चौमू का किला – जहां तोप से दुश्मनों पर दागे गए थे चांदी के गोले (चौमुहा गढ़)

Kheem Singh Bhati
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चौमू का किला - जहां तोप से दुश्मनों पर दागे गए थे चांदी के गोले (चौमुहा गढ़)
चौमू का किला (चौमुहा गढ़)। जयपुर से लगभग 33 कि०मी० उत्तर में स्थित चौमूँ का किला चौमुँहागढ़ कहलाता है जिसके चतुर्दिक बसा होने से यह कस्बा चौमूँ कहलाया। चौमूँ का किला सुदृढ़ और विशाल है तथा हमारे प्राचीन भारतीय शास्त्रों में वर्णित भूमि दुर्ग की श्रेणी में आता है। सुदृढ़ प्राचीर, विस्तृत और गहरी खाई, आलीशान महल एवं महत्त्वपूर्ण सामरिक स्थिति के कारण इसका जागीरी ठिकानों के किलों में विशेष स्थान और महत्त्व था। पंडित हनुमान शर्मा द्वारा लिखित नाथावतों के इतिहास के अनुसार ठाकुर कर्णसिंह ने वि० संवत 1652-54 (1595-97 ई०) के लगभग बेणीदास नामक एक सन्त के आशीर्वाद से इस चौमुँहादुर्ग की नींव रखी। अन्य प्रसिद्ध किलों की तरह चौमूँ के किले के सम्बन्ध में भी यह जनश्रुति है कि जिस स्थान को किले के निर्माण के लिए चुना गया वहाँ एक कैर के वृक्ष तले भेड़ ने अपने बच्चों को जन्म दिया था अतः इस संतति वृद्धि को एक अच्छा शकुन मानकर किले की नींव रखी गयी। तत्पश्चात ठाकुर रघुनाथसिंह द्वारा इसमें बुर्ज तथा भवन इत्यादि बनवाये गये।
चौमू का किला - जहां तोप से दुश्मनों पर दागे गए थे चांदी के गोले  (चौमुहा गढ़)
चौमू का किला – जहां तोप से दुश्मनों पर दागे गए थे चांदी के गोले (चौमुहा गढ़)
उनके शासनकाल में इसे रघुनाथगढ़ भी कहा गया। चौमूँ के परवर्ती शासकों द्वारा भी किले में निर्माण और विस्तार का कार्य जारी रहा तथा प्राय: प्रत्येक शासक ने इसमें अपना योगदान दिया। ठाकुर मोहनसिंह ने इसकी सुदृढ़ प्राचीर तथा किले के चारों तरफ गहरी नहर या परिखा का निर्माण करवाया। कृष्णसिंह (किशनसिंह) ने सुरक्षा सम्बन्धी आवश्यकता के कारण किले के प्राचीन प्रवेशद्वार ध्रुवपोल को बदल कर पश्चिमाभिमुखी बनाया । चौमूँ के किले को धाराधारगढ़ भी कहते हैं। बीते जमाने में सघन वन तथा कंटीली झाड़ियों से आवृत्त यह किला जमीन की ढलान पर बना है। अतः शत्रु द्वारा किले की सही स्थिति का अनुमान कर उस पर निशाना लगाना बहुत कठिन था। किले को लक्ष्य कर दागे गये तोप के गोले उसे हानि पहुँचाये बिना ऊपर से निकल जाते थे।
चौमूँ के इस किले पर गोले बरसाने पर भी किले का पतन नहीं हो सका। (चौमू का किला)
चौमू का किला - जहां तोप से दुश्मनों पर दागे गए थे चांदी के गोले  (चौमुहा गढ़)
चौमू का किला – जहां तोप से दुश्मनों पर दागे गए थे चांदी के गोले (चौमुहा गढ़)
उस जमाने के प्रसिद्ध आक्रान्ता रजाबहादुर तथा समरू बेगम ने चौमूँ के इस किले पर बांडी नदी के मुहाने से गोले बरसाये पर किले का पतन नहीं हो सका। यहाँ तक की जयपुर के दीवान संघी झुंथाराम की भी यहाँ के नाथावतों को सबक सिखाने की अभिलाषा इस किले के दुर्भेद्य स्वरूप के कारण अधूरी रह गई। पंडित हनुमान शर्मा ने अपने द्वारा लिखित नाथावतों के इतिहास’ में चौमूँ के किले का वृतान्त देते हुए लिखा है कि इसके स्थापत्य में हमारे शिल्प शास्त्रों में भूमि दुर्ग के लिए अपेक्षित सभी आदर्शों का निर्वाह या समावेश हुआ है। दुर्ग की तफसील इस तरह है –
  • किले की दीवारों का विस्तार → 3077 फीट
  • किले की दीवारों की ऊँचाई → 23 फीट
