महात्मा गाँधी की दक्षिण अफ्रीका में आत्म-सम्मान की लड़ाई
महात्मा गाँधी को इन घटनाओं से बहुत दुःख हुआ। उनके हृदय में एक आँधी-सी उठ खड़ी हुई। इस अपमान का उत्तर देने के लिए उनका मन व्याकुल हो उठा। वहाँ के भारतीयों की दुर्दशा देखकर गाँधीजी ने सोच लिया कि अब वे खामोश नहीं रहेंगे। भारतवासियों को इस गुलाम-जीवन से मुक्त होने की प्रेरणा देंगे।
उन्होंने सेठ अब्दुल्ला के मुकदमे का गहराई से अध्ययन किया। उनका यह मुकदमा उनके एक रिश्तेदार तैय्यबजी के विरुद्ध था। गाँधीजी ने दोनों को समझाया कि वे बेकार में अपनी कमाई से वकीलों का घर न भरें और आपस में समझौता कर लें। दोनों सहमत होकर कोर्ट में जाकर समझौता कर लिया। इस प्रकार दोनों के मन में गाँधीजी के प्रति आदर बढ़ गया। आपसी समझौता कराने के बाद महात्मा गाँधी ने अत्याचारों के विरुद्ध आवाज उठाने का फैसला किया।
उन्होंने वहाँ भाषण देना प्रारम्भ कर दिया। लोगों को चेताया कि उन्हें अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करना चाहिए। हर रोज सभाएँ होने लगीं। हजारों लोग सभाओं में आने लगे। समाचार-पत्र में एक महत्वपूर्ण घोषणा की गई थी कि भारतीयों को मताधिकार से वंचित कर दिया जाए।
महात्मा गाँधी ने बहुत दौड़धूप के बाद असेम्बली में इस बिल को रद्द कराकर ही दम लिया। इस प्रकार दक्षिण अफ्रीका में बसे भारतीयों को उनके नागरिक अधिकार दिलवाने में सफल हुए। लोगों का उत्साह बढ़ गया।
लोगों का उत्साह देखकर गाँधीजी ने ‘नेटाल इंडियन कांग्रेस की स्थापना करके भारतीयों की आत्मसम्मान की लड़ाई का बीज बो दिया। इस संस्था के अधिक से अधिक वार्षिक सदस्य बनाए गये जिनसे अग्रिम चन्दा लिया गया। इसी कारण दक्षिण अफ्रीका के गोरे अंग्रेज गाँधीजी से चिढ़ गये थे। वे गाँधीजी के खून के प्यासे हो गये। एक बार जब वे जहाज से उतरकर घर जा रहे थे तो गोरों ने घेर लिया। पत्थरों, सड़े अण्डों की वर्षा होने लगी। गाँधीजी बेहोश हो गये।
‘गाँधीजी को फाँसी दो’ के नारे लगाये जा रहे थे। अचानक एक यूरोपियन पुलिस अधिकारी की पत्नी ने हिम्मत से गाँधीजी को सुरक्षित जगह ले गयी। पुलिस की रक्षा में गाँधीजी को घर पहुँचाया गया। इस घटना की चर्चा ब्रिटिश पार्लियामेन्ट तक पहुँच गई। चेम्बर लेन ने दक्षिण अफ्रीका के अधिकारियों को अपराधियों पर मुकदमा चलाने का तार दिया। लेकिन
गाँधीजी ने कहा, “मैं किसी पर मुकदमा नहीं चलाना चाहता।”