणथम्भौर लिए बिना अधूरा समझा जाता था।

दिल्ली से उसकी निकटता तथा मालवा और मेवाड़ के मध्य में स्थित होने के कारण रणथम्भौर दुर्ग पर निरन्तर आक्रमण होते रहे । गुलामवंशीय सुलतानों से लेकर आधुनिक काल में मरहठों तक रणथम्भौर पर आधिपत्य के लिए हुए संघर्षों की एक लम्बी दास्तान है ।

रणथंभौर दुर्ग - सबसे ज़्यादा आक्रमण झेलने वाला किला।
रणथंभौर दुर्ग – सबसे ज़्यादा आक्रमण झेलने वाला किला।

सवाई माधोपुर से लगभग 6 मील दूर रणथम्भौर अरावली पर्वत श्रृंखलाओं से घिरा एक विकट दुर्ग है। यह विषम आकृति वाली ऊँची नीची सात पर्वत श्रेणियों से घिरा है, जिनके बीच-बीच में गहरी खाइयाँ और नाले हैं, जो इस क्षेत्र में प्रवाहित होने वाली चम्बल और बनास नदियों से मिलते हैं।

रणथम्भौर दुर्ग एक ऊँचे (उत्तुंग) गिरि शिखर पर बना है तथापि इसकी स्थिति कुछ ऐसी विलक्षण है कि दुर्ग के निपट समीप जाने पर ही यह दिखाई देता है जैसे शून्य में से सहसा आविर्भूत हो गया।

रणथम्भौर का वास्तविक नाम रन्त:पुर है अर्थात् ‘रण की घाटी में स्थित नगर’ । ‘रण’ उस पहाड़ी का नाम है जो किले की पहाड़ी से कुछ नीचे है एवं थंभ (स्तम्भ) उसका, जिस पर यह किला बना है। इसी से इसका नाम रणस्तम्भपुर (रण+स्तम्भ+पुर) हो गया । हम्मीरायण में भी लिखा है कि रण और थंभ के बीच खाई है या नीची जमीन है –

‘रिण नई थंभ विचइ छइ त्रोटि’

रणथंभौर दुर्ग चतुर्दिक पहाड़ियों से घिरा है जो इसकी नैगर्सिक प्राचीरों का काम करती हैं। दुर्ग की इसी दुर्गम भौगोलिक स्थिति को लक्ष्य कर अबुल फजल ने लिखा है – “यह दुर्ग पहाड़ी प्रदेश के बीच में है। इसीलिए लोग कहते हैं कि और दुर्ग नंगे हैं परन्तु यह बख्तरबन्द है।” वीर विनोद के लेखक कविराजा श्यामलदास ने रणथंभौर दुर्ग के दुर्भेद्य.

स्वरूप को प्रकट करते हुए लिखा है’- “रणथम्भौर के हर तरफ गहरे और पेचदार नाले व पहाड़ हैं जो तंग रास्तों से गुजरते हैं। ऊपर जाकर पहाड़ी की बुलन्दी एकदम सीधी है ।

इतिहासकार ओझाजी ने रणथंभौर दुर्ग के प्राकृतिक परिवेश की चर्चा करते हुए लिखा है- रणथम्भौर का किला अंडाकृति वाले एक ऊँचे पहाड़ पर बना है जिसके प्राय: चारों ओर विशाल पहाड़ियाँ आ गई हैं जिनको किले की रक्षार्थ कुदरती दीवारें कहा जा सकता है ।

रणथंभौर दुर्ग - सबसे ज़्यादा आक्रमण झेलने वाला किला।
रणथंभौर दुर्ग – सबसे ज़्यादा आक्रमण झेलने वाला किला।

नाथावतों के इतिहास में रणथंभौर दुर्ग के भव्य स्वरूप का वर्णन करते हुए कहा गया है कि पहाड़ों के परकोटों तथा जंगली जानवरों से युक्त बीहड़ वन में उच्च पर्वत शिखर पर बना यह दुर्ग शिवपिण्ड पर रखे हुए बीलपत्र की भाँति फैला हुआ सुशोभित होता है ।
रणथम्भौर दुर्ग तक पहुँचने का मार्ग संकरी व तंग घाटी से होकर सर्पिलाकार में आगे जाता है । किला इस प्रकार बना है कि उसकी प्राचीर पहाड़ियों के साथ एकाकार हो गयी प्रतीत होती है।