  • किले की दीवारों की चौड़ाई → 7 से 15 फीट
किले के चारों ओर बनी पक्की –
  • खाई की चौड़ाई → →80 फीट
  • गहराई → 35 फीट
  • सम्पूर्ण विस्तार → साढ़े पाँच हजार फीट
किले के शिरोभाग की बनावट में सर्वत्र कमल फूल की पत्ती है और प्रत्येक पत्ती में तीर, तमंचे, तोप या बन्दूक चलाने के 5-5 छिद्र हैं। बुजों की चौड़ाई और ऊँचाई अन्य किलों के समान है। वस्तुत: कौटिल्य ने एक अच्छे भूमि दुर्ग के जो लक्षण बताये हैं वे सब चौमूँ के इस किले में विद्यमान हैं। इस किले के भीतर भव्य और आलीशान महल बने हैं। इनमें कृष्ण निवास, रतन निवास, शीश महल, मोती महल तथा देवी निवास प्रमुख और उल्लेखनीय हैं। शिल्प और स्थापत्य की दृष्टि से उत्कृष्ट इन महलों में ढूंढाड़ शैली के प्रतिनिधि सजीव और कलात्मक भित्तिचित्र बने हैं। विशेषकर देवी निवास तो जयपुर के एलबर्ट हॉल की प्रतिकृति मालूम होता है। किले के अन्य भवनों में रनिवास, सेवकों के आवासगृह, रथसाल, घोड़ों की पायगें, हाथी का ठाण इत्यादि हैं। गढ़ के मंगलपोल पर बना गणेशजी का मन्दिर, हाथियों के ठाण के पास मोहनलाल जी का मन्दिर तथा किले के सामने सीतारामजी के मन्दिर चौयूँ के नाथावत शासकों की धार्मिक अभिरुचि के प्रतीक हैं। उक्त मंदिर में विद्यमान विक्रम संवत 1803 के शिलालेख से पता चलता है कि चौमूँ के ठाकुर जोधसिंह नाथावत के शासनकाल में सीतारामजी के इस मंदिर का निर्माण हुआ। किले के चतुर्दिक बसा चौमूँ एक सुदृढ़ परकोटे से सुरक्षित था जिसमें विशाल प्रवेश द्वार बने थे। इनमें बजरंग पोल (रावण दरवाजा) होली दरवाजा, बावड़ी दरवाजा तथा पीहाला दरवाजा प्रमुख और उल्लेखनीय हैं। जयपुर की बसावट से प्रेरणा लेते हुए चौमूँ के सामन्त शासकों ने अपने यहाँ भी चौपड़, त्रिपोलिया तथा कटला बाजार विकसित किये । दुर्भाग्यवश आज चौमूँ का विशाल किला और उसके भव्य महल घोर दुर्दशा के शिकार हैं । किले की प्राचीन का बहुत सा भाग खंडित किया जाकर वहाँ व्यावसायिक प्रयोजन से दुकानें बना दी गयी हैं जिससे इस किले का मौलिक स्वरूप ही नष्ट हो गया है।
चौमू का किला - जहां तोप से दुश्मनों पर दागे गए थे चांदी के गोले  (चौमुहा गढ़)
चौमू का किला – जहां तोप से दुश्मनों पर दागे गए थे चांदी के गोले (चौमुहा गढ़)
चौमूँ के आलीशान महलों की हालत तो इससे भी ज्यादा खराब है । सम्प्रति इन महलों के प्रांगण में बेसन तैयार करने की एक फैक्ट्री (मिल) चलती है। महलों के मुख्य प्रवेश द्वार ‘मनोहर पोल’ के भीतर चौक में जहाँ कभी दरबार लगा करता था, विभिन्न किस्म की दालों के बोरों से लदे ट्रक खड़े रहते हैं । भव्य जनानी ड्योढ़ी के पार्श्व में बोरियों की नाप तौल के लिए कांटा लगा हुआ है। रनिवास के महल जहाँ हमेशा उत्सव की सी चहल पहल रहती थी अनाज के गोदाम बनकर अपनी नियति पर आँसू बहाते हुए प्रतीत होते हैं। महलों के सुन्दर भित्तिचित्रों, अलंकृत जालियों और भव्य झरोखों पर अनाज के बोरों से उड़ी हुई रेत (गर्द) जमा हो रही है। काल का यह कैसा क्रूर प्रवाह है। काश! यह बहुमूल्य ऐतिहासिक और सांस्कृतिक धरोहर किसी तरह बचा ली जाती । देश विदेश की तमाम बड़ी खबरों के लिए निहारिका टाइम्स को फॉलो करें। हमें फेसबुक पर लाइक करें और ट्विटर पर फॉलो करें। ताजा खबरों के लिए हमेशा निहारिका टाइम्स पर जाएं।
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