कन्नौज के राठौड़ राजा, कान्यकुब्ज से भागकर मंडौर के परिहारों के यहाँ आये, जहाँ उन्हें आश्रय प्राप्त हुआ। इस उपकार का बदला राठौड़ लोगों ने विश्वासघात के द्वारा दिया। चूंडा नामक राठौड़ राजा ने परिहारों के अन्तिम राजा का राज्य छीनकर अपना अधिकार कर लिया और मंडौर के दुर्ग पर राठौड़ों का झण्डा फहराने लगा। 13 इस घटना के पूर्व परिहारों को मेवाड़ के राजाओं से निरन्तर संघर्ष करना पड़ा था। इस संघर्ष ने उनकी शक्ति को निर्बल बना दिया था। पहले परिहारों के राजा लोग ‘राणा’ कहलाते थे। गुहिलवंशी राजा राहुप ने मंडौर पर आक्रमण करके परिहारों को पराजित किया और उनसे ‘राणा’ की उपाधि छीन ली।
परिहार वंश के लोग सम्पूर्ण राजस्थान में बिखरे पड़े हैं। परन्तु उनके अधिकार में किसी स्वतन्त्र जागीर का उल्लेख नहीं मिला। कोहारी, सिन्धु और चम्बल नदियों का जहाँ पर संगम होता है, उस क्षेत्र में परिहार वंश के बहुत से लोग बसे हुए हैं और आसपास के अनेक गाँव उन्हीं के द्वारा बसाये गये हैं।
परिहार वंश की बारह शाखाओं में इन्दा और सिन्धल ही विशेष प्रसिद्ध हैं। इन दोनों शाखाओं के कुछ लोग मारवाड़ की लूनी नदी के दोनों किनारों पर पाये जाते हैं।
13. चावड़ा अथवा चावरा – (राजस्थान के छत्तीस राजकुल) – चावड़ा अथवा वंश के लोगों ने किसी समय में इस देश में प्रसिद्धि प्राप्त की थी, लेकिन अब उनका अस्तित्व मिटता जा रहा है। उनकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में हमें कोई जानकारी नहीं मिलती है। सूर्यवंशी तथा चन्द्रवंशियों के साथ उनका कोई सम्बन्ध नहीं है। ऐसी स्थिति में सीथियन लोगों से उनकी उत्पत्ति का अनुमान किया जा सकता है। परन्तु भट्टग्रन्थ से पता चलता है कि मेवाड़ के सूर्यवंशी वर्तमान राजवंशों के साथ इस वंश के लोगों का वैवाहिक सम्बन्ध था।
चावड़ों की राजधानी सौराष्ट्र के समुद्री किनारे पर स्थित दीव बन्दर के टापू में थी। इस बात के प्रमाण मिलते हैं कि दीव के राजा ने 746 ई. में अनहिलवाड़ा पट्टन की नींव डाली थी, आगे चलकर भारत के इस क्षेत्र का एक प्रमुख नगर बना। चावड़ा वंश के कुछ उल्लेख प्राचीन ग्रन्थों में उपलब्ध हैं। मेवाड़ के इतिहास से ज्ञात होता है कि मुसलमानों के पहले आक्रमण से चित्तौड़ को बचाने के लिए चतनसी नामक एक चावड़ा सरदार एक सेना के साथ युद्ध के लिये गया था।
महमूद गजनवी ने जब सौराष्ट्र पर आक्रमण कर उसकी राजधानी अनहिलवाड़ा को जीत लिया तो उसने वहाँ के राजा को सिंहासनच्युत कर उसके स्थान पर वहाँ के एक प्राचीन राजपरिवार के सदस्य को सिंहासन पर बैठाया, जिसका नाम दाबशिलिम था। प्राप्त लेखों से पता चलता है कि डाबी एक वंश की शाखा थी, जिसको बहुत-से लोग चावड़ा वंश के अन्तर्गत मानते हैं। कुछ उसे प्राचीन यदुवंश की शाखा मानते हैं। एक हजार वर्ष बीत जाने के बाद भी सूर्यवंशी राजाओं और सौराष्ट्र के चावड़ों तथा सौरों के सम्बन्ध कायम हैं। राणा परिवार राजस्थान में अत्यधिक सम्मानपूर्ण माना जाता है और चावड़ा वंश पतनोन्मुख अवस्था में है।
