आबू दुर्ग (अचलगढ़) – गुजरात के राजाओं से पनाह देने वाला प्राचीन दुर्ग

Kheem Singh Bhati
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आबू दुर्ग (अचलगढ़) – प्राचीन शिलालेखों और साहित्यिक ग्रन्थों में आबू पर्वत को अर्बुद गिरि अथवा अर्बुदाचल कहा गया है। अर्बुदाचल स्थित अचलगढ़ एक प्राचीन दुर्ग है। यह दुर्ग आबू से लगभग 13 कि०मी० दूर अरावली पर्वतमाला के एक उत्तुंग शिखर पर स्थित है। आबू का पुराना किला परमार शासकों द्वारा बनवाया गया था, जिनका अर्बुदाचल क्षेत्र पर लम्बे अरसे तक शासन रहा।

सन् 1452 के लगभग मेवाड़ के पराक्रमी महाराणा कुम्भा ने इसी प्राचीन दुर्ग के भग्नावशेषों पर एक नये दुर्ग का निर्माण करवाया, जो सम्प्रति अचलगढ़ के नाम से प्रख्यात है। प्रसिद्ध इतिहासकार कर्नल टॉड की भी यही मान्यता है। आबू पर्वतांचल में स्थित अनेक देव मन्दिरों के कारण कर्नल टॉड ने आबू पर्वत को हिन्दू ओलम्पस (देव पर्वत) कहा है।

अलैक्जैण्डर किनलॉक फार्ब्स द्वारा लिखित ‘रासमाला’ में आबू दुर्ग के बारे में इससे मिलता जुलता विवरण मिलता है। यथा – “आबूगढ़ पर परमारों का किला है, इस किले का कोट भी इसी (कुम्भा) ने बंधवाया था और वह प्राय: यहीं रहता भी था। यहाँ के तोपखाने और गढ़ी की बुर्ज पर अब भी कुम्भा का नाम मौजूद है। यहाँ पर एक बेढंगा सा मन्दिर बना हुआ है जिसमें उसकी पीतल से बनी हुई मूर्ति स्थापित है। इस मूर्ति का आज तक पूजन होता है। राणा कुम्भा ने पश्चिमी सीमा और आबू के बीच की घाटियों को भी किलों की तरह ही बनवा दिया था।”

आबू दुर्ग (अचलगढ़) - गुजरात के राजाओं से पनाह देने वाला प्राचीन दुर्ग
आबू दुर्ग (अचलगढ़) – गुजरात के राजाओं से पनाह देने वाला प्राचीन दुर्ग

कविराजा श्यामलदास ने वीर विनोद में अचलगढ़ के बारे में लिखा है’- “अचलेश्वर मन्दिर के पीछे एक पहाड़ी पर परमारों का प्राचीन गढ़ ‘ अचलगढ़’ है जो विक्रमी सम्वत् 1507 (1450 ई०) के करीब महाराणा कुम्भा का बनवाया हुआ कहा जाता है; शायद महाराणा ने गढ़ का जीर्णोद्धार कराया होगा, और किसी कद्र बढ़ाया भी होगा, लेकिन गढ़ बहुत बरसों पहिले बना मालूम होता है, अब सिर्फ उसके खण्डहर रह गये हैं; यहाँ पर एक कुण्ड भी है, गढ़ के भीतर दो जैन मन्दिर हैं- एक ऋषभदेव का और दूसरा पार्श्वनाथ का। ”

वस्तुत: परमारों का मूल राज्य आबू और उसके निकटवर्ती प्रदेश पर था, जहाँ उन्होंने कभी स्वतन्त्र रूप से तो कभी अणहिलवाड़ (पाटन) गुजरात के सोलंकी राजाओं ( चालुक्यों ) के अधीन सामन्त के रूप में शासन किया। चन्द्रावती उनकी राजधानी थी। यहाँ से उनकी विविध शाखायें मारवाड़, सिन्ध, गुजरात का कुछ भाग तथा मालवा में फैलीं, नहाँ उनके पृथक राज्य स्थापित हुए। इस संदर्भ में एक दोहा प्रसिद्ध है –

