चित्तौड़ का किला (चित्तौड़ दुर्ग) – वीरता और शौर्य की क्रीड़ास्थली एवं त्याग व बलिदान का पावन तीर्थ चित्तौड़ का किला राजस्थान का गौरव है । स्वतन्त्रता और स्वाभिमान के प्रतीक इस किले के साथ हजारों क्षत्रिय योद्धाओं की वीरता और पराक्रम के अनगिनत रोमांचक प्रसंग जुड़े हैं जिनसे इतिहास के पृष्ठ आलोकित हैं। यह दुर्ग सैकड़ों राजपूत ललनाओं द्वारा शत्रु से अपनी अस्मिता की रक्षार्थ जौहर का अनुष्ठान कर अपना बलिदान देने की घटनाओं का साक्षी रहा है । रानी पद्मिनी, राजमाता कर्मवती सहित सहस्त्रों वीरांगनाओं के जौहर, वीर गोरा बादल, जयमल और कल्ला राठौड़ व पत्ता सिसोदिया के अपूर्व पराक्रम और बलिदान का पावन स्थल चित्तौड़ का किला इतिहास में अपना कोई सानी नहीं रखता । मातृभूमि और स्वाभिमान की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने वाले वीरों की जो रोमांचक गाथाएँ इस किले से सम्बन्धित हैं वे अन्यत्र दुर्लभ हैं । इसी कारण चित्तौड़ दुर्ग (चित्तौड़ का किला) सब किलों का सिरमौर माना जाता है। इसके लिए लोक में यह उक्ति प्रचलित है ‘गढ़ तो चित्तौड़गढ़ बाकी सब गदैया’ जो इसकी देशव्यापी ख्याति का प्रमाण है।
चित्तौड़ का किला (चित्तौड़ दुर्ग) अजमेर से खण्डवा जाने वाले रेलमार्ग पर चित्तौड़गढ़ जंक्शन से 3-4 कि०मी० दूर गंभीरी व बेड़च नदियों के संगम स्थल के समीप अरावली पर्वतमाला के एक विशाल पर्वत शिखर पर बना है। समुद्रतल से इसकी ऊँचाई लगभग 1850 फीट है। क्षेत्रफल की दृष्टि से इसकी लम्बाई लगभग 8 कि०मी० व चौड़ाई 2 कि०मी० है। दिल्ली से मालवा और गुजरात जाने वाले मार्ग पर अवस्थित होने के कारण प्राचीन और मध्यकाल में इस किले का विशेष सामरिक महत्त्व था ।
चित्तौड़ का किला महाभारत काल में भी विद्यमान था।
चित्तौड़ का किला एक प्राचीन दुर्ग है । इसके निर्माता के बारे में प्रामाणिक जानकारी का अभाव है । जनश्रुति के अनुसार यह किला महाभारत काल में भी विद्यमान था । उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर पता चलता है कि इसका सम्बन्ध मौर्य वंशीय शासकों से था । मेवाड़ के इतिहासग्रंथ वीरविनोद के अनुसार मौर्य राजा चित्रंग (चित्रांगद) ने यह किला बनवाकर अपने नाम पर इसका नाम चित्रकोट रखा था, उसी का अपभ्रंश चित्तौड़ है। इतिहासकार कर्नल टॉड को उपलब्ध वि० संवत 770 के एक शिलालेख’ में उक्त मौर्य शासक का उल्लेख आया है। इस वंश का अंतिम शासक मानमोरी था, जिसके द्वारा निर्मित एक तालाब किले के भीतर आज भी विद्यमान है। मेवाड़ में गुहिल राजवंश के संस्थापक बप्पा रावल ने इस अंतिम मौर्य शासक को पराजित कर आठवीं शताब्दी ई० के लगभग चित्तौड़ पर अधिकार कर लिया । तत्पश्चात मालवे के परमार राजा मुंज ने इसे अपने राज्यान्तर्गत किया तथा फिर गुजरात के प्रतापी सोलंकी नरेश सिद्धराज जयसिंह ने चित्तौड़ के इस ऐतिहासिक दुर्ग पर अपनी