मारवाड़ का सिरमौर – जोधपुर दुर्ग (मेहरानगढ़)

Kheem Singh Bhati
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मारवाड़ का सिरमौर – जोधपुर दुर्ग (मेहरानगढ़) – राजस्थान के पर्वतीय दुर्गों में जोधपुर का किला मेहरानगढ़ प्रमुख और उल्लेखनीय है। रणबांकुरे राठौड़ों की वीरता और पराक्रम के साक्षी इस किले का निर्माण जोधपुर के यशस्वी संस्थापक राव जोधा ने करवाया था। उपलब्ध साक्ष्यों के अनुसार राव जोधा ने विक्रम संवत 1515 की ज्येष्ठ सुदी 11 शनिवार (13 मई 1459 ई०) को इस किले की नींव रखी और उसके चारों ओर नगर बसाया जो उनके नाम पर जोधपुर कहलाया एवं उनके राज्य की राजधानी बना।

मारवाड़ की राजधानी इससे पहले मंडोर थी। नया दुर्ग मंडोर से लगभग 6 कि०मी० दक्षिण में एक विशाल पहाड़ी पर बनवाया गया। किले वाली पहाड़ी प्रसिद्ध योगी चिड़ियानाथ के नाम पर चिड़िया टूक कहलाती थी। उनका स्थान किले के पीछे आज भी विद्यमान है। अनुमान है कि अपनी विशालता के कारण सम्भवतः यह किला मेहरानगढ़ कहलाया — ‘गढ़ बण्यो मेहराण’। मयूराकृति का होने के कारण जोधपुर के किले को मयूरध्वजगढ़ (मोरध्वजगढ़) भी कहते हैं।

इतिहासकार गौरीशंकर हीराचन्द ओझा ने अपने ‘जोधपुर राज्य के इतिहास’ में इस लोकविश्वास का उल्लेख किया है कि यदि किले की नींव में किसी जीवित व्यक्ति की बलि दे दी जाय तो वह किला अपने निर्माता के वंशजों के हाथ से नहीं निकलता। इसी विश्वास के अनुसार जोधपुर के किले की नींव में राजिया नामक व्यक्ति को जिन्दा गाड़ दिया गया। उसके परिवार को इस त्याग के बदले जागीर दी गयी । जिस स्थान पर वह गाड़ा गया था उसके ऊपर खजाना तथा नक्कारखाने के भवन बने हुए हैं।

जोधपुर दुर्ग (मेहरानगढ़) के ऊपर रखी हुई विशाल तोप
जोधपुर दुर्ग (मेहरानगढ़) के ऊपर रखी हुई विशाल तोप

जोधपुर का यह सुदृढ़ और विशाल दुर्ग भूमितल से लगभग 400 फीट ऊँचा है तथा अपने चतुर्दिक बसे जोधपुर नगर के मुकुट के समान शोभायमान है। किले के चारों ओर सुदृढ परकोटा है जो लगभग 20 फीट से 120 फीट तक ऊँचा और 12 से 20 फीट चौड़ा है। किले का क्षेत्रफल लम्बाई में 500 गज और चौड़ाई में 250 गज के लगभग है । इसकी प्राचीर में विशाल बुजें बनी हुई हैं।

उन्नत प्राचीर और विशाल बुर्जों ने जोधपुर के किले को एक दुर्भेद्य दुर्ग का स्वरूप प्रदान किया। इस मेहरानगढ़ दुर्ग के दो बाह्य प्रवेश द्वार हैं– उत्तर पूर्व में जयपोल तथा दक्षिण पश्चिम में शहर के अन्दर से फतेहपोल। इनमें जयपोल का निर्माण जोधपुर के महाराजा मानसिंह ने 1808 ई० के आसपास करवाया था। इसमें लगे लोहे के विशाल किंवाड़ों को यहाँ के महाराजा अभयसिंह की सरबलन्दखां के विरुद्ध मुहिम में निमाज के ऊदावत ठाकुर अमरसिंह अहमदाबाद से लूटकर लाये थे जिन्हें बाद में महाराजा मानसिंह ने उनके वंशजों से लेकर यहाँ लगवाया।

किले के नगर की ओर के प्रवेश द्वार फतेहपोल का निर्माण महाराजा अजीतसिंह द्वारा जोधपुर पर से मुगल खालसा (आधिपत्य) समाप्त करने के उपलक्ष्य में करवाया गया। जोधपुर दुर्ग का एक अन्य प्रमुख प्रवेश द्वार लोहापोल है। इसका अगला भाग 1548 ई० में राव मालदेव ने बनवाना प्रारंभ किया था जिसे आगे चलकर महाराजा विजयसिंह ने सम्पूर्ण करवाया ।

