पाबूजी राठौड़ का इतिहास

Kheem Singh Bhati
53 Min Read

राजस्थान की वीर भूमि वीरों का समुचित सम्मान करना जानती है। जिन वीरों ने धान, मान-मर्यादा के लिए लोकहित के लिए, जन जीवन की रक्षा के लिए, अपने तन मन का हंसते हंसते बलिदान कर दिया है, उन वीरों में पाबूजी राठौड़ का नाम राजस्थानी जन जीवन में माला के सुमेरु की भांति महत्वपूर्ण है।

कोलूगढ़ के राजा धांधल के दो पुत्र थे । बड़े का नाम बूड़ोजी और छोटे का नाम पाबूजी था । राजा धांधल के एक पौत्री भी थी, जिसका नाम केलमदे था । राजा धांधल अपनी पौत्री के लिए बड़े चिंतित थे । पाबूजी और बूड़ोजी दोनों भाई केलमदे के लिए योग्य वर की तलाश में थे | पाबूजी अपने चमत्कारों के लिए किशोरावस्था में ही प्रसिद्ध हो गये थे। उनकी वीरता और अदम्य साहस की कई कहानियां घर घर में प्रचलित थीं।

केलमदे का विवाह वे किसी समान कुल में करना चाहते थे। एक बार संयोग से ददरेवा के राजकुमार गोगा चौहान से उनकी भेंट हो गई। दोनों ने अपने अपने चमत्कार दिखलाये । दुर्भाग्य से चमत्कारों की इस होड़ में पाबूजी गोगाजी से हार गये। इस हार के परिणाम स्वरूप पूर्व निश्चित की गई गोगा की शर्त के अनुसार केलमदे का विवाह गोगाजी के साथ ही कर देना पड़ा था, यद्यपि राजा धांधल और बूड़ोजी एकमत नहीं थे।

पाबूजी राठौड़ का इतिहास
पाबूजी राठौड़ का इतिहास

लेकिन समय की गति को कौन टाल सकता है। केलमदे का विवाह गोगा चौहान के साथ धूमधाम से सम्पन्न हो गया । हीरे, जवाहरात, सोना चांदी, हाथी, घोड़ा पिंजस पालकी आदि दहेज में दिया गया । पाबूजी को अपनी भतीजी से अत्यधिक स्नेह था, इस लिए उन्होंने दहेज में कुछ ऊंट देने का भी वचन दिया। ऐसा कहा जाता है उस समय राजस्थान में ऊंटों का अत्यन्त प्रभाव था। ऊंट रखना शान की बात समझी जाती थी। राजा लोग भी ऊंटों की सवारी के लिए तरसते थे ।

पाबूजी ने ऐसा असम्भव वचन अपनी भतीजी को देकर अपने स्नेह का इजहार किया। केलमदे के ससुराल में ऊंट देने की बात का हल्ला उड़ गया । केलमदे की ननदों एवं सास ने जब देखा कि विवाह हुए इतने दिन व्यतीत हो गये हैं, पर पाबू के अभी ऊंट नहीं आये तो उन्होंने देखा कि यह तो सूखा वायदा ही था। लगता है पाबूजी ने अपना नाम ऊंचा रखने के लिए जात बिरादरी के सामने ऊंटों को देने की बात कह दी ।

ऊंट देना लोहे के चने चबाना है। ननद और सास केलमदे को ऊंटों के बहाने ताने मारने लगीं। व्यंग्य से वे केलमदे को कहतींकुंवरानीजी, तुम्हारे ऊंट हमारे उपवन में लगे पुष्पों को तो न खा जायेंगे। कभी कहतीं हमारे घोड़ों के बीच तुम्हारे यहां से आये हुए ऊंट बहुत ही सुहावने लगते हैं। देखो न ऊंटों की कतारें आ रही हैं। इस तरह के कथनों के साथ जब वे हंसतीं तो हंसी केलमदे की छाती के आरपार निकल जाती ।

