महात्मा गाँधी । महात्मा गाँधी का जन्म 2 अक्टूबर, सन् 1869अर्थात् आश्विन बदी 12, संवत् 1925 को पोरबन्दर नामक ग्राम में हुआ था। जो गुजरात राज्य में स्थित है। उनका पूरा नाम मोहनदास करमचन्द गाँधी था। गुजरात में ‘गाँधी’ शब्द पंसारी के लिए प्रयोग किया जाता है। गाँधी परिवार अनेक वर्षों से व्यापार करते थे लेकिन पिछले दो-तीन पीढ़ियों से गाँधी परिवार राजनीति और राजसेवा में लग गया। गाँधी घराना अपनी स्वामिभक्ति, ईमानदारी और साहस के लिए प्रसिद्ध था ।
महात्मा गाँधी का जन्म और शिक्षा
महात्मा गाँधी के दादा उत्तम चन्द गाँधी पोरबन्दर के राजा के दरबार में दीवान थे। गाँधी जी के पिता करमचन्द गाँधी कुछ समय तक पोरबन्दर के दीवान रहे लेकिन बाद में राजकोट के दीवान बने। करमचन्द गाँधी बहुत ही व्यवहारी व्यक्ति थे। गाँधी जी ने अपनी जीवन में अपने पिताजी के बारे में वर्णन करते हुए लिखते हैं—“मेरे पिताजी अपने वंश पर प्रेम करने वाले, सत्यवादी, वीर और उदार थे ।”
महात्मा गाँधी की माता पुतली बाई बड़ी साध्वी थीं। पूजा-पाठ किये बिना भोजन नहीं करती थीं। वे कठिन व्रत और उपवास रखती थीं। उपवास की महिमा का ज्ञान गाँधी जी को अपनी माता जी से मिला । गाँधी जी अपनी माँ के विषय में कहते हैं- “यदि मुझमें कुछ पावित्र्य है, तो वह मेरी माताजी के कारण।” सेवा, स्वार्थ त्याग और दूसरों के लिए प्रेम यह गुण गाँधीजी ने अपनी माताजी से प्राप्त किये थे।
महात्मा गाँधी का बचपन का नाम मनु था, मगर उनकी माँ प्यार से उन्हें ‘मोनिया’ कहकर बुलाती थीं। गाँधीजी की एक बहन और तीन भाई थे जिनमें ये सबसे छोटे थे। गाँधीजी का बचपन पोरबन्दर में ही बीता। वे बचपन से ही बहुत संकोची स्वभाव के थे। घण्टी बजते ही स्कूल पहुँच जाते थे और स्कूल बन्द होते ही घर भाग आते। उन्हें किसी से मिलने में डर लगता था कि कहीं कोई उनका मजाक न उड़ाए।
महात्मा गाँधी की प्राथमिक शिक्षा सात वर्ष की आयु तक पोरबन्दर में हुई। उसके बाद वे अपने पिता के साथ राजकोट आ गये, जहाँ एक ग्रामीण पाठशाला में उनका नाम लिखा दिया गया। स्कूल में गाँधीजी एक साधारण विद्यार्थी थे आम बालकों की तरह झेंपू, सीधे और डरपोक प्रवृत्ति के । खेल-कूद में उन्हें कोई शौक नहीं था।
पढ़ाई-लिखाई में भी वे सामान्य ही थे। पढ़ने-लिखने में कोई खास रुचि नहीं थी, जबकि घरवाले चाहते थे कि लड़का पढ़-लिखकर बाप-दादा की दीवानी सम्भालने के योग्य बने।
महात्मा गाँधी बचपन से ही सत्यनिष्ठ थे। माता-पिता के संस्कारों ने उन्हें पहले से ही धर्मनिष्ठ बना दिया था। गाँधीजी के यहाँ सभी धर्मों के विद्वानों की धार्मिक चर्चाएँ होती रहती थी। उनको वे बड़े ध्यान से सुनते थे। सच्चाई के प्रति यह प्रेम जो बचपन से ही गाँधी जी के नस-नस में समा गया था, आजीवन उनके साथ रहा। वे बड़ों के दोष कभी नहीं निकालते थे। वे बहुत आज्ञाकारी थे।
एक बार एक निरीक्षक उनकी पाठशाला में निरीक्षण के लिए आया। शिक्षक ने बच्चों को कुछ अंग्रेजी शब्द लिखने के लिए कहा। गाँधीजी ने ‘केटल’ शब्द का स्पेलिंग गलत लिखा था। जब शिक्षक ने उसे देखा तो उन्होंने इशारे से गाँधीजी को पास बैठे विद्यार्थी की नकल कर स्पेलिंग सही करने के लिए कहा। लेकिन गाँधीजी ने वैसा नहीं किया। वे अपने सत्य पर ही डटे रहे।
उसी समय जब वे हाई स्कूल में थे, शहर में एक नाटक कम्पनी आई। नाटक था श्रवण की पितृभक्ति तथा सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र। इन दोनों नाटकों का उनके मन पर गहरा प्रभाव पड़ा। श्रवण की अपने वृद्ध माता-पिता के प्रति भक्ति अपने आप में एक आदर्श है। राजा हरिश्चन्द्र की दृढ़ता से बहुत प्रभावित हुए।
उन्होंने सत्य की रक्षा के लिए बहुत कष्ट सहन किये। नाटक देखने के बाद गाँधीजी को स्वप्नों में भी ये नाटक दिखाई पड़ते थे । अन्त में उन्होंने निश्चय किया कि सत्य की विजय अटल है। इसलिए वह कभी सत्य का साथ नहीं छोड़ेंगे। सत्य के मार्ग वाली कठिनाइयों से वे पीछे नहीं हटेंगे।
महात्मा गाँधी जब तक जीवित रहे, सत्य का पालन करते रहे और सत्य के पुजारी बन गये।