पृथ्वी पंवारा तणी अनै पृथ्वी तणे पंवार ।
एका आबू गढ़ बेसणो, दूजी उज्जेनी धार ।

परमारों की इस प्राचीन राजधानी चन्द्रावती के खण्डहर आबू पर्वत की तलहटी में बनास नदी के किनारे (आबू रोड से 4 मील दक्षिण में) वन्य प्रदेश में आज भी विद्यमान हैं। इतिहासकार कर्नल टॉड ने चन्द्रावती के विगत वैभव का भावपूर्ण वर्णन किया है। अ उसके अनुसार यह नगरी धार से भी पुरानी थी और परमारों के उत्कर्ष काल में पश्चिम भारत की राजधानी थी। यद्यपि चन्द्रावती सुदृढ़ परकोटे से सुरक्षित थी तथापि विपत्ति-काल में आबू का दुर्ग ही इसका शरण स्थल रहा होगा।

इस प्राचीन दुर्ग के साथ परमार शासकों की वीरता और पराक्रम का रोमांचक इतिहास जुड़ा है। आबू के परमार राजवंश में धरणीवराह एक प्रतापी शासक हुआ । जनश्रुति है कि उसने अपने नौ-भाइयों में राज्य बाँट दिया था और उनकी नौ राजधानियाँ नवकोटि मारवाड़ कहलायीं। इस आशय का निम्नांकित एक छप्पय प्रसिद्ध है –

मंडोवर सांवत हुओ अजमेर सिंधु सू ।
गढ़ पूगल गजमल हुओ, लोद्रवे भान भू ॥
आल पाल अर्बुद भोजराज जालंधर ।
जोगराज धरधाट हुओ हासू पारकर ।।
नवकोटि किराडू संजुगत थिर पंवारा थापिया ।
धरणीवराह घर भाईया कोट वीटजू जू किया ।।

उक्त छप्पय के अनुसार मंडोर सामंत को, अजमेर सिन्धु को, पूगल गजमल को, लूद्रवा भान को, आबू आल (अल्ह) व पाल (पल्ह) को, जालंधर (जालौर) भोजराज को धाट याने उमरकोट जोगराज को और पारकर (थरपारकर) हंसराज को मिला और धरणीवराह ने कोट किराडू को अपने पास रख लिया। धरणीवराह का समय 1040 ई० के आसपास माना जाता है। अतः यह छप्पय सम्भवतः बाद में रचा गया क्योंकि उस समय अजमेर तो सम्भवत: बसा ही नहीं था और आबू पर आल व पाल का होना भी नहीं पाया जाता।

तत्पश्चात् इस राजवंश में धारावर्ष अतुल पराक्रमी और प्रसिद्ध शासक हुआ। डॉ० गौरीशंकर हीराचन्द ओझा ने फारसी तवारीख ‘ताज उल मासिर’ के हवाले से लिखा है कि कुतुबुद्दीन ऐबक ने 1196 ई० में जब गुजरात के सोलंकी राज्य पर आक्रमण किया तब आबू पर्वत की तलहटी में भीषण युद्ध लड़ा गया जिसमें धारावर्ष गुजरात की सेना के दो मुख्य सेनापतियों में से एक था।

यही धारावर्ष बाद में गुलामवंशीय सुलतान इल्तुतमिश के विरुद्ध भी लड़ा। धारावर्ष ने कभी स्वतन्त्र शासक के रूप में तो कभी सोलंकी नरेशों के करद सामन्त के रूप में दीर्घकाल तक यहाँ शासन किया।

कर्नल टॉड के अनुसार- “यद्यपि शिलालेख में लिखा है कि चन्द्रावती पर देवतुल्य धारावर्ष का एकछत्र राज्य था” परन्तु यह स्पष्ट है कि उसने अणहिलवाड़ की सार्वभौम सत्ता को स्वीकार कर लिया था जिसकी अधीनता से मुक्त होकर उसके पूर्वज जैत ने अपनी राजभक्ति, अपनी पुत्री’ बुद्धिमती ऐच्छिनी’ सहित दिल्ली के अन्तिम राजपूत सम्राट पृथ्वीराज को समर्पित कर दी थी। ”

धारावर्ष बहुत वीर और पराक्रमी था। पाटनारायण मन्दिर के एक शिलालेख ( वि०सं० 1344) के अनुसार वह एक बाण से एक साथ तीन भैंसों को बींध डालता था –