रणथंभौर दुर्ग से सम्बन्धित प्रमुख ऐतिहासिक स्थानों में नौलखा दरवाजा, हाथीपोल, गणेशपोल, सूरजपोल और त्रिपोलिया प्रमुख प्रवेश द्वार हैं। त्रिपोलिया अंधेरी दरवाजा भी कहलाता है। इसके पास से एक सुरंग महलों तक गई है। इसके अलावा हम्मीर महल, रानी महल, हम्मीर की कचहरी, सुपारी महल, बादल महल, जौरां-भौरां, 32 खम्भों की छतरी, रनिहाड़ तालाब, पीर सदरूद्दीन की दरगाह, लक्ष्मीरानायण मंदिर (भग्न रूप में) जैन मंदिर तथा समूचे देश में प्रसिद्ध गणेश जी का मंदिर दुर्ग के प्रमुख स्थान हैं। किले के पार्श्व में पद्मला तालाब तथा अन्य जलाशय हैं ।

इतिहास प्रसिद्ध रणथम्भौर दुर्ग के निर्माण की तिथि तथा उसके निर्माताओं के बारे में प्रामाणिक जानकारी का अभाव है। इतिहासकारों की मान्यता है कि इस दुर्ग का निर्माण आठवीं शताब्दी ई० के लगभग अजमेर के चौहान शासकों द्वारा कराया गया।

अतुल पराक्रमी चौहान नरेश पृथ्वीराज तृतीय की तराइन के द्वितीय युद्ध (1192 ई०) में पराजय के फलस्वरूप चौहानों की शक्ति कमजोर हो गयी तथा पृथ्वीराज का पुत्र गोविन्दराज सामन्त शासक की हैसियत से रणथम्भौर की गद्दी पर बैठा ।

तत्पश्चात् रणथंभौर दुर्ग पर कभी चौहानों का तो कभी गुलामवंशीय सुलतानों का आधिपत्य रहा। कुतुबुद्दीन ऐबक, इल्तुतमिश और बलवन जैसे शक्तिशाली सुलतान रणथम्भौर पर आधिपत्य रखने में सफल हुए लेकिन कमजोर सुलतानों के शासनकाल में रणथम्भौर का चौहान राज्य स्वतन्त्र हो गया। खिलजी वंश के प्रथम सुलतान वयोवृद्ध जलालुद्दीन खिलजी ने रणथम्भौर लेने का प्रयास किया जो विफल रहा ।

रणथम्भौर का प्रसिद्ध साका (रणथंभौर दुर्ग)

रणथम्भौर को सर्वाधिक गौरव मिला यहाँ के वीर और पराक्रमी शासक राव हम्मीर देव चौहान के अनुपम त्याग और बलिदान से। हम्मीर ने सुलतान अलाउद्दीन खिलजी के विद्रोही सेनापति मीर मुहम्मदशाह (महमाँशाह) को अपने यहाँ शरण प्रदान की जिसे दण्डित करने तथा अपनी साम्राज्यवादी महत्त्वाकांक्षा की पूर्ति हेतु अलाउद्दीन ने 1300 ई० में रणथम्भौर पर एक विशाल सैन्यदल के साथ आक्रमण किया ।

पहले उसने अपने सेनापति नुसरत खाँ को रणथम्भौर विजय के लिए भेजा लेकिन किले की घेरेबन्दी करते समय हम्मीर के सैनिकों द्वारा दुर्ग से की गई पत्थर वर्षा से वह मारा गया ।

रणथंभौर दुर्ग - सबसे ज़्यादा आक्रमण झेलने वाला किला।
रणथंभौर दुर्ग – सबसे ज़्यादा आक्रमण झेलने वाला किला।

इस पर क्रुद्ध हो अलाउद्दीन स्वयं रणथम्भौर पर चढ़ आया तथा विशाल सेना के साथ दुर्ग को घेर लिया। पराक्रमी हम्मीर ने इस आक्रमण का जोरदार मुकाबला किया । हम्मीरायण में रणथम्भौर के इस घेरे का विस्तार से वर्णन हुआ है। उसके अनुसार सुलतान ने रेत के बोरे भर-भर कर दुर्ग की प्राचीर की ऊँचाई तक जमीन को पाटने का अपने सैनिकों को आदेश दिया।

