जालौर किला। जब से पढ़ना शुरू किया तब से जिला जालौर सीखा है वहीं एक और जालौर नाम से कहीं ना कही एक जुड़ाव सा लगता है और उसका कारण जिस समाज और जाति धर्म में जन्म लिया उसके पुरोधा का रिश्ता कही ना कही इस नाम से रहा है।
करीब दिन के ग्यारह बज रहे थे और सुबह सिरे मंदिर दर्शन कर नीचे आने की थकान भी लग रही थी पर कही ना कहीं ऐसा लग रहा था कि अभी आज कि यात्रा अभी पूरी नहीं हुई है ऐसा कुछ है जो अभी अधूरा है और उसके बिना ये यात्रा पूरी नहीं हो सकती। में जालौर शहर की सड़क पर खड़ा था पर में जैसे ही थोड़ा उपर देखने की कोशिश करता तो ऐसा लग रहा था कि कोई ना कोई मुझे बुला रहा है और तुझे आना ही होगा। आखिरकार दोस्तों ने कहा कि अगर वहा नहीं गए तो ये यात्रा अधूरी है।

अब पक्का कर दिया था कि भले ही अभी 1000 सीढ़ियां उतर कर आए है पर अभी सिरे की तरह सिर मोहर के जैसे खड़ा स्वर्णगिरी का वो अभेद किला जालौर किला, वो किला जो सदियों से आज भी खड़ा अपने वीरता कि कहानी बयां कर रहा है और हर किसी को अपने वीरता की कहानी बता रहा था। हमने तिलक मार्केट से एक संकरी गली से यात्रा शुरू की और एक बेहद संकरी गली से पूछत-पूछते हम आगे बढ़ रहे थे और अफसोस हो रहा था कि जो मिलो दूर से अपनी सैकड़ों वर्षो से पहचान बता रहा हो उसके देखने आने वाले को जाने का रास्ता पूछना पड़े।
थोड़ी दूर शहर की गलियों को पार करते ही फिर हमें पूछना पड़ा की क्या इधर से कोई किले का रास्ता जाता है तो दूर बैठी एक महिला ने अंगुली से इशारा किया और हम समझ गए की उधर जाना है। जैसे ही नजर उधर गई ओर पहली चिढ़ी पर पैर रखा तो अपने आप को मन धिकार रहा था कि हम केसे वंशज है जो अपने पूर्वजों की कभी सुध भी नहीं लेते है और ऐसे जिनका पूरा इतिहास वीरता, शौर्य और जन सेवा,रक्षा में जीवन त्याग करने में भरा पड़ा हो। हर एक सीढ़ी अपनी दुर्दशा बता रही थी। में भी अब अपने ऊपर से प्रशासन पर इस बदहाली का ठीकरा फोड़ रहा था।

जर्जर स्थित में है अब जालौर किला
बेहद खराब, उबड़ खाबड़ रास्ता और गंदगी से भरा रास्ता को पार करते हुए हम सबसे पहले “सूरज पोल” पहुंचे जो अब एक जर्जर हालत में थी और उसकी दीवारों पर आजकल के इशकजादो ने कोयलों से अपने नाम से दीवारें भर दी थी, ये वो पोल है जिस पर किले जालौर किला(जालौर किला) का प्रथम द्वार माना जाता है जिस पर सुरक्षा का पहला जिम्मा होता है ओर गर्व होता है पर आज अपनी बदहाली पर रो रही थी। पोल के ऊपर हिस्से में कभी दुश्मनों को छक्के छुड़ाने वाली तोप झाड़ियों में पड़ी थी और मन्न ही मन कह रही थी कि जिसका समय होता है उसकी कीमत होती है बाकी कोई पूछता तक नहीं।
जालौर किला पर करीब 11 वी सदी में कीर्तिपाल चौहान ने इस किले को अपने आधिपत्य में लिया और वीरता की कहानी गढ़ी गई। इन्हीं के पीढ़ी में काका कान्हड़देव और “वीर वीरमदेव सोनगरा” जैसे वीर हुए और उन्होंने उस वक़्त के निर्लज, क्रूर आक्रमणकारी खिलजी से लोहा लिया था और अपनी आन बान शान और राष्ट्र धर्म की रक्षा के लिए हजारों वीर योद्धाओं के साथ युद्ध कर अपने आप को त्याग दिया था पर कभी समझौता अपने पूर्वजों के नियमों के उसूल से नहीं किया।
राई रा भाव राते बिता वो भी यही किला था।
– जालौर किला
आज जब इतने वीरता भरे किले (जालौर किला) में प्रवेश किया तो अपने ओर अपने समाज ओर धर्म प्रेमी लोगो पर गुस्सा आ रहा था। गुस्सा इस सरकार के उस विभाग पर आ रहा था जो अपने नाम के हिसाब से ही कार्य करता है। किले में गंदगी, दीवारों पर नाम, पुरानी वस्तु को कबाड़ में फेंका गया।वहीं पड़ी सड़ रही है कोई सुध लेने वाला नहीं है।
राजा मान सिंह और रानी का महल रो रहे थे अपने ऐसे हालात पर और उसकी पुष्टि कर रहा था उस के द्वार पर लगा पुरातत्व विभाग का बोर्ड जो इस हालत का साक्ष्य दे रहा था क्युकी उसका नाम भी साफ नहीं पढ़ पा रहे थे।