विजय पताका फहरायी। बारहवीं शताब्दी ई० के लगभग चित्तौड़ पर पुनः गुहिल राजवंश का आधिपत्य हुआ । वस्तुतः चित्तौड़ के किले पर अधिकार करने के लिए जितने युद्ध लड़े गये उतने शायद ही किसी अन्य किले के लिए लड़े गये हों । यद्यपि इस किले पर अधिकांशत: मेवाड़ के गुहिल राजवंश का आधिपत्य रहा तथापि विभिन्न कालों में यह मौर्य, प्रतिहार, परमार सोलंकी, खिलजी, सोनगरे चौहानों और मुगल शासकों के भी अधीन रहा ।
चित्तौड़ दुर्ग में तीन इतिहास प्रसिद्ध साके हुए। (चित्तौड़ का किला)
चित्तौड़ दुर्ग (चित्तौड़ का किला) में तीन इतिहास प्रसिद्ध साके हुए। पहला सन् 1303 में हुआ जब दिल्ली के सुलतान अलाउद्दीन खिलजी ने रणथम्भौर विजय के बाद चित्तौड़ को आक्रान्त किया। अलाउद्दीन के आक्रमण के मूल में उसकी साम्राज्यवादी महत्त्वाकांक्षा तो थी ही चित्तौड़ के राणा रतनसिंह की अनिंद्य सुन्दरी रानी पद्मिनी को पाने की अभिलाषा भी प्रच्छन्नतः निहित थी। अलाउद्दीन का दरबारी कवि और लेखक अमीर खुसरो चित्तौड़ के इस अभियान में सुलतान के साथ था। उसने अपनी कृति ‘तारीख ए अलाई’ में इस आक्रमण का वृत्तान्त दिया है। उसके अनुसार 28 जनवरी 1303 ई० को सुलतान अलाउद्दीन चित्तौड़ लेने के लिए दिल्ली से रवाना हुआ और वहाँ आकर चित्तौड़ के किलें को घेर लिया। लगभग छह माह के घेरे के बाद अगस्त 1303 ई० में किला फतह हुआ। चित्तौड़ के राणा रतनसिंह ने वीर गोरा-बादल सहित अपने सुभट सामन्तों के साथ शत्रु सेना का डटकर मुकाबला किया। भीषण युद्ध के बाद जब विजय की कोई आशा नहीं रही तो राजपूतों ने ‘केसरिया’ किया । अर्थात् वे किले से बाहर निकलकर शत्रु सेना पर टूट पड़े तथा रानी पद्मिनी सहित दुर्ग की अन्य राजपूत ललनाओं ने जौहर का अनुष्ठान किया। अमीर खुसरो ने लिखा है कि तीस हजार हिन्दुओं को कत्ल करने की आज्ञा देने के पश्चात सुलतान ने चित्तौड़ दुर्ग अपने पुत्र खिज्रखाँ को सौंप दिया और उसका नाम खिजराबाद रख दिया गया । कुछ वर्षों तक (सम्भवतः 1311ई० तक) चित्तौड़ पर खिज्रखाँ का अधिकार रहा जिसने वहाँ अपने शासन की अवधि में गंभीरी नदी पर पाषाण का एक सुदृढ़ पुल बनवाया जो आज भी मौजूद है। इतिहासकार ओझाजी’ के अनुसार मुस्लिम-सारसेनिक शैली पर बने दस मेहराबों वाले इस पुल के निर्माण में सम्भवत: कई हिन्दू एवं जैन मन्दिरों को गिराकर उनके पत्थरों का उपयोग किया गया है। तदनन्तर अलाउद्दीन खिलजी ने जालौर के कान्हड़दे सोनगरा के भाई मालदेव सोनगरा को, जो इतिहास में ‘मालदेव मूंछाला’ के नाम से विख्यात है चित्तौड़ का हाकिम नियुक्त किया। अलाउद्दीन की मृत्यु के बाद गुहिल वंशीय हम्मीर ने (जो कि मेवाड़ के सीसोद संस्थान का स्वामी था) • सोनगरों से चित्तौड़ ले लिया। अपने उक्त पैतृक संस्थान के नाम पर ही उसके वंशज सिसोदिया कहलाये । हम्मीर की इस सफलता में बारू चारण व उसकी माँ बिरवड़ी की भूमिका प्रमुख रही ।