लोहापोल के साथ दो अतुल पराक्रमी क्षत्रिय योद्धाओं-धन्ना और भींवा (जो आपस में मामा भानजा थे) के पराक्रम और बलिदान की यशोगाथा जुड़ी है जिन्होंने अपने स्वामी पाली के ठाकुर मुकुन्दसिंह (महाराजा अजीतसिंह के सामन्त) की एक आन्तरिक विग्रह में मृत्यु का प्रतिशोध लेते हुए अपने प्राणों की बाजी लगा दी। लोहापोल के पार्श्व में महाराजा अजीतसिंह द्वारा निर्मित इनकी 10 खम्भों की स्मारक छतरी विद्यमान है जिस पर ये पंक्तियाँ उत्कीर्ण हैं –

आजूणी अधरात, महलज रूंनी मुकन री ।
पातल री परभात, भली रुवाणी भींवड़ा ॥

इस किले के अन्य प्रवेश द्वारों में ध्रुवपोल, सूरजपोल, इमरतपोल तथा भैरोपोल प्रमुख और उल्लेखनीय हैं। मेहरानगढ़ म्यूजियम में जाने का मार्ग सूरजपोल होकर है। उपलब्ध प्रमाणों से पता चलता है कि प्रारम्भ में जोधपुर के किले का विस्तार उस स्थान तक ही था जो ‘जोधाजी का फलसा’ कहलाता है। बाद में परवर्ती शासकों द्वारा इसमें समय समय पर परिवृद्धि होती रही। विशेषकर जयपोल से डेढ़ कांगरापोल (लखनापोल) तक किले की प्राचीर बाद में बनी ।

मारवाड़ का सिरमौर - जोधपुर दुर्ग (मेहरानगढ़)
मारवाड़ का सिरमौर – जोधपुर दुर्ग (मेहरानगढ़)

जोधपुर दुर्ग ने जमाने के कई उतार चढ़ाव देखे हैं। इसने एक ओर राव मालदेव का प्रचण्ड प्रताप देखा तो शेरशाह के शासनकाल में राठौड़ राज्यलक्ष्मी का अल्पकालिक पराभव भी; राव चन्द्रसेन का स्वतन्त्रता के निमित्त अनवरत संघर्ष देखा तो महाराजा गजसिंह, जसवंतसिंह और महाराजा अजीतसिंह के उद्भट शौर्य और पराक्रम का भी यह दुर्ग मूक साक्षी रहा है। इसके साथ वीर शिरोमणि दुर्गादास और कीरतसिंह सोढ़ा की अनुपम स्वामिभक्ति और त्याग की गौरव गाथाएँ भी जुड़ी हुई हैं।

जोधपुर के इस किले पर अनेक बार आक्रमण हुए। राव जोधा की मृत्यु के बाद बीकानेर राज्य के संस्थापक उनके कनिष्ठ पुत्र बीका ने राजचिह्न लेने के लिए सूजा के शासनकाल में जोधपुर पर चढ़ाई की परन्तु उसकी माता जसमादे द्वारा मेल मिलाप करवाये जाने पर वह वापस लौट गया ।

1544 ई० में अफगान शासक शेरशाह सूरी ने जोधपुर के किले पर अधिकार कर लिया और उसमें एक मस्जिद का निर्माण करवाया। लेकिन शेरशाह की मृत्यु के उपरान्त मालदेव ने जोधपुर पर पुनः अधिकार कर लिया। राव चन्द्रसेन के शासनकाल में 1565 ई० में मुगल सूबेदार हसन कुलीखाँ ने इस किले पर अधिकार कर लिया । तदुपरान्त मुगल आधिपत्य स्वीकार करने पर यह दुर्ग मोटा राजा उदयसिंह को जागीर में इनायत किया गया।

मारवाड़ का सिरमौर - जोधपुर दुर्ग (मेहरानगढ़)
मारवाड़ का सिरमौर – जोधपुर दुर्ग (मेहरानगढ़)

1674 ई० (वि० सं 1731) में महाराजा जसवन्तसिंह की काबुल में जामरूद के थाने पर मृत्यु के बाद बादशाह औरंगजेब ने जोधपुर पर मुगल खालसा बिठा दिया परन्तु वीर शिरोमणि दुर्गादास की स्वामिभक्ति तथा उनके नेतृत्व में राठौड़ सरदारों के अनवरत संघर्ष और प्रयासों से महाराजा अजीतसिंह ने जोधपुर पर वापस राठौड़ों का आधिपत्य स्थापित किया। तदनन्तर जोधपुर के महाराजा अभयसिंह ने जब 1740 ई० में बीकानेर पर चढ़ाई की तो बीकानेर के शासक जोरावरसिंह ने अपनी संकटापन्न स्थिति में जयपुर नरेश महाराजा सवाई जयसिंह से सहायता का अनुरोध किया।