किले (जालौर किला) के ऊपर महादेव मंदिर, चामुंडा मंदिर, जैन मंदिर और भेरव जी के मंदिर मानो ये कह रहे थे कि अब अगर ज्यादा देर की तो कोई और यहां पर आ जाएगा और तुमरी पीढ़ियों को शायद हम भी ना दिखे। जहां कोना मिला वहाँ अतिक्रमण हो रहा है। हर जगह मानो जैसे एक अभियान के तहत हो रहा हो। पर सब मौन है। शायद सब कुछ बीत जाने पर जगेंगे जैसा हमेशा होता है।
जालौर किला जिसके लिए पुरातत्व विभाग खलनायक रोल में है
हम तो जीमेदर है साथ ही साथ ये पुरातत्व विभाग उतना ही खलनायक रोल में है जितना कि उस वक़्त में कोई आक्रमण करने वाला दुश्मन होगा, कोई किसी प्रकार का रख रखाव नहीं है। सब कबाड़ बन गए। कुछ जगह दीवारें गिरने के कगार पर है पर ये विभाग भी मानो उसका इंतज़ार कर रहा हो।
उसी और एक आशापुरा माता का मंदिर बन रहा है सोचा चलो कुछ अच्छा हो रहा पर जब जानकारी इकठ्ठा की तो एक बड़ा धक्का लगा कि उस मंदिर को कोई एक परिवार अपने श्रद्धा के हिसाब से बना रहा है। अरे हम तो जालौर, सिरोही, पाली ,अजमेर ओर पूरे भारत में कितने हिन्दू परिवार है क्या हम सब एक माँ आशापुरा का मंदिर नहीं बना सकते पर अफसोस ना तो कोई किले आता है और ना किसी को पता हम तो अपने नाम के पीछे, गाड़ी के पीछे, कंकू पत्री या कहीं और सिंह लगाने में खुश है।

हम वीरता के गाने गावरा कर अपनी झूठी शान में अपने आप को राजपूत हिन्दू मान कर अपने मन को खुश करते है।
भेरूजी के भोपा जी ने भेरूजी के स्वभाव के हिसाब से बड़े कड़े ओर तीखे शब्दों में किले पर किस तरह किस किस ने अतिक्रमण किया उसका पूरा वृतांत सुनाया ओर अंत में इतना ही कहा कि में यहां वर्षो से हूं पर कोई राजपूत यहां नहीं दिखते है और जाते जाते इतना कहा कि राजपूतों ने तो बोतले फोड़ी है बाकी इतिहास को कोई देखभाल नहीं होता सब मौन ओर सोए हुए है। पर अंत में यह भी कहा कि आज का युवा पढ़ रहा है और ऐसे कार्यों के लिए जागरूक भी हो रहा है। अपने समाज को जगाओ।
अरे कभी अपने उस वीर योद्धा की तरह अडिग खड़ा उस किले (जालौर किला) पर जाकर तो आइए फिर मेरी तरह आप को अफसोस और झूठी शान करने में शर्मनदगी ओर दुख होगा। मेरी तो आप सब बंधुओ से एक ही प्राथना है आप जिस पर घमंड,गर्व करते है कभी तो उसकी सुध लो और पता करो हमे क्या करना था और क्या अब कर सकते है।
माफ़ करना, ऐ विशाल किला (जालौर किला) तेरी इस दुर्दशा के कोई सबसे ज्यादा जिम्मेदार है तो हम और वो सब है जो वीरता, इतिहास का ढोल पीटने में कोई कमी नहीं रखते है और जो पास सबूत है उसकी हम कदर नहीं करते ।
लेखक (जालौर किला)
– श्रवण सिंह चौहान (जालौर)
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