मेवाड़ के यशस्वी शासक राणा कुम्भा के शासन काल (1433-1468ई०) में चित्तौड़ अपनी समृद्धि और कीर्ति की पराकाष्ठा पर पहुँचा । राणा कुम्भा ने शक्तिशाली शत्रुओं-मालवा और गुजरात के सुलतानों से न केवल अपने पैतृक राज्य को सुरक्षित रखा बल्कि यथा अवसर उसका विस्तार भी किया । कुम्भा एक महान निर्माता था । अपने राज्य की सुरक्षा के लिए उसने छोटे बड़े 32 किलों का निर्माण व जीर्णोद्धार करवाया । एकलिंग माहात्म्य, कीर्तिस्तम्भ प्रशस्ति और कुम्भलगढ़ शिलालेख से कुम्भा के निर्माण कार्यों की विस्तृत जानकारी मिलती है। कुम्भा ने चित्तौड़ के प्राचीन किले का जीर्णोद्धार करवाया तथा उसकी सुदृढ़ प्राचीर, उन्नत बुर्जों व विशाल प्रवेश द्वारों का निर्माण करवाकर एक अभेद्य दुर्ग का स्वरूप प्रदान किया । विविध उपायों के द्वारा उन्होंने चित्रकूट दुर्ग को विचित्रकूट अर्थात् रहस्यमय और दुर्भेद्य किला बना दिया।
यथा — असौ शिरोमंडन चन्द्रतारं विचित्र कूट किलचित्रकूट
वीरविनोद के अनुसार चित्तौड़ का किला
वीरविनोद’ के अनुसार कुम्भा ने चित्तौड़ के किले पर कीर्तिस्तम्भ (विजयस्तम्भ) कुम्भश्याम मन्दिर, लक्ष्मीनाथ मन्दिर, रामकुण्ड इत्यादि बनवाये । उसने कुकड़ेश्वर के कुण्ड का जीर्णोद्धार करवाया और किले का रास्ता जो बड़ा विकट और पहाड़ी था उसमें चार दरवाजे और परकोटा तैयार करवाकर उसे दुरुस्त करवाया । इस सम्बन्ध में इतिहासकार ओझाजी ने लिखा है कि पहले चित्तौड़ के किले पर जाने के लिए रथमार्ग (सड़कं) नहीं था इसलिए कुम्भा ने रथमार्ग बनवाया और किले में सात प्रवेश द्वार (रामपोल, हनुमानपोल, भैरवपोल, महालक्ष्मीपोल, चामुण्डापोल, तारापोल ओर राजपोल) बनवाये। उसने वहाँ आदिवराह का मन्दिर, जलयन्त्र (अरहट) सहित कई तालाब एवं बावड़ियाँ भी बनवाई।
तदनन्तर राणा सांगा मेवाड़ का पराक्रमी शासक हुआ। उसने विविध विजयों के द्वारा अपनी शक्ति और प्रभुत्व का विस्तार किया। अनेक राजपूत राजा और सामन्त उसके नेतृत्व में 1527 ई० के इतिहास प्रसिद्ध खानवा युद्ध में बाबर के विरुद्ध लड़े। लेकिन उक्त युद्ध में पराजय के फलस्वरूप मेवाड़ राज्य की शक्ति क्षीण हो गई। पहले रतनसिंह और फिर विक्रमादित्य मेवाड़ की गद्दी पर बैठे। विक्रमादित्य के शासन काल में गुजरात के सुलतान बहादुरशाह ने चित्तौड़ पर दो बार आक्रमण किये । अपने पहले आक्रमण (1532-33ई०) में तो बहादुरशाह मांडू के सुलतान महमूद खलजी से पूर्व में मेवाड़ द्वारा छीने गये मालवा के कुछ सूबे और रत्नाभूषणों की भेंट लेकर वापस लौट गया परन्तु मेवाड़ की कमजोर सैन्य स्थिति को देखकर उसके हौसले बढ़ गये । बहादुरशाह चित्तौड़ के सुदृढ़ दुर्ग पर अपना अधिकार स्थापित करने के सुअवसर को गँवाना नहीं चाहता था। अतः 1534 ई० में वह एक विशाल सेना के साथ चित्तौड़ पर आ धमका तथा किले को घेर लिया। उसने अपने सेनापति रूमीखाँ को इस अभियान का