फिर भी, चावड़ा वंश की लड़कियाँ राणा परिवारों में ब्याही जाती हैं। राजकुमार जवानसिंह गुजरात के एक छोटे चावड़ा सरदार की पुत्री से पैदा हुआ। इस प्रकार के और भी उदाहरण हैं।
14. टाँक अथवा तक्षक- (राजस्थान के छत्तीस राजकुल) – तक्षक वंश उस जाति का नाम है, जिससे प्राचीनकाल में भारत के आक्रमणकारी विभिन्न सीथियन वंशों की उत्पत्ति हुई थी। तक्षक वंश, जेटी जाति जिससे अगणित शाखाओं की उत्पत्ति हुई, की अपेक्षा अधिक प्राचीन है। इन दोनों जातियों के सम्बन्ध एक-दूसरे के इतने नजदीक हैं कि दोनों को एक-दूसरे से पृथक् करना बहुत कठिन था।
अबुलगाजी ने तांनक को तुर्क अथवा तर्गेताई का पुत्र माना है, जिसका पुराणों में तुरक के नाम से और चीनी ग्रन्थों में तक्कुक्स के नाम से उल्लेख मिलता है और जो टोचरी जाति से उत्पन्न हुआ मालूम होता है, जिसने यूनान के अन्तर्गत बैक्ट्रिया के राज्य का सर्वनाश करने में सहयोग दिया था। इस टोचरी जाति के नाम से ही एशिया के एक विस्तृत प्रदेश का नाम टोचरिस्तान पड़ा, जो आगे चलकर तुर्किस्तान के नाम से पुकारा जाने लगा। एलफिंस्टन साहब ने अपनी पुस्तक में जिस ताजक जाति का वर्णन किया है, वह वास्तव में तक्षक-वंशी थी, ऐसा मालूम होता है कि ये दो नाम एक ही जाति के हैं।
पहले बताया जा चुका है कि राजस्थान के अनेक भागों में तुस्टा, तक्षक और टाँक जाति के पाली अथवा बौद्ध अक्षरों में प्राचीन शिलालेख मिले हैं, जो मोरी, परमार और उनके वंशजों से सम्बन्ध रखते हैं। संस्कृत भाषा में नाग और तक्षक को सर्प कहते हैं और तक्षक हैं वह वंश है, जिसका वर्णन नागवंश के नाम से भारत के प्राचीन ऐतिहासिक वीरकाव्य ग्रन्थों में मिलता है। महाभारत में पांडव-वंशियों और तक्षक लोगों के युद्ध का उल्लेख मिलता है। तक्षक के हाथों परीक्षित की मृत्यु और परीक्षित के पुत्र जनमेजय द्वारा तक्षकों का विनाश- इन सबका उल्लेख महाभारत में पाया जाता है।
जैसलमेर के भाटी राजाओं के प्राचीन इतिहास में लिखा है कि जब वे लोग जाबुलिस्तान से खदेड़ दिये गये तो उन लोगों ने टाँक जाति से सिन्धु नदी के किनारे के क्षेत्र छीन लिये और वहीं पर बस गये। वहाँ पर उनकी राजधानी शालमनपुर थी। इन घटनाओं का समय युधिष्ठर संवत् का 3008वाँ वर्ष माना गया है। इस हिसाब से यह निश्चित है कि तोमरवंशी विक्रम को विजय करने वाला शालिवाड़न अथवा सालवाहन, जो कि तक्षक जाति का था, उसी वंश का था, जिसको भाटी लोगों ने परास्त करके दक्षिण की ओर खदेड़ दिया था।
बहुत-से लोग अनुमान करते हैं कि ईस्वी या सात शताब्दी के पहले तक्षकों ने अपने राजा शेषनाग (शिशुनाग) के नेतृत्व में भारत में प्रवेश किया था। आबू माहात्म्य में तक्षकों को हिमाचल का पुत्र माना गया है। इन सभी बातों से सिद्ध होता है कि वे लोग सीथियन जाति से सम्बन्ध रखते थे और उन्हीं के वंशजों में से थे। जैसा कि पहले बताया जा चुका है कि तक्षक मोरीवंश के लोग प्राचीनकाल से ही चित्तौड़ के अधिकारी रहे थे। लेकिन आगे चलकर जब गुहिलोतों ने उन्हें चित्तौड़ से निकाल दिया तो चित्तौड़ पर मुसलमानों का आक्रमण हुआ।