अलाउद्दीन के साथ आया इतिहासकार अमीर खुसरो युद्ध के घटनाक्रम का वर्णन करते हुए लिखता है कि सुलतान ने किले के भीतर मार करने के लिए पाशेब (विशेष प्रकार के चबूतरे) तथा गरगच तैयार करवाये और मगरबी (ज्वलनशील पदार्थ फेंकने का यन्त्र) व अर्रादा (पत्थरों की वर्षा करने वाला यन्त्र) आदि की सहायता से आक्रमण किया।

उधर हम्मीरदेव के सैनिकों ने दुर्ग के भीतर से अग्निबाण चलाये तथा मंजनीक व ढेकुली यन्त्रों द्वारा अलाउद्दीन के सैनिकों पर विशाल पत्थरों के गोले बरसाये । दुर्गस्थ जलाशयों से तेज बहाव के साथ पानी छोड़ा गया, जिससे खिलजी सेना को भारी क्षति हुई ।

इस तरह रणथम्भौर का घेरा लगभग एक वर्ष तक चला । अन्ततः अलाउद्दीन ने छल और कूटनीति का आश्रय लिया तथा हम्मीर के दो मंत्रियों रतिपाल और रणमल को बूंदी का परगना इनायत करने का प्रलोभन देकर अपनी ओर मिला लिया।

इस विश्वासघात के फलस्वरूप हम्मीर को पराजय का मुख देखना पड़ा। अंततः उसने केसरिया करने की ठानी। दुर्ग की ललनाओं ने जौहर का अनुष्ठान किया तथा राव हम्मीर अपने कुछ विश्वस्त सामन्तों तथा महमाँशाह सहित दुर्ग से बाहर आ शत्रु सेना युद्ध करता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ ।

जुलाई 1301 ई० में रणथम्भौर पर अलाउद्दीन का अधिकार हो गया । इस प्रकार राव हम्मीर चौहान ने शरणागत वत्सलता के आदर्श का निर्वाह करते हुए राज्यलक्ष्मी सहित अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया। हम्मीर की आन के सम्बन्ध में कहा गया यह दोहा लोक में आज भी प्रसिद्ध हैं –

सिंघ गमन, सत्पुरुष, वंच, कदली फलै इक बार ।
तिरिया तेल, हम्मीर हठ, चढै न दूजी बार ।।

हम्मीर के इस अद्भुत त्याग और बलिदान से प्रेरित हो संस्कृत, प्राकृत, राजस्थानी व हिन्दी आदि सभी प्रमुख भाषाओं में कवियों ने उसे अपना चरित्रनायक बनाकर उसका यशोगान किया है। इनमें नयचन्द्र सूरी कृत हम्मीर महाकाव्य, व्यास भाँडउ रचित हम्मीरायण, जोधराज और महेश विरचित हम्मीररासो तथा चन्द्रशेखर कृत हम्मीर हठ प्रमुख और उल्लेखनीय हैं ।

डॉ० दशरथ ने हम्मीर के शौर्य और बलिदान की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि उसमें वे सब गुण थे, जो एक आदर्श राजपूत चरित्र में होने चाहिए, लेकिन पड़ौसी राज्यों के प्रति आक्रामक नीति का अनुसरण कर उसने अपनी स्थिति कमजोर बना ली ।

‘ इसके अलावा अत्यधिक कर वृद्धि ने भी उसे प्रजाजनों में अलोकप्रिय बना दिया। हम्मीरायण का उल्लेख है कि अलाउद्दीन द्वारा रणथम्भौर की घेरेबन्दी होने पर बनिये हाट में बैठे हँसते रहे । योग्य मंत्रियों पर अविश्वास के कारण भी हम्मीर सुलतान अलाउद्दीन का पूरी क्षमता से सामना नहीं कर पाया, लेकिन इन सबके बावजूद हम्मीर का बलिदान महान् है ।

अलाउद्दीन खिलजी के अधिकार में रहने के बाद रणथम्भौर पर तुगलकवंशीय सुलतानों का आधिपत्य रहा, लेकिन 1398 ई० में तैमूर के आक्रमण के बाद दिल्ली की केन्द्रीय सत्ता निर्बल हो गयी तथा रणथम्भौर पर अधिकार करने के लिए राणा कुम्भा और मालवा के सुलतान महमूद खलजी के मध्य संघर्ष चला।