नेतृत्व सौंपा तथा किले के फतह होने पर उसे चित्तौड़ का हाकिम बनाने का आश्वासन दिया । इधर युद्ध में मेवाड़ की विजय की कोई आशा न देख अल्पवय में महाराणा विक्रमादित्य को छोटे भाई उदयसिंह के साथ उसके ननिहाल बूंदी भेज दिया गया तथा देवलिया प्रतापगढ़ के रावत बाघसिंह के नेतृत्व में मेवाड़ के वीर योद्धाओं ने आक्रान्ता से लोहा लिया । बहादुरशाह के सैनिकों ने बारूदी सुरंग के विस्फोट द्वारा किले की लगभग 45 गज प्राचीर उड़ा दी जिसके फलस्वरूप भीषण युद्ध प्रारंभ हो गया । इतिहास ग्रन्थ वीर विनोद के अनुसार बहादुरशाह ने जलेब (आगे) में तोपें रखकर पाडलपोल, सूरजपोल व लाखोटा बारी की तरफ से हमला किया । तब भीतर के बहादुरों ने भी किले के दरवाजों के किंवाड़ खोल दिये ओर बड़ी दिलेरी के साथ गुजराती फौज पर टूट पड़े। देवलिया प्रतापगढ़ के रावत बाघसिंह पाडलपोल दरवाजे के बाहर राणा सज्जा व सिंहा हनुमानपोल के बाहर तथा इसी तरह सैकड़ों योद्धा विभिन्न स्थलों पर लड़ते भिड़ते काम आये । राजमाता हाड़ी कर्मवती और दुर्ग की अन्य सैकड़ों क्षत्रिय वीरांगनाओं ने जौहर की ज्वाला प्रज्वलित कर अपने प्राणों की आहुति दे दी। बहादुरशाह का चित्तौड़ के किले पर अधिकार हो गया । यह युद्ध इतिहास में चित्तौड़ के दूसरे साके के नाम से प्रसिद्ध है ।
चित्तौड़ का तीसरा साका (चित्तौड़ का किला)
चित्तौड़ का तीसरा साका 1567ई० में हुआ जब मुगल बादशाह अकबर ने एक विशाल सेना के साथ चित्तौड़ पर चढ़ाई की। इस समय चित्तौड़ पर राणा उदयसिंह का शासन था। अकबर के इस आक्रमण का प्रमुख कारण यह था कि वह राजपुताना के सर्वाधिक शक्तिशाली दुर्ग चित्तौड़ पर अपना आधिपत्य स्थापित करना चाहता था। मालवा और गुजरात के मार्ग पर अवस्थित होने के कारण चित्तौड़ का सामरिक दृष्टि से बहुत महत्त्व था । इसके अलावा चित्तौड़ पर अधिकार कर वह अन्य राजपूत राज्यों को अपनी अधीनता स्वीकार करने के लिए प्रेरित करना चाहता था । आम्बेर राजघराने के साथ 1562 ई० में वैवाहिक सम्बन्ध के द्वारा राजनैतिक मित्रता का सूत्रपात हो को चुका था । राणा उदयसिंह ने मालवा के पदच्युत शासक बाजबहादुर अपने यहाँ शरण देकर अकबर के लिए चित्तौड़ पर आक्रमण करने का अवसर उपस्थित कर दिया ।
वीर विनोद का उल्लेख है कि जिस समय अकबर धौलपुर में था, राणा उदयसिंह का छोटा पुत्र शक्तिसिंह उसकी सेवा में उपस्थित हुआ । शक्तिसिंह अपने पिता उदयसिंह से किसी कारणवश रुष्ट अथवा नाराज होकर बादशाह की सेवा में आया था लेकिन जब शक्तिसिंह को अकबर के मेवाड़ पर आक्रमण करने के इरादे का पता लगा तो वह चुपचाप वहाँ से अपने पिता के पास वापस चित्तौड़ लौट गया और संभावित आक्रमण के प्रति सावचेत किया । तदुपरान्त अकबर गागरोण होता हुआ चित्तौड़ की तरफ बढ़ा । इस बीच उसने एक अग्रिम सेना भेजकर मांडलगढ़ दुर्ग पर भी अधिकार कर लिया । इस प्रकार अकबर मांडलगढ़ होता