उसने जोगी का वेष बना कर अपनी मां को छलना चाहा। मां ने जब अपने पुत्र को साधु के वेष में देखा तो वह उसे पहचान गई और रो रो कर कहने लगी, बेटा तू साधु होकर जा रहा है, मुझ बुढ़िया का क्या होगा ? तेरी बहिन सयानी हो चली है। उसके हाथ पीले कौन करेगा ? उसके मंडप को कौन सम्भालेगा ? कौन कन्यादान देगा ? हरीसिंह मोहमुक्त हो चला था फिर भी क्षण भर को वह बहिन के प्यार के कारण ठिठक गया, लेकिन उसी क्षण उसे अपनी प्रतिज्ञा याद हो श्राई।
उसने अपनी मां को प्राश्वस्त करते हुए कहा, मां जब तक बूड़ोजी प्रौर पाबूजी जैसे धनी हैं, चांदा और डामा जैसे मेरे मित्र हैं, तब तक तू किसी बात की चिंता न कर। लेकिन मां के स्तनों में खुजलाहट आ रही थी। हरीसिंह की मां इसे अपशकुन मान कर उसे भेजने में डर रही थी। हरीसिंह के हठ के आगे मां को झुकना पड़ा। हरीसिंह आवश्यक साज सामान तथा मोहरें लेकर लंका की ओर चल पड़ा। तीन विश्राम उसने दक्षिण की धरती पर किये।
किन्तु जिसने सिर पर कफन बांध रखा हो उसे चैन कहां ? वह तो अगला सूरज ऊंटों के बीच उगाना चाहता था। दिन निकलने से पूर्व ही उसने घोड़े को ऐड़ लगाई। देखते देखते घोड़ा हवा से बातें करने लगा । वह समुद्र के किनारे पहुंच चुका था । समुद्र ऊंची ऊंची लहरों से खेल रहा था । ऐसा लगता था मानो वह प्रकाश से ठिठोली कर रहा हो । उसकी गर्जना दिल दहला रखी थी । हरीसिंह तूफानी समुद्र को देख वहीं खड़ा हो गया ।
समुद्र को पार करना उसे असम्भव दिखाई पड़ा । उसने अपने गुरु बालीनाथ का ध्यान किया । बालीनाथ ने अपने भक्त का संकट समझ, तुरन्त ही अपने योगबल से समुद्र पर सेतु बांध दिया । हरीसिंह ने घोड़े को ऐड़ लगाई । घोड़ा सेतु पार करता हुआ लंका पहुंचा। हरीसिंह ने अपने घोड़े को कहा जिस दिशा में ऊंटों की गंध उठ रही है, उसी ओर चलो। अपने स्वामी के मन की बात जानने वाला वह स्वामी भक्त अश्व यद्यपि थक कर चूर-चूर हो गया था, किन्तु स्वामी का प्रोत्साहन पाकर वह पुनः दौड़ने लगा ।
जंगल-दर-जंगल घूमने पर एक बीहड़ में उसने ऊंटों का झुण्ड चरते हुए देखा। उनके रखवाले पेड़ों के नीचे सो रहे थे, प्रौर कुछ इधर-उधर बैड़े गपशप कर रहे थे । हरीसिंह ने वस्तुस्थिति को समझ कर घोड़े को वृक्षों के बीच में बांध दिया और ऊंटों से थोड़ी दूर पर ग्राग जला कर तपने लगा। उसकी धूनी से उठने वाला घु’श्रा जंगल मे फैलने लगा। ऊंटों के रखवाले अचानक किसी साधु को प्राया देखकर भयभीत हो गये । वे हरीसिंह को सिद्ध साधु समझ कर पूजने लगे ।
साधु के लिए दूध और फल इकट्ठा करने लगे। जब बहुत सारे लोगों ने हरीसिंह को दूध समर्पित किया तो वह चौकन्ना होकर उठ बैठा और कहने लगा, मैं तो साधु हूँ । न तुम्हारा दूध ग्रहण करूगा न फल । इतना कह कर वह पुनः ध्यान में लीन हो गया। गांव के लोग विस्मय-विमूढ़ होकर लौट पड़े। उन्होंने इस साधु सम्बन्ध में सर्वत्र चर्चा फैला दी । पण्डितों की सभा में साधु के विषय में विचार हुआ ।