एक बाण निहतं त्रिलुलायं यं निरीक्ष्य कुरूयोधसदृक्षं ।

इतिहासकार ओझाजी के अनुसार धारावर्ष वि० सं० 1220 (1163 ई०) से वि० सं० 1276 (1219 ई०) तक आबू का शासक रहा। धारावर्ष के पश्चात् आबू के परमारों से राज्यलक्ष्मी रूठ गई और इस पराक्रमी राजवंश का यश सूर्य अस्त हो गया। इसका प्रमाण वसिष्ठ मंदिर के एक शिलालेख से प्राप्त होता है जिसमें आबू पर जालौर के पराक्रमी राजा कान्हड़देव सोनगरा की विजय का उल्लेख है। तत्पश्चात् चौहानों की देवड़ा शाखा के राव लूम्बा ने आबू तथा उसकी राजधानी चन्द्रावती पर अधिकार कर लिया । 2 ओझा जी के अनुसार यह घटना विक्रम संवत 1368 (1311 ई०) में हुई।

आबू दुर्ग (अचलगढ़) - गुजरात के राजाओं से पनाह देने वाला प्राचीन दुर्ग
आबू दुर्ग (अचलगढ़) – गुजरात के राजाओं से पनाह देने वाला प्राचीन दुर्ग

मध्ययुग में गुजरात की तरफ से होने वाले संभावित आक्रमणों से सुरक्षा की दृष्टि से आबू दुर्ग का विशेष सामरिक महत्त्व था । ‘रासमाला’ के अनुसार गुजरात के सुलतान कुतुबशाह ने कुछ अरसे के लिए अचलगढ़ पर अधिकार कर लिया था। तदुपरान्त गुजरात के सुलतान महमूद बेगड़ा द्वारा भी अचलगढ़ को पदाक्रान्त करने तथा वहाँ विद्यमान कुछ प्राचीन देव प्रतिमाओं को नष्ट करने का उल्लेख मिलता है।

जनश्रुति है कि महमूद बेगड़ा जब अचलेश्वर के नन्दी सहित अन्य देव प्रतिमाओं को खण्डित कर विशाल पर्वतीय घाटी से उतर रहा था (लौट रहा था) तब दैवी प्रकोप हुआ। मधुमक्खियों का एक बड़ा दल आक्रमणकारियों पर टूट पड़ा तथा उन्हें उनके दुष्कृत्य का मजा चखाया। इस घटना की स्मृति में वह स्थान आज भी ‘भंवराथल’ के नाम से प्रसिद्ध है।  तत्पश्चात् अचलगढ़ पर अधिकांशत: देवड़ा शाखा के चौहानों का ही अधिकार रहा।

महाराणा कुम्भा द्वारा पुनर्निर्मित अचलगढ़ यद्यपि भग्न और जीर्ण अवस्था में है तथापि अपने इस रूप में भी वह भग्न और आकर्षक लगता है। सुदृढ़ प्राचीर और विशाल बुजों से युक्त अचलगढ़ दुर्ग स्थापत्य का अच्छा उदाहरण है। आबू से अचलगढ़ जाते समय मार्ग में सबसे पहले अचलेश्वर महादेव का प्राचीन मन्दिर आता है। आबू पर्वत के अधिष्ठाता देव अचलेश्वर महादेव ही हैं। इस मन्दिर में शिवलिंग न होकर केवल एक गड्ढा है, जिसे ब्रह्मखड्द कहा जाता है।

आबू दुर्ग (अचलगढ़) में शिव के पैर का अंगूठा प्रतीकात्मक रूप में विद्यमान है

इस स्थान पर शिव के पैर का अंगूठा प्रतीकात्मक रूप में विद्यमान है। इसी मन्दिर के प्रांगण में महमूद बेगड़ा द्वारा खण्डित शिव प्रिया पार्वती तथा उनके वाहन नन्दी की प्रतिमाएँ विद्यमान हैं। अचलेश्वर महादेव के पास ही एक विशाल कुण्ड है जो लगभग 900 फीट लम्बा और 240 फीट चौड़ा है । यह कुण्ड मन्दाकिनी कुण्ड कहलाता है।

मन्दाकिनी कुण्ड से पूर्व की तरफ परमार राज्य के संस्थापक आदि परमार की पाषाण प्रतिमा स्थापित है जिसमें वह अपने तीर से भैंसे का रूप धारण किये राक्षसों का वध कर रहा है, जो रात्रि के समय अग्निकुण्ड का पवित्र जल पी जाया करते थे। कर्नल टॉड ने इस पाषाण प्रतिमा को मूर्तिकला का अद्भुत नमूना बताते हुए लिखा है-

“सफेद संगमरमर की बनी यह मूर्ति लगभग 5 फीट ऊँची है और मूर्तिकला में बाडोली के स्तम्भों पर बनी हुई मूर्तियों के अतिरिक्त भारत में मेरे द्वारा देखी हुई सभी मूर्तियों से बढ़कर है। ”