हुआ अक्टूबर 1567ई० में चित्तौड़ पहुँच गया तथा प्राचीन कस्बे नगरी के निकट अपना शिविर कायम किया । इधर राणा उदयसिंह जयमल राठौड़, पत्ता सिसोदिया तथा अन्य प्रमुख सामन्तों पर किले की सुरक्षा का भार छोड़कर अपनी रानियों और परिवार के अन्य सदस्यों सहित निकटवर्ती पहाड़ों में सुरक्षित स्थान पर चला गया। उस समय चित्तौड़ के किले में लगभग आठ हजार राजपूत योद्धा मुगल सेना का मुकाबला करने के लिए तैयार थे । एक खड़ी पहाड़ी पर बने चित्तौड़ के विशाल दुर्ग की घेराबन्दी करने में अकबर को लगभग एक माह का समय लगा। वीर विनोद’ के अनुसार तीन तरफ से मोर्चा लगाया गया । खुद बादशाह ने किले के उत्तर की तरफ लाखोटा दरवाजे की ओर, दूसरा मोर्चा पूर्व में सूरजपोल की तरफ तथा तीसरा किले के दक्षिण में चित्तौड़ी बुर्ज की ओर लगा । इसके अलावा उक्त बुर्ज की तरफ दो बारूदी सुरंगें बिछायी गयीं तथा मोर्चे वालों की आड़ के लिए पेचदार छत्ता व साबात भी बनाये गये । इतिहासकार ओझाजी ने फारसी ग्रन्थों के हवाले से लिखा है कि साबात ऊपर से ढ़का हुआ एक चौड़ा रास्ता होता था जिसमें किले के ऊपर से होने वाले आक्रमण से सुरक्षित रहकर हमला करने वाले किले के पास तक पहुँच जाते थे। अकबर ने दो ऐसे साबात बनवाये जो बादशाही डेरे के सामने थे। वे इतने चौड़े थे कि उनमें दो हाथी और दो घोड़े साथ चल सकें, ऊँचे इतने थे कि हाथी पर बैठा हुआ आदमी भाला खड़ा किये जा सके । एक साबात किले की दीवार तक पहुँच गया । साबात की चमड़े की छत पर बादशाह के लिए बैठक थी जिस पर अकबर स्वयं अपनी बन्दूक लेकर बैठता और अपने सैनिकों को आवश्यक निर्देश देता । अबुल फजल ने लिखा है कि साबात की रक्षा करते समय लगभग 200 आदमी रोजाना राजपूतों के हमलों से मर जाते थे। कारीगरों के बचावके लिए गाय भैंस के मोटे चमड़े की छावन थी तो भी वे इतने मरे कि ईंट पत्थर की तरह लाशें चुनी गयीं । अकबर ने साबात बनाने वालों को उदारता से धन दिया । चित्तौड़ी पहाड़ी की तरफ से दो सुरंगें किले की तलहटी तक पहुँच गयीं जिनमें भारी मात्रा में बारूद भरकर विस्फोट किया गया। इससे किले की एक बुर्ज और प्राचीर का बहुत सारा हिस्सा उड़ गया । राजपूतों के अलावा मुगल सैनिक भी बड़ी संख्या में मारे गये । एक दिन रात के समय जब जयमल राठौड़ किले की टूटी हुई दीवार की मरम्मत करवाने के लिए निर्देश देता हुआ किले की प्राचीर के पास इधर उधर घूम रहा था तब अकबर ने अपनी संग्राम नामक बन्दूक से उस पर गोली चलाई जो जयमल के पैर में लगी और वह घायल हो गया। इधर किले के भीतर रसद सामग्री लगभग समाप्त हो चली थी। अत: अन्य कोई उपाय न देख दुर्ग की राजपूत ललनाओं ने जौहर का अनुष्ठान किया और हजारों क्षत्रिय योद्धा केसरिया वस्त्र पहनकर किले से बाहर निकले और शत्रु सेना पर टूट पड़े। अकबर की गोली से घायल जयमल राठौड़ को उसके कुटुम्बी (भाई) कल्ला ने अपने कंधे पर बिठा