उस समय जिन राजपूत राजाओं ने चित्तौड़ की रक्षा के लिए मुसलमानों से युद्ध किया, उनमें आसेरगढ़ के टॉक लोग भी थे। इस घटना के लगभग 200 वर्ष बाद तक आसेरगढ़ पर टाँक लोगों का अधिकार बना रहा। वहाँ का सरदार पृथ्वीराज की सेना का एक महत्त्वपूर्ण सेनापति था। चन्द कवि ने उसका उल्लेख “झण्डा बरदार आसेर का टाँक” के रूप में किया है।
यह प्राचीन वंश जनमेजय का शत्रु तथा सिकन्दर का मित्र था। तक्षक वंश के सेहारन (शिहरण) नामक राजा ने अपना पुराना धर्म छोड़कर इस्लाम धर्म को ग्रहण कर लिया था। उसने अपनी टाँक जाति को छिपाकर अपनी जाति का नाम वजेहउलतुल्क जाहिर किया। उसका बेटा जफर खाँ गुजरात के सिंहासन पर उस समय बैठा, जब तैमूर भारत में मारकाट मचा रहा था। जफर को उसके पोते ने मार डाला और अनहिलवाड़ा की प्राचीन राजधानी हटाकर अहमदाबाद में कायम की। धर्म-परिवर्तन के बाद टाँक जाति का अस्तित्व राजस्थान में खत्म हो गया।
15. जिट अथवा जाट- (राजस्थान के छत्तीस राजकुल) – राजस्थान के 36 राजकुलों में जिट अथवा जाट का भी स्थान है। परन्तु इस जाति को राजपूत नहीं माना जाता और न ही राजपूतों के साथ उनके कहीं वैवाहिक सम्बन्ध ही पाये जाते हैं, लेकिन भारत के सभी क्षेत्रों में इस जाति के लोग पाये। जाते हैं। इन लोगों का मुख्य काम कृषि है। पंजाब में इन लोगों को प्राय: जिट कहा जाता है, लेकिन गंगा-जमुना क्षेत्र में इन्हें जाट कहा जाता है। जाटों में भरतपुर के राजा का बड़ा सम्मान है। सिन्धु नदी के किनारे और सौराष्ट्र में इन लोगों को जट कहा जाता है। राजस्थान के अधिकांश कृषक इसी जाति के लोग हैं। सिन्धु नदी के उस पार आबाद मुसलमान भी पहले जाट वंश के थे।
एक समय था, जब जेटी का राज्य काफी विख्यात रहा। साइरस के समय से लेकर चौदहवीं शताब्दी तक उसकी ख्याति बनी रही। इस राज्य की राजधानी जगजार्टीज नदी के किनारे थी। कालान्तर में इस जाति ने इस्लाम धर्म को अपना लिया। चीनी ग्रन्थों के अनुसार प्राचीन समय में इस जाति के लोग बौद्ध धर्मावलम्बी थे।
जिट जाति के सम्बन्ध में बहुत सी बातों का उल्लेख मिलता है। सिन्धु नदी के पश्चिम का क्षेत्र उनका निवास स्थान माना जाता है। उनकी उत्पत्ति यदुवंश से मानी जाती है। जैसा कि पहले बताया जा चुका है कि जिट और तक्षक वे जातियाँ हैं, जिनकी विभिन्न उपजातियों ने भारत में आक्रमण किये थे। पाँचवीं सदी का एक शिलालेख मिला है, जिससे पता चलता है कि ये दोनों नाम एक ही जाति के हैं। उस शिलालेख से यह भी जानकारी मिलती है कि इस जाति का राजा सूर्य की पूजा करता था, जैसे कि सीथियन लोग करते थे। उस शिलालेख में इस बात का भी उल्लेख है कि जिटवंशी राजा की माता यदुवंशी थी। इस आधार पर जिट लोगों के यदुवंशी होने का दावा सही प्रतीत होता है।