पाबूजी राठौड़ का इतिहास

प्रांचल में मुंह छिपा कर रोती रहती। अपने पीहर वालों पर छोड़े गये व्यंग्य बाणों को सहन करने में जब वह असमर्थ हो गई तो उसने अपने काका पाबूजी को एक पत्र लिखा, जिसमें उसने ऊटों के भेजने का वायदा याद दिलाया । साथ ही साथ उसने सास ननद के तीखे व्यंग्य प्रहारों को भी लिखकर काका को वस्तु स्थिति से अवगत कराया । जब पत्रवाहक कोलूगढ पहुंचा, तो उस समय संध्या हो चली थी। तारे प्रकाश में दिखने लगे थे |

पलपल अन्धेरा बढ़ता जा रहा था । केलमदे के निर्देश के अनुसार हलकारा बिना कहीं विश्राम किये कोलूगढ़ पहुंचा। उसने तुरन्त अपने आने का सन्देश पाबूजी के पास भेजा | पाबूजी ने सन्देश को अपने भाले के प्रकाश में पढ़ा । भाले की चमक और पाबूजी की आंखों से निकलती ग्राग, समान रूप से देखी जा सकती थी | पाबूजी की आँखों से अंगारे बरसने लगे।

उन्होंने कुछ निश्चय करके अपने होंठ काट लिये, हाथ बरबस भाले की ओर बढे, केलमदे के पत्रों का विवरण पढकर वे व्याकुल हो गये । उन्हें अपने वचन को पूरा न करने के कारण बार बार अपने ही ऊपर क्रोध आने लगा। अपने बड़े भाई बूड़ोजी की सलाह से दरबार लगाया गया । अधीनस्थ सभी सरदार हथियारों से सज्जित होकर दरबार उपस्थित हुए। बीड़ा डाला गया । पाबूजी ने बीड़े का आशय स्पष्ट करते हुए कहा कि जो कोई वीर ऊंटों का पता लगायेगा, उसे 21 गांव जागीर में दिये जायेंगे। सभा में सन्नाटा छा गया। ऊंट तो इन्द्रासन प्राप्त करने से भी ज्यादा मुश्किल थे।

ऐसे असम्भव कार्य को करने का साहस किसमें था । किस के दो सिर थे । बहुत देर तक की चुप्पी के पश्चात हरीसिंह अपने स्थान से प्रागे बढा और उसने बड़े साहस के साथ बीड़ा उठा लिया। पाबूजी ने हरीसिंह की पीठ थपथपाई और कहा तुम्हें जैसा घोड़ा चाहिये वँसा ले लो, जितना धन चाहिए उतना धन ले लो तथा जितने आदमी मदद के लिए चाहिए उतने ग्रादमी अपने साथ ले लो और अब इस कार्य को पूरा करने के लिए शीघ्र ही प्रस्थान कर जावो । सभी सरदारों ने उसे विदा किया ।

जब हरीसिंह अपनी मां से विदा लेने आया तो मां भावविह्वल हो गई। वह जानती थी कि हजार हजार कोश तक ऊंट का नामोनिशान भी नहीं मिलेगा । केवल रावण की लंका ही एकमात्र ऐसा स्थान है जहां ऊंटों की भरभार है। समुद्र पार की ऐसी विकट धरती पर अपने को जाते देख वह फूट फूट कर रोने लगी । उसने अपने बेटे को वचन से मुकर जाने के लिए कहा।

यदि हरीसिंह राजी हो जाता तो वह पाबूजी की धरती छोड़कर दूसरे राज्य में बस जाने को भी तैयार थी किन्तु हरीसिंह की पत्नी अपने वीर पति पर वचन भंग का कलंक नहीं लगने देना चाहती थी। उसने आरती सजाई और अपने पति को कुकुम का तिलक लगाया । माला पहनाई और बड़े हर्ष से विदा किया। हरीसिंह अपनी मां के मोह को भंग करना चाहता था । रोते रोते मां ने उसे जाने की ग्राज्ञा देदी।

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