लिया तथा दोनों क्षत्रिय वीर तलवार से शत्रु सेना का संहार करते हुए वीरता और पराक्रम की अनूठी मिसाल पेश कर हनुमानपोल और भैरवपोल के बीच वीरगति को प्राप्त हुए। वीर पत्ता किले के भीतर प्रवेश करती हुई शाही सेना के साथ दुर्धर्ष युद्ध करता हुआ रामपोल के भीतर अपने प्रमुख योद्धाओं सहित काम आया। मेवाड़ के प्राय: सभी संस्थानों के योद्धा शत्रु से लड़ते हुए काम आये। राजपूत योद्धाओं के सशक्त और प्रबल प्रतिरोध से कुपित हो अकबर ने किले के भीतर आश्रय लिए हुए निरीह प्रजाजनों का भी कत्लेआम करने की आज्ञा दी जिससे लगभग 30,000 व्यक्ति मारे गये। इस तरह 25 फरवरी 1568 ई० को अकबर का चित्तौड़ दुर्ग (चित्तौड़ का किला) पर अधिकार हो गया। आसफखाँ पर किले की रक्षा का दायित्व छोड़कर अकबर अजमेर चला गया। तदनन्तर जयमल और पत्ता की वीरता पर मुग्ध होकर अकबर ने आगरा के किले के प्रवेश द्वार के बाहर उनकी हाथी पर सवार संगमरमर की प्रतिमायें स्थापित करवायीं जो औरंगजेब के समय तक वहाँ विद्यमान थी ।
चित्तौड़ का किला शौर्य और पराक्रम की पावन भूमि चित्तौड़ के लिए इतिहासकार कर्नल टॉड’ की यह उक्ति कितनी सटीक और मार्मिक है – “There is a sanctity in the very name of Cheetore, which from earliest 23 times secured her defenders”.
चित्तौड़ का किला स्थापत्य की दृष्टि से अनूठा
वीरता और बलिदान की घटनाओं के लिए तो चित्तौड़ (चित्तौड़ का किला) प्रसिद्ध है ही साथ ही स्थापत्य की दृष्टि से भी चित्तौड़ का किला अपने ढंग का एक निराला दुर्ग है। गंभीरी और बेड़च नदियों के संगमस्थल के समीप एक विशाल पर्वत शिखर पर बना यह प्राचीन किला गिरि दुर्ग का सुन्दर उदाहरण है। कौटिल्य के इस आदर्श का कि एक सुरक्षित किला वह है जो नदियों के संगमस्थल पर बना हो इसके स्थापत्य में निर्वाह हुआ है । सुदृढ़ और घुमावदार प्राचीर, उन्नंत और विशाल बुजें, सात अभेद्य प्रवेश किले पर पहुँचने का टेढ़ा मेढ़ा सर्पिल मार्ग इन सब विशेषताओं ने इसे एक विकट दुर्ग का रूप प्रदान किया है। किले पर जाने का प्रमुख मार्ग पश्चिम की ओर से है जो शहर के भीतर से पुरानी कचहरी के पास से जाता है। इस मार्ग में सात विशाल प्रवेश द्वार हैं जो एक सुदृढ़ प्राचीर द्वारा परस्पर जुड़े हैं। इनमें प्रथम दरवाजा पाडनपोल (पाटवनपोल, अर्थात् मुख्य या बड़ा दरवाजा) कहलाता है। इसके पार्श्व में प्रतापगढ़ के रावत बाघसिंह का स्मारक बना है जो चित्तौड़ (चित्तौड़ का किला) के दूसरे साके के समय बहादुरशाह की सेना से जूझते हुए वीरगति को प्राप्त हुए थे। किले का दूसरा प्रवेश द्वार भैरवपोल और तीसरा हनुमानपोल कहलाते हैं जहाँ पर उक्त देवताओं की प्रतिमायें प्रतिष्ठापित है।
