कुचामन का किला । गढ़ों और दुर्गों के प्रदेश राजस्थान में पूर्व रियासतों के तो प्रसिद्ध किले और गढ़ हैं ही पर साथ ही जागीरी ठिकानों के भी अपने गढ़ व किले विद्यमान हैं। वीरता और शौर्य के प्रतीक इन किलों के साथ स्थानीय और जनपदीय इतिहास के अनेक रोमांचक प्रसंग, अज्ञात घटनायें व पराक्रम की गौरव गाथायें जुड़ी हुई हैं। जागीरी ठिकानों के इन किलों में सर्वाधिक भव्य और विशाल है- कुचामन का किला ।
नागौर जिले की नावां तहसील में स्थित कुचामन पूर्व जोधपुर रियासत में मेड़तिया राठौड़ों का एक प्रमुख ठिकाना था जो न केवल अपने शासकों की वीरता और स्वामिभक्ति प्रेरित बलिदान की घटनाओं के लिए ही प्रसिद्ध है अपितु अपने भव्य और सुदृढ़ दुर्ग के लिए भी विख्यात है। कुचामन का किला रियासतों के किलों से टक्कर लेता है इसलिए यदि कुचामन के किले को जागीरी किलों का सिरमौर कहा जाय तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। इसके बारे में लोक में यह उक्ति प्रसिद्ध है – “ऐसा किला राणी जाये के पास भले ही हो, ठुकराणी जाये के पास नहीं । ”

इसके अलावा कुचामन अपने भव्य देव मन्दिरों, आलीशान हवेलियों, कोठियों इत्यादि के कारण भी अनुपम और दर्शनीय है। जनश्रुति के अनुसार जिस पर्वतांचल में कुचामन बसा है वहाँ पहले कुचबन्धियों की ढाणी थी । सम्भवतः उसी के नाम पर यह कस्बा कुचामन कहलाया । (कुचामन का किला)
कुचामन और उसके निकटवर्ती प्रदेश पर गौड़ क्षत्रियों का दीर्घकाल तक वर्चस्व रहा जिसकी पुष्टि कुचामन के पास हिराणी, मीठड़ी, लिचाणा तथा अन्य स्थानों पर विद्यमान गौड़ शासकों के शिलालेखों से होती है। उनकी राजधानी मारोठ थी जो कि एक प्राचीन नगर है। अनेक वर्षों तक गौड़ों द्वारा प्राधिकृत होने के कारण यह इलाका गौड़ाटी कहलाया। लोक में प्रचलित होने के साथ ही एक दुर्लभ महत्त्वपूर्ण ताम्रपत्र में उक्त क्षेत्र का यह नाम मिलता है । (कुचामन का किला)