इस पर सवाई जयसिंह ने विशाल सेना के साथ जोधपुर दुर्ग को घेर लिया जिससे अभयसिंह को बाध्य होकर बीकानेर का घेरा उठाना पड़ा । उदयपुर की राजकुमारी कृष्णा कुमारी के विवाह सम्बन्ध को लेकर उत्पन्न विवाद की चरम परिणति कृष्णा कुमारी द्वारा विषपान तथा जयपुर और जोधपुर के मध्य संघर्ष में हुई। जयपुर के महाराजा जगतसिंह ने 1807 ई० में अपनी विशाल सेना के साथ जोधपुर पर चढ़ाई कर दी तथा किले को घेर लिया।

जोधपुर दुर्ग की यह घेराबन्दी कुछ महीनों तक चली व इस दौरान जयपुर की सेनाओं ने दुर्ग पर जोरदार आक्रमण किया। इस आक्रमण के साक्षी गोलों के वे निशान हैं जो दुर्ग की प्राचीर में अद्यावधि विद्यमान हैं। लेकिन जोरदार आक्रमण के बावजूद किले का पतन नहीं हो सका। जोधपुर के महाराजा मानसिंह ने किले में बुरी तरह घिर जाने पर भी प्रतिकूल परिस्थितियों में अपना धैर्य नहीं छोड़ा । इस प्रसंग का स्वयं महाराजा मानसिंह का कहा एक सुन्दर छप्पय है —

सझि कूरम सीसोद, सघन तटविकट समुद्रह ।
वारि बंधु विस्तारिय, सकलदेसोत सिरो रूह ।।
विक्रमपुर पति विषम भयो, जहां ग्राह भयंकर ।
पती जवन वेला प्रधान आवर्त अनन्तर ।।
पाखण्ड जहाँ बज्जत पवन, शत्रु नदी प्रवहण समर ।
ऊतरयो दास देखत अखिल, कृपानाथ कैवर्तकर ।।

बाद में टौंक के अमीरखाँ द्वारा जगतसिंह का साथ छोड़ देने तथा सुलह समझौता हो जाने से जगतसिंह ने जोधपुर दुर्ग का घेरा उठा लिया। महाराजा मानसिंह के ही समय वीर कीरतसिंह सोढ़ा जोधपुर के किले पर शत्रुओं से संघर्ष करते हुए काम आया जिसकी छतरी जयपोल के निकट बाईं ओर विद्यमान है। कीरतसिंह की अनुपम वीरता और कर्त्तव्यनिष्ठा पर रीझकर गुणग्राही महाराजा मानसिंह ने उसकी प्रशंसा में यह दोहा कहा जो उसके स्मारक पर अंकित है–

तन झड़ खाग तीख, पाड़ि घणा खल पोढियो ।
‘किरतो’ नग कोडीक, जड़ियो गढ़ जोधाण रै।।

स्थापत्य की दृष्टि से अनूठा

जोधपुर का किला (जोधपुर दुर्ग) अपने अनूठे स्थापत्य और विशिष्ट संरचना के कारण भी अपनी विशेष पहचान रखता है। लाल पत्थरों से निर्मित और अलंकृत जालियों व झरोखों से सुशोभित इस किले के महल राजपूत स्थापत्य कला के उत्कृष्ट उदाहरण हैं ।

इनमें महाराजा सूरसिंह द्वारा विक्रम संवत 1602 के लगभग निर्मित मोतीमहल सुनहरी अलंकरण व सजीव चित्रांकन के लिए प्रसिद्ध है। इसकी छत व दीवारों पर सोने की पॉलिश का बारीक काम महाराजा तखतसिंह द्वारा करवाया गया। इसी तरह महाराजा अभयसिंह द्वारा विक्रम संवत 1781 में निर्मित फूलमहल पत्थर पर बारीक खुदाई और कोराई के लिए प्रसिद्ध है।

मारवाड़ का सिरमौर - जोधपुर दुर्ग (मेहरानगढ़)
मारवाड़ का सिरमौर – जोधपुर दुर्ग (मेहरानगढ़)

जोधपुर से मुगल खालसा उठाने के उपलक्ष्य में महाराजा अजीतसिंह द्वारा निर्मित फतेह महल भी बहुत सुन्दर और आकर्षक है। किले के अन्य प्रमुख भवनों में ख्वाबगाह का महल, तखत विलास, दौलतखाना, चोखेलाव महल, बिचला महल, रनिवास, सिलहखाना, तोपखाना तथा महाराजा मानसिंह पुस्तक प्रकाश नामक पुस्तकालय उल्लेखनीय हैं। इसमें अनेक दुर्लभ हस्तलिखित ग्रन्थ संगृहीत हैं। दौलतखाने के आंगन में महाराजा तखतसिंह द्वारा विनिर्मित सिणगार चौकी (शृंगार चौकी) है जहाँ जोधपुर के राजाओं का राजतिलक होता था।