ज्योतिषियों ने अपना पतड़ा फैलाया और कहा वह व्यक्ति साधु नहीं है, वह तो कोलूगढ़ के चमत्कारिक पुरुष पाबूजी का सेवक है। सात समन्दर पार करके वह ऊंट चुराने के लिये पाया है। जब चोरी का यह अद्भुत ढंग उन्होंने समझा तो वे लाठियों सहित साधु पर चढ़ बैठे। हरीसिंह गांव वालों की फौज को देखकर उनके मन्तव्य को समझ गया था। वह भलीभांति जानता था कि इस प्रदेश में वह अकेला इतने लोगों से युद्ध में पार नहीं पा सकेगा, इसलिए उसने चमत्कार दिखलाने का निश्चय किया।
गुरु बालीनाथ का स्मरण किया। जब गांव वाले प्रत्यन्त समीप ग्रा गये तो वह धूणी के जलते हुए अंगारों को अपनी झोली में रखकर चलने लगा। गांव वाले अपने श्राश्चर्य को न रोक सके । साधु के इस कृत्य को उन्होंने प्रत्यन्त श्रद्धा के साथ देखा । उनकी लाठियां झुक गईं। अब तो वे उसके मार्ग में पलक-पावड़े बिछाने लगे । स्वागत-सत्कार करने लगे । उसके चरण पकड़ कर अपने अपराध की क्षमा मांगने लगे । दूध और फल पुनः लाये गये ।
सबने हाथ जोड़कर साधु से निवेदन किया कि आप सिद्ध पुरुष हैं, कृपा कर हमारा दूध स्वीकार कीजिये । हरीसिंह ने खाली खप्पर ग्रासन पर रख दिया और अपने इष्ट बालीनाथ का ध्यान करने लगा। गांव वाले दूध की हांडियां खप्पर में डालने लगे, लेकिन खप्पर ज्यों का त्यों खाली पड़ा रहा । इस करामात को देखकर सभी लोग हैरत में रह गये। उन्होंने भयभीत कातर वाणी में गांव की रक्षा करने के लिए बाबा से प्रार्थना की ।
हरीसिंह ने सबको संतोष बंधाया कि डरने की कोई बात नहीं है। मैं किसी का अनिष्ट नहीं करूंगा। तुम्हारे ऊंट भी मैं चुराकर नहीं ले जाऊंगा, ऊंटों की कुछ मींगनियां ले प्रायो । लोग दौड़े और मींगनियां लाकर बाबा को भेंट की। बाबा ने सबों को आशीर्वाद दिया, और अपने अपने घर लौटने को कहा। हरीसिंह ने प्रब अधिक विलम्ब करना उचितन हीं समझा । अपने कार्य की साक्षी के रूप में मींगनियों को झोली में डालकर वह कोलूगढ लौट ग्राया ।
पाबूजी की सभा बैठी। हरीसिंह ने ऊंटों का विस्तृत विवरण दिया। उसने कहा कि रावण की लंका में लक्षाधिक ऊंट हैं । यदि ऊंट प्राप्त करने हैं तो रावण से संघर्ष करने का प्रबन्ध करना चाहिए | पाबूजी ने अपने वीरों को एकत्रित किया और लंका की ओर प्रयारण किया। उनकी सेना की हलचल से धरती घसकती थी। जुझाऊ बाजों के नाद से ग्राकाश फटा पड़ता था। मार्ग में जितने राजा लोग मिले, सब भयभीत होकर पाबूजी की शरण में आ गये ।
पाबूजी ने सेना सहित सात समुन्दर पार करके लंका में प्रवेश किया। पाबूजी की केशर घोड़ी युद्ध के लिए छटपटा रही थी। हरीसिंह ऊंटों के चारागाह तक पथ प्रदर्शन किया। लाख १ लाख ऊंटों के झुण्ड इधर-उधर चर रहे थे | पाबूजी की सेनाओं ने बांके ऊंटों को ( घेर लिया। चरवाहे भाग छूटे। उन्होंने रावण के दरबार जाकर फरियाद की । रावण स्वयं अपनी सेना सजा कर युद्ध स्थल पर उपस्थित हुआ ।
रावण की सेना में विकराल राक्षस और भीषण आकार वाले जीव जन्तु थे। पाबूजी इस यमदूती सेना से जरा भी विचलित नहीं हुए। उन्होंने रावण को ललकारा। उनकी आवाज दशों दिशाओं में गूंज उठी। रावण को पाबूजी ने कहा यदि अपना भला चाहते हो तो लौट जाओ। मैंने जिन ऊंटों को घेरा है उन्हें मैं हरगिज वापस करने वाला नहीं हूं। भीषण संग्राम होने लगा। एक श्रोर रावण का अट्टहास दूसरी ओर पाबूजी की सिंह गर्जना युद्ध को और भी अधिक भयंकर बना रही थी ।