तदनन्तर यह दुर्ग मेवाड़ के राणा साँगा के पास रहा। बाबर के विरुद्ध खानवा के युद्ध में लड़ते हुए घायल हो जाने पर राणा साँगा को रणथम्भौर लाया गया। राणा साँगा ने यह किला अपनी हाड़ी रानी कर्मवती और उसके पुत्रों युवराज विक्रमादित्य और उदयसिंह को प्रदान किया ।

1533 ई० में गुजरात के सुलतान बहादुरशाह ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया तो राजमाता कर्मवती ने बहादुरशाह से संधि कर ली तथा संधि की शर्त के अनुरूप रणथम्भौर दुर्ग बहादुरशाह को दे दिया। 1542 ई० में शेरशाह सूरी ने रणथम्भौर ले लिया तथा अपने पुत्र आदिलखाँ को वहाँ का दुर्गाध्यक्ष नियुक्त किया।

तदनन्तर यह दुर्ग बूंदी के राव सुरजन हाड़ा के अधिकार में आ गया । मुगल सम्राट अकबर ने चित्तौड़ विजय के बाद रणथम्भौर विजय का अभियान किया तथा फरवरी 1569 ई० में विशाल सेना के साथ रणथम्भौर दुर्ग को घेर लिया।

अबुल फजल ने लिखा है कि किले (रणथंभौर दुर्ग) की तलहटी में रण की घाटी के पास ऊँचा साबात तैयार किया गया । आक्रमण के लिए इतनी भारी तोपें लगायी गयीं, जिन्हें बैलों की दो सौ जोड़ियाँ भी मुश्किल से खींच पातीं। इन तोपों के द्वारा साठ मन के पत्थर के गोले फेंके जा सकते थे। बादशाह की आज्ञा से जब तोपें चलायी गयीं तो दुर्ग की प्राचीर टूटने लगी तथा मकानों में दरारें पड़ गयीं।

लगभग सवा महीने के घेरे के बाद आम्बेर के राजा भगवन्तदास के प्रयासों से रणथम्भौर के अधिपति सुरजन हाड़ा ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली और रणथम्भौर दुर्ग उसे सौंप दिया। फलतः रणथम्भौर पर मुगलों का अधिकार हो गया। बादशाह अकबर ने अजमेर सूबे में रणथम्भौर को भी एक सरकार का दर्जा प्रदान किया । उसने रणथम्भौर में शाही टकसाल भी स्थापित की।

अकबर ने शासनकाल में रणथम्भौर जगन्नाथ कछवाहा की जागीर में रहा । जहाँगीर ने रणथम्भौर के सामरिक महत्त्व को ध्यान में रखकर उसे केन्द्रीय शासन के अधीन कर लिया। तत्पश्चात् शाहजहाँ ने रणथम्भौर दुर्ग अपने विश्वस्त सामन्त विट्ठलदास गौड़ को इनायत किया, परन्तु औरंगजेब ने इसे फिर से केन्द्रीय शासन के नियन्त्रण में ले लिया। मुगलकाल में रणथम्भौर दुर्ग का शाही कारागार के रूप में भी उपयोग किया गया ।

मुगल साम्राज्य के पराभव के उपरान्त जयपुर के महाराजा सवाई माधोसिंह प्रथम के शासनकाल में उनके प्रमुख सामन्त पचेवर के अनूपसिंह खंगारोत के प्रयासों से रणथम्भौर दुर्ग जयपुर राज्य में सम्मिलित कर लिया गया जो स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद रियासतों के राजस्थान में विलीनीकरण तक रहा।

इस बीच, रणथंभौर दुर्ग पर अपना आधिपत्य स्थापित करने के लिए जयपुर रियासत तथा मरहठों के बीच अनेक संघर्ष हुए जिनमें काकोड़ (उणियारा) की लड़ाई प्रमुख है। सारत: रणथंभौर दुर्ग अपने में शौर्य, त्याग और उत्सर्ग की एक गौरवशाली धरोहर संजोये हुए है।

देश विदेश की तमाम बड़ी खबरों के लिए निहारिका टाइम्स को फॉलो करें। हमें फेसबुक पर लाइक करें और ट्विटर पर फॉलो करें। ताजा खबरों के लिए हमेशा निहारिका टाइम्स पर जाएं।

Share This Article