इन दोनों ऐतिहासिक दरवाजों के मध्य अकबर की सेना को लोहे के चने चबवाने वाले अतुल पराक्रमी जयमल और कल्ला राठौड़ की छतरियाँ बनी हैं जो 1567 ई० के उस दुर्धर्ष युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए थे। तत्पश्चात गणेशपोल, जोड़लापोल और लक्ष्मणपोल दुर्ग के अन्य प्रवेश द्वार आते हैं। सातवाँ और अन्तिम दरवाजा रामपोल है जिसके सामने मेवाड़ के आमेठ ठिकाने के यशस्वी पूर्वज पत्ता सिसोदिया का स्मारक है जिसने तीसरे साके के समय आक्रान्ता से जूझते हुए प्राणोत्सर्ग किये थे । पूर्व की ओर सूरजपोल चित्तौड़ दुर्ग (चित्तौड़ का किला) का प्राचीन प्रवेश द्वार है। उत्तर और दक्षिण दिशा में लघु प्रवेश द्वार या खिड़कियाँ बनी हैं जिनमें उत्तरी दिशा की खिड़की लाखोटा की बारी कहलाती है ।
चित्तौड़ दुर्ग के महल (चित्तौड़ का किला)
चित्तौड़ के किले (चित्तौड़ का किला) के भीतर अनेक पुराने महल, भव्य देव मन्दिर, कीर्ति स्तम्भ, अथाह पानी वाले जलाशय, विशाल बावड़ियाँ, शस्त्रागार, अन्न भंडार, गुप्त सुरंग इत्यादि विद्यमान हैं। इनमें महाराणा कुम्भा के द्वारा निर्मित भव्य राजमहल परम्परागत हिन्दू स्थापत्य कला के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। भारतीय वास्तुशास्त्र के आदर्शों के अनुरूप निर्मित ये भवन यद्यपि बहुत कुछ भग्न और खण्डित हो गये हैं तथापि अपने इस रूप में भी सुन्दर और आकर्षक लगते हैं। इन महलों के नीचे एक विशाल तहखाना बना हुआ है जहाँ से एक गुप्त सुरंग शीतल जल के विशाल कुण्ड गोमुख तक जाती थी । लोकप्रवाद है कि इसके भीतर जौहर हुआ था। किले के भीतर विभिन्न शासकों द्वारा निर्मित पुराने राजमहल भी विद्यमान हैं। इनमें जाने के लिए ‘बड़ी पोल’ दरवाजा है। वहाँ से आगे चलने पर त्रिपोलिया नामक दूसरा दरवाजा आता है ।
महाराणा कुम्भा द्वारा निर्मित विजय स्तम्भ अथवा कीर्ति स्तम्भ चित्तौड़ के किले (चित्तौड़ का किला) का एक प्रमुख आकर्षण है तथा अपने शिल्प और स्थापत्य की दृष्टि से अनूठा है 1 नौ खण्डों वाला यह कीर्ति स्तम्भ लगभग 120 फीट ऊँचा है। उसके नौ खण्ड या मंजिलें नवनिधियों की प्रतीक हैं। लोकविश्वास के अनुसार महाराणा कुम्भा ने मांडू (मालवा) के सुलतान महमूद खलजी पर अपनी विजय के उपलक्ष्य में (1440ई० ) इसका निर्माण करवाया जिसकी प्रतिष्ठा वि० संवत 1505 (1448ई०) में हुई। इस कीर्ति स्तम्भ की सबसे उल्लेखनीय विशेषता यह है कि इसमें अनेक हिन्दू देवी देवताओं जैसे ब्रह्मा, विष्णु, शिव, पार्वती, अर्द्धनारीश्वर, दिकपाल तथा रामायण महाभारत के पात्रों और विष्णु के प्राय: सभी अवतारों की अत्यन्त सजीव और कलात्मक देव प्रतिमायें उत्कीर्ण हैं जिनके कारण इस कीर्ति स्तम्भ को पौराणिक हिन्दू मूर्तिकला का अनमोल खजाना कहा जाता है। कीर्ति स्तम्भ की प्रत्येक मंजिल पर जाने के लिए घुमावदार सीढ़ियाँ बनी हैं ।
चित्तौड़ दुर्ग (चित्तौड़ का किला) के आकर्षण