मुगल बादशाह शाहजहाँ के शासनकाल में गौड़ों का प्रताप रवि अपने प्रकर्ष पर था, जिसने उन्हें बड़े मनसब और जागीरें प्रदान की। लेकिन औरंगजेब के राज्यारोहण के साथ ही गौड़ों के पराभव का सिलसिला प्रारम्भ हो गया। वीर रघुनाथसिंह मेड़तिया के नेतृत्व में राठौड़ों ने शक्तिशाली गौड़ों के साथ अनेक दुर्धर्ष युद्ध लड़े तथा अन्ततः उन्हें परास्त कर विक्रम संवत 1715 में रघुनाथसिंह मेड़तिया ने इस भू-भाग पर अपना अधिकार स्थापित किया। तत्पश्चात् यह भू-भाग जोधपुर रियासत के अधीन हो गया । (कुचामन का किला)
मारवाड़ (जोधपुर) राज्य के इतिहास के अनुसार जोधपुर के महाराजा अभयसिंह ने विक्रम संवत 1784 (1727 ई०) में जालिमसिंह मेड़तिया (रघुनाथसिंह के पौत्र) को कुचामन की जागीर इनायत की थी। ये जालिमसिंह जो अतुल पराक्रमी थे, जोधपुर रियासत की ओर से किसी अज्ञात युद्ध (सम्भवतः सरबलन्दखाँ के विरुद्ध अहमदाबाद की लड़ाई) में वीरगति को प्राप्त हुए। ठाकुर शिवनाथसिंह भी कुचामन के प्रतापी शासक हुए थे। एक समकालीन कवि द्वारा रचित डिंगल गीत में इन शिवदानसिंह को राठौड़ों के पूर्वज राव दूदा के समान यशस्वी बताया गया है :-
दिल ऊजल सिवा अभनमा दूदा
बडपण आखै बीस बिसा।
कपड़ा दिसां म देखे कमधज
देखीजै आखरां दिसा ।।
वस्तुत: कुचामन के शासकों की वीरता और पराक्रम की लम्बी परम्परा रही है। यहाँ के शासक जोधपुर रियासत के प्रति हमेशा स्वामिभक्त रहे । कविराजा बांकीदास ने कुचामन के सामन्त शासकों की स्वामिभक्ति की प्रशंसा करते हुए अपनी ख्यात में लिखा है-
कदीही कियो नह रूसणो कुचामण ।
कुचामण साम-ध्रम सदा कीधो ।
अलवर नरेश बख्तावरसिंह का विवाह 1793 ई० में कुचामन की राजकुमारी से सम्पन्न हुआ था । कुचामन के ठाकुर केसरीसिंह को तत्कालीन ब्रिटिश सरकार द्वारा राव बहादुर का खिताब दिया गया था ।
किले का स्थापत्य (कुचामन का किला)
वीरता और शौर्य का प्रतीक कुचामन का किला जो एक विशाल और ऊँची पहाड़ी पर बना है, गिरि दुर्ग का सुन्दर उदाहरण है। उन्नत प्राचीर और सुदृढ़ बुजों वाला यह किला प्राचीन भारतीय शिल्प शास्त्रों में वर्णित दुर्ग स्थापत्य के आदशों के अनुरूप निर्मित जान पड़ता है।
इस भव्य दुर्ग के निर्माता के सम्बन्ध में प्रामाणिक जानकारी का अभाव है। प्रचलित लोक मान्यता के अनुसार यहाँ के पराक्रमी मेड़तिया शासक जालिमसिंह ने वनखण्डी नामक महात्मा के आशीर्वाद से (जो उक्त पहाड़ी पर तपस्या करते थे) कुचामन के किले की नींव रखी, जिसका कालान्तर में उनके यशस्वी वंशजों द्वारा विस्तार एवं परिवर्द्धन किया गया।
दूसरी संभावना यह है कि इस पहाड़ी पर गौड़ शासकों द्वारा निर्मित किले का जालिमसिंह ने जीर्णोद्धार एवं विस्तार कर उसे दुर्भेद्य दुर्ग बनाया। इस किले की तलहटी में उसके ठीक नीचे भव्य गढ़ है जहाँ से किले के ऊपर जाने के लिए घुमावदार मार्ग बना हुआ है। कुचामन के इस विशाल किले में अनेक बुजें (लगभग 18) भव्य महल, रनिवास, सिलहखाना (शस्त्रागार) अन्न भंडार, पानी के विशाल टांके, देव मन्दिर इत्यादि बने हुए हैं।

किले के भवनों में सुनहरी बुर्ज सोने के बारीक व सुन्दर काम के लिए उल्लेखनीय है। रानी के महल या रनिवास तथा कांच महल (शीश महल) भी अपनी शिल्प और सौन्दर्य के कारण दर्शनीय हैं। यहाँ का हवामहल राजपूत स्थापत्य कला का सुन्दर उदाहरण है। कुचामन के किले में जल संग्रह के लिए पाँच विशाल टांके हैं, जिनमें पाताल्या हौज और अंधेरया हौज (बंद टांका) प्रमुख हैं।
किले के भीतर कुछ देवी देवताओं के मन्दिर भी हैं जिनमें देवी का प्राचीन मन्दिर मुख्य है। इस किले का सिलहखाना बहुत बड़ा है तथा उसमें शीशा व बारूद रखने के पृथक कक्ष बने हुए हैं। भीतर चौक में घोड़ों की पायगें, शूतरखाना (उष्ट्रशाला) और हस्तिशाला भी विद्यमान है। किले के उत्तर की ओर का टीला आज भी हाथीटीबा कहलाता है। अतीत में कुचामन के किले के नीचे पानी की विशाल नहर बहती थी जिसका सुरक्षा की दृष्टि से विशेष महत्त्व था।
किले के पूर्व में एक छोटी सी डूंगरी पर भव्य सूर्य मन्दिर स्थित है जो बहुत आकर्षक है तथा सूर्यवंशीय राठौड़ों की पारम्परिक आस्था का परिचायक है। कुचामन अतीत में एक सुदृढ़ परकोटे के भीतर बसा हुआ था जिसके प्रमुख प्रवेशद्वारों में चाँदपोल (आथूणा दरवाजा) सूरजपोल, कश्मीरी दरवाजा, पलटन दरवाजा, होद का दरवाजा और बारी दरवाजा प्रमुख है।
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