मन्दाकिनी कुण्ड के किनारे सिरोही के महाराव मानसिंह की स्मारक छतरी है, जिसे कल्ला परमार ने कटार से वार करके मारा था 12 कर्नल टॉड के अनुसार वह निकटवर्ती जैन मन्दिर में किसी के द्वारा जहर दिये जाने से मरा था। इस स्थान से थोड़ा आगे चलने पर अचलगढ़ की प्राचीर दिखाई देने लगती है। सम्प्रति इस भग्न प्राचीर में हनुमानपोल और गणेशपोल दो बाह्य प्रवेश द्वार हैं जिन पर उक्त दोनों देवताओं की प्रतिमायें प्रतिष्ठापित हैं जिन पर इनका नामकरण हुआ है।

पास ही कफूर सागर सरोवर है, जिसमें वर्ष पर्यन्त शीतल और निर्मल जल भरा रहता है। इन प्रवेश द्वारों से आगे दुर्ग की चढ़ाई प्रारम्भ हो जाती है। आगे चलकर दुर्ग का एक अन्य प्रवेश द्वार चम्पापोल आता है। (किसी समय सुगन्ध देने वाले चम्पावृक्ष की टहनियों से आवृत्त होने के कारण शायद इसका यह नाम रहा हो) यहाँ से थोड़ी दूर पर पार्श्वनाथ का जैन मन्दिर है, जिसे मांडू के श्रेष्ठी ने बन था।

आगे चलकर अणहिलवाड़ के राजा कुमारपाल सोलंकी ने इसका जीर्णोद्धार करवाया। कर्नल टॉड ने इस मन्दिर के कलात्मक स्तम्भों को अजमेर के प्राचीन मन्दिर के स्तम्भों से सादृश्य बताया है। अचलगढ़ का एक अन्य प्रवेश द्वार भैरवपोल है जिसमें प्रवेश कर आगे चलने पर इस वीरान दुर्ग का भीतरी दृश्य दिखाई देने लगता है। कर्नल टॉड ने अचलगढ़ दुर्ग की आन्तरिक संरचना और स्थापत्य का सजीव चित्रण किया है।

आबू दुर्ग (अचलगढ़) - गुजरात के राजाओं से पनाह देने वाला प्राचीन दुर्ग
आबू दुर्ग (अचलगढ़) – गुजरात के राजाओं से पनाह देने वाला प्राचीन दुर्ग

दुर्ग के भीतर कुम्भा के राजप्रासाद, उनकी ओखा रानी का महल, अनाज के कोठे (अन्न भण्डार), सैनिकों के आवासगृह, पानी के विशाल टांके, अतुल जलराशि से परिपूर्ण सावन-भादों झील, परमारों द्वारा निर्मित खतरे की सूचना देने वाली बुर्ज (Alarm Tower) आदि के भग्नावशेष अद्यावधि विद्यमान हैं। अचलगढ़ के स्वर्णिम अतीत का वर्णन करते हुए श्री जोधसिंह मेहता ने लिखा है-

This fort was once inhabited by rich and pious Jains and also by Rajputs Brahmins, merchants and artisans and was in flourishing state. But now it is crumbling down.. The higher peaks of Achalgarh command a magnificient view of the distant surrounding plains with river Banas and the green fields on its banks.

अचलगढ़ के वीरान खण्डहरों के विगत वैभव को याद कर कर्नल टॉड ने अत्यन्त भावपूर्ण शब्दों में लिखा है- “इन भग्नावशेषों के ढेरों के बीच में खड़े होकर किसका मन भारी (दु:खी) न हो जायेगा ? इन गहरे हरे पत्थरों में, जिन पर तुम चल रहे हो, उन टूटी-फूटी चट्टानों के टुकड़ों में, जिन पर घनी जंगली बेलें फैल गयी हैं और जहाँ कभी झण्डा फहराया करता था, कितने गौरवपूर्ण इतिहास छिपे पड़े हैं ?””

परमारों के इस भग्न दुर्ग का विगत वैभव कर्नल टॉड के इन शब्दों में मानो साकार हो उठा है- “जब वह यौवन से भरपूर और गर्वोन्नत था ऊपर झण्डे लहरा रहे थे और नीचे युद्ध चल रहा था परन्तु जिन्होंने युद्ध किया वे रक्त से सने कफन में दबे पड़े हैं और लहराने वाले झण्डे चिथड़े-चिथड़े होकर मिट्टी में मिल गये हैं। अब टूटे-फूटे किले की दीवारों पर भविष्य में कोई चोट न होगी। ”

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