चित्तौड़ दुर्ग (चित्तौड़ का किला) का कदाचित् सबसे बड़ा आकर्षण राणा रतनसिंह की अनिंद्य सुन्दर रानी पद्मिनी के महल हैं जो एक शान्त और खूबसूरत जलाशय पर अवस्थित हैं । सरलता और सादगी से परिपूर्ण ये महल उस वीरांगना द्वारा अपने शील और सतीत्व की रक्षा हेतु आत्मोत्सर्ग की रोमांचक दास्तान के मूक साक्षी हैं। उक्त महलों से दक्षिण पूर्व में दो गुम्बजदार भवन हैं जो गोरा-बादल के महल कहलाते हैं। महासती स्थान चित्तौड़ के राजपरिवार का दग्धस्थान था जहाँ पर अनेक छतरियाँ व चबूतरे बने हैं। किले के भीतर अन्य प्रमुख भवनों में नौ कोठा मकान या नवलखा भण्डार (संभवत: खजाना; तोषाखाना) एक लघु दुर्ग के रूप में है जो बणवीर ने भीतरी किला बनवाने के उद्देश्य से बनवाया था। चित्तौड़ दुर्ग (चित्तौड़ का किला) में देव मन्दिरों की तो जैसे भरमार है। यहाँ विद्यमान प्राचीन और भव्य मन्दिरों में महाराणा कुम्भा द्वारा विनिर्मित विष्णु के वराह अवतार का कुम्भ स्वामी या कुम्भ श्याम मंदिर, सूरजपोल दरवाजे के पास नीलकंठ महादेव का मन्दिर, महासती स्थान पर बना समिद्धेश्वर मन्दिर, मीरांबाई का मन्दिर, तुलजाभवानी का मन्दिर, कुकड़ेश्वर महादेव आदि प्रमुख और उल्लेखनीय हैं। यहाँ विद्यमान कालिका माता के मन्दिर के विषय में इतिहासकारों की धारणा है कि यह मूलतः एक प्राचीन सूर्य मन्दिर था जिसका निर्माण लगभग दसवीं शताब्दो ई० के आसपास हुआ था।चित्तौड़ दुर्ग (चित्तौड़ का किला) में अनेक प्राचीन जैन मन्दिर भी हैं। इनमें बड़ी पोल दरवाजे से पूर्व ‘सातवीश देवरी’ राजमहलों के निकट बना ‘शृंगार चौरी’ जैन मन्दिर प्रमुख हैं। किले की पूर्वी प्राचीर के निकट एक सात मंजिला जैन कीर्ति स्तम्भ है जो आदिनाथ का स्मारक बताया जाता है। अनुमानत: इसका निर्माण बघेरवाल जैन जीजा द्वारा 10 वीं या 11 वीं शताब्दी के आसपास करवाया गया। चित्तौड़ दुर्ग (चित्तौड़ का किला ) के भीतर अपरिमित और अथाह जलराशि वाले अनेक कुण्ड और जलाशय हैं। इनमें किले के उत्तरी हिस्से में रत्नेश्वर तालाब, कुम्भ सागर तालाब, मध्य भाग में गौमुख नामक झरना, हाथीकुण्ड जयमल और पत्ता की हवेलियों के पास भीमलत नामक बड़ा तालाब, पाडलपोल दरवाजे के बाहर महाराणा उदयसिंह की झाली रानी द्वारा निर्मित झालीबाव, राजटीला नामक स्थान पर पहाड़ी के छोर पर बना चित्रांग मोरी तालाब जलापूर्ति के मुख्य स्रोत थे। दुर्ग के अन्य प्रमुख ऐतिहासिक स्थलों में कंवरपदा के खण्डहर, तोपखाना, भामाशाह की हवेली, सलूम्बर और रामपुरा व अन्य संस्थानों की हवेलियाँ, तोपखाना हिंगलू आहाड़ा के महल इत्यादि प्रमुख हैं। वहाँ विद्यमान फतह प्रकाश महल को म्यूजियम या संग्रहालय के रूप में विकसित किया गया है जिसमें अनेक कलात्मक देव प्रतिमायें, अलंकृत पाषाण स्तम्भ तथा और बहुत सारी पुरा सामग्री संगृहीत है । सारत: चित्तौड़ दुर्ग (चित्तौड़ का किला) इतिहास की गौरवशाली व रोमांचक दास्तान तथा अनमोल सांस्कृतिक धरोहर से सम्पन्न है ।
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