जोधपुर दुर्ग के भीतर स्थित देवमन्दिरों में चामुण्डा माता, मुरली मनोहरजी तथा आनन्दघनजी के मन्दिर प्रमुख और उल्लेखनीय हैं। उनमें चामुण्डा मन्दिर का निर्माण राव जोधा ने इस दुर्ग की स्थापना के साथ ही करवाया था। यह मन्दिर 1857 ई० में किले के बारूदखाने पर बिजली गिरने से हुए विस्फोट में खण्डित हो गया था जिसका महाराजा तखतसिंह ने जीर्णोद्धार करवाया।

अन्य दोनों मन्दिर महाराजा अभयसिंह के शासनकाल में बने । आनन्दघनजी के मन्दिर में बिल्लोर पत्थर की पाँच भव्य और सजीव प्रतिमायें प्रतिष्ठापित हैं। इसके अलावा दुर्ग के भीतर राठौड़ों की कुलदेवी नागणेची जी का मन्दिर भी विद्यमान है।

जोधपुर दुर्ग में लम्बी दूरी तक मार करने वाली अनेक तोपें थीं जिनमें किलकिला, शम्भुबाण और गजनीखाँ अपनी भीषण संहारक क्षमता के लिए प्रसिद्ध रही हैं। इनमें किलकिला तोप महाराजा अजीतसिंह ने अहमदाबाद में बनवायी थी, जब वे वहाँ के सूबेदार थे । दूसरी शम्भुबाण महाराजा अभयसिंह ने सरबलन्दखाँ से छीनी थी । तीसरी गजनीखाँ महाराजा गजसिंह ने 1607 ई० में जालौर विजय द्वारा हासिल की थी।

जोधपुर दुर्ग में जल आपूर्ति के प्रमुख स्रोत के रूप में राणीसर और पदमसागर तालाब विशेष उल्लेखनीय हैं, जो कि किले के पश्चिम में अवस्थित हैं। इनमें राणीसर जलाशय का निर्माण राव जोधा की रानी जसमा हाड़ी द्वारा किले की स्थापना के साथ ही करवाया गया था।

पहले यह तालाब परकोटे से बाहर था लेकिन राव मालदेव ने प्राचीर के विस्तार द्वारा इसे किले में समाहित कर लिया। दूसरा पदमसागर राव गांगा की रानी पद्मावती द्वारा बनवाया गया। इन जलाशयों से किले के ऊपर रहट द्वारा पानी पहुँचाया जाता था जिसकी साक्षी वह नाली या नहर है जो किले की पश्चिमी प्राचीर पर बनी है। एक-दो रहट भी जीर्ण अवस्था में वहाँ आज भी विद्यमान हैं।

किले की तलहटी में बसे जोधपुर नगर के चारों ओर एक सुदृढ प्राचीर (शहरपनाह) बनी है जिसमें 101 विशाल बुर्जे और 6 दरवाजे हैं। ये दरवाजे नागौरी दरवाजा, मेड़तिया दरवाजा, सोजती दरवाजा, सिवानची (सिवाणा) दरवाजा, जालौरी दरवाजा तथा चाँदपोल कहलाते हैं। इनमें पश्चिमी दरवाजे चाँदपोल को छोड़कर अन्य पाँच दरवाजों के नाम मारवाड़ के उन प्रमुख नगरों के नाम पर हैं जिनके मार्ग उधर होकर जाते हैं।

जोधपुर दुर्ग की एक उल्लेखनीय विशेषता यह है कि यह मेहरानगढ़ संग्रहालय के रूप में अतीत की बहूमूल्य ऐतिहासिक और सांस्कृतिक धरोहर को संजोये हुए है। इनमें मध्यकाल में लड़े गये भीषण और दुर्धर्ष युद्धों के स्मृतिचिह्न, विभिन्न प्रकार के आयुध, जिरह बख्तर, राजसी और सैनिक परिधान, विभिन्न धार्मिक और लौकिक विषयों पर आधारित सजीव चित्र, शाही वैभव की प्रतीक सुनहरी पालकियाँ, हाथियों के कलात्मक होदे, भव्य और आकर्षक गलीचे इत्यादि सैकड़ों दुर्लभ वस्तुएँ उसके विगत वैभव की सुन्दर झलक प्रस्तुत करती हैं।

सारत: जोधपुर का यह भव्य दुर्ग अपने लिए कही गयी निम्न उक्ति को चरितार्थ करता हुआ शान से खड़ा है।–

‘अनड़ पहाड़ा ऊपरै, जबरो गढ़ जोधाण’

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