पाबूजी के दायें बायें चांदा और डामा अपनी तलवार का जौहर दिखलाने लगे। उन्होंने रावण की सेना को गाजर मूली की तरह उड़ा दिया। रावरण को अपनी बची हुई सेना के साथ भागना पड़ा। विजयश्री का सेहरा पाबूजी को बंधा | पाबूजी न घेरे को लेकर कोलूगढ़ की ओर प्रस्थान किया। पाबूजी स्वयं ऊंटों को लेकर ददरेवा जाने के इच्छुक थे। अत: कोलूगढ़ पहुंचने के पूर्व ही उन्होंने अपना मार्ग बदल लिया। वे उतावले उतावले बढ़ रहे थे।
उन्हें अपनी भतीजी केलमदे को दिये हुए वचनों को पूर्ण करने की आतुरता थी । मार्ग में सोढों का सूखा प्रदेश थम, बागबगीचे, कुआ-बावड़ी, पेड़-पौधे सब सूख गये थे । उस भूमि पर पाबुजी के चरण पड़ते ही सूखा रेगिस्तान लहराने लगा। पौधों के फूल और वृक्षों के फल श्रा गये | पाबूजी के इस चमत्कार को वहां की राजकुमारी सोढ़ी ने अनुभूत किया । वह टकटकी लगा कर घोड़ी पर चढे पाबूजी को देखती रही ।
किन्तु पाबूजी ने उस प्रोर से मुंह मोड़ लिया। वे उसी निस्पृह भाव से आगे बढ गये। ददरेवा पहुँच कर उन्होंने ऊंट केलमदे को अश्वशाला में भेज दिया। काका भतीजी का स्नेह मिलन हुआ | पाबूजी ने अपने वचन का निर्वाह कर अपने धर्म की रक्षा की। लोगों ने पाबूजी के वीरत्व की सराहना की। सभी के मुख पर पाबूजी का नाम था। केलमदे के हर्ष का कोई पारावार नहीं था ।
राजकुमारी सोढ़ी पहली झलक में ही पाबूजी को अपना सर्वस्व दे चुकी थी। वह मनसा वाचा कर्मरणा उन्हें अपना पति वरण कर चुकी थी। उसने मन ही मन प्रतिज्ञा की कि यदि विवाह करना ही है तो पाबूजी के साथ ही करूंगी अन्यथा जन्म भर कुंवारी रह कर जीवन व्यतीत करूँगी । वह अब सयानी हो चुकी थी। उसके पिता को भी सोढ़ी विवाह की चिंता सताने लगी थी। ठाकुर ने अपने कुलपण्डित को बुलाया और राजकुमारी सोढ़ी के लिए समान और सुयोग्य वर तलाश करने के लिए कहा ।
जब पण्डित की प्रस्थानगी का राजकुमारी को पता लगा तो उसने कुलपण्डित को अपने पास बुलवाया। सोने की चौकी पर उसे बैठा कर सोढ़ी ने उपहार से उसे प्रसन्न किया। हाथ जोड़ कर सोढ़ी ने निवेदन किया, हे पण्डितराज ! मेरा निश्चय है कि मैं पाबूजी से ही अपना विवाह करूंगी, अन्यथा जन्मभर कुप्रारी रहूंगी। इसलिए महाराज को समझा कर तुम सीधे कोलूगढ़ ही जाओ । पण्डित ने कोलूगढ़ ही जाने का निश्चय किया।
राजकुमारी के मन की बात को जान पण्डित ने अपना काम और भी अधिक सरल पाया। पण्डित कोलूगढ़ पहुँचा । दूर से ही पाबूजी का घवल महल, जिसके इर्द गिर्द हरे वृक्षों की कतारे खड़ी थीं, दिखाई दिया। पाबूजी के सफेद महल के झरोखों पर लाल लाल किंवाड़ हैं। मुख्य द्वार चंदन से बना हुआ है। पण्डित ने चन्दन निर्मित दरवाजे से महल में प्रवेश किया | पाबूजी की सभा में बांके सरदारों को देखकर पाबूजी के शौर्य को वह अन्दर ही अन्दर भांप गया।