जयगढ़ दुर्ग – आज भी रहस्य बना हुआ है राजस्थान का ये किला

Kheem Singh Bhati
17 Min Read

जयगढ़ दुर्ग – ढूंढाड़ के कछवाहा राजवंश की पूर्व राजधानी आम्बेर के भव्य राजप्रासाद के दक्षिणवर्ती पर्वतशिखर पर एक और सुदृढ़ और विशाल दुर्ग स्थित है जयगढ़ । यह दुर्ग कई दृष्टियों से अन्य दुर्गों से विशिष्ट है। इसकी सर्वोपरि विशिष्टता यह है कि यह दुर्ग सदियों तक एक विचित्र रहस्यात्मकता से मण्डित रहा है ।

जयगढ़ में स्वतन्त्रता प्राप्ति तक सिवाय स्वयँ महाराजा तथा उनके द्वारा नियुक्त दो किलेदारों के जो महाराजा के परम विश्वस्त सामन्तों में से हुआ करते थे, किसी को भी प्रवेश की अनुमति नहीं थी । यहाँ तक कि स्वयं महाराजा भी अपने उन विश्वस्त दो किलेदारों में से एक के बिना इस दुर्ग में प्रवेश नहीं करते थे। ये किलेदार आम्बेर-जयपुर के कछवाहा राजवंश की निकटतम शाखा के ही सामन्तं होते थे; यथा राजावत, खंगारोत, नाथावत इत्यादि ।

अन्य शाखा के सामन्त को चाहे वह पद में कितना ही बड़ा जागीरदार हो, किलेदार नियुक्त नहीं किया जाता था। दुर्ग के मुख्य प्रवेश द्वार के कपाट चौबीस घंटे बन्द रहते थे तथा उस पर नंगी तलवार या भाला लिए प्रहरी रात दिन पहरा देते थे। ऐसे में दुर्ग के भीतर क्या है तथा क्या कुछ हो रहा है किसी को पता नहीं चलता था ।

यह स्थिति पिछले सैकड़ों वर्षों से चली आ रही थी। दुर्ग में जनसाधारण का प्रवेश निषिद्ध होने के सम्बन्ध में जनश्रुति है कि यहाँ कछवाहा राजाओं का दफीना (राजकोष) रखा हुआ था जिसके सुरक्षा प्रहरी मीणे होते थे। ये मीणे कछवाहों के आगमन से पहले इस भू-भाग (ढूंढाड़ तथा निकटवर्ती प्रदेश) के अधिपति थे तथा वंश परम्परा से राजकोष के रक्षक थे । इनकी स्वामिभक्ति, कर्त्तव्यनिष्ठा और ईमानदारी अनुकरणीय थी जिसकी इतिहास में मिसाल मिलनी मुश्किल है।

जयगढ़ दुर्ग - आज भी रहस्य बना हुआ है राजस्थान का ये किला
जयगढ़ दुर्ग – आज भी रहस्य बना हुआ है राजस्थान का ये किला

दूसरे दुर्ग विशिष्ट राजनैतिक बंदियों के लिए कारागृह के काम में भी लिया जाता था जिसे लेकर प्रसिद्ध था कि जो व्यक्ति एक बार जयगढ़ दुर्ग में कैद कर डाल दिया जाता था, वह जीवित नहीं निकलता था । महाराजा सवाई जयसिंह के अनुज विजयसिंह (चीमाजी) का उदाहरण इतिहास विश्रुत है, जिसे धोखे से कैद कर इसी दुर्ग में रखा गया था।

अभी कुछ वर्षों पहले श्रीमती इन्दिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में गुप्त खजाने की खोज में इस किले के भीतर हुई व्यापक खुदाई की घटना ने जयगढ़ को देश विदेश में चर्चित कर दिया। इसके अतिरिक्त, राजस्थान में बल्कि संभवत: समूचे भारत में, यही एक दुर्ग है जहाँ तोप ढालने का संयंत्र लगा हुआ है जो आज भी देखा जा सकता है । ‘जयबाण’ नामक विशाल तोप इसी संयंत्र से ढली हुई है, जिसे देख कर देशी विदेशी पर्यटक आश्चर्यचकित रह जाते हैं।

इन्हीं सब कारणों से जयगढ़ दुर्ग की अपनी एक निराली शान और पहचान है। यह भव्य और सुदृढ़ दुर्ग कब बना इस बारे में प्रामाणिक जानकारी का अभाव है । कुछ इतिहासकारों की धारणा है कि इस रहस्यमय दुर्ग का निर्माण आम्बेर के यशस्वी शासक प्रख्यात सेनानायक महाराजा मानसिंह प्रथम ने करवाया था । तत्पश्चात उनके उत्तराधिकारियों- मिर्जा राजा जयसिंह एवं सवाई जयसिंह द्वारा इसमें उत्तरोत्तर परिवर्द्धन किया जाता रहा ।

रियासतकाल में जयपुर के अंग्रेज रेजीडेन्ट लैफ्टीनेन्ट कर्नल एच०एल० शावर्स ने अपनी पुस्तक Notes on Jaipur में जो कि सन् 1916 में प्रकाशित हुई थी, लिखा है –

Towering above the Palace 500ft. stand the Jaigarh Fort, out of which rises the quaint watch tower called the Diwa Burj, from which the plain on the other side of the range of the hills can be scanned. The Palace is massive rather than ornamental, but its solemn grandeur suits its surroundings well and expresses the character of the people who built it.

It was commenced by Man Singh about 1600A.D. Additions were made by Mirza Raja Jai Singh and it was completed in the 18th century by Sawai Jai Singh. To this later prince belongs the honour of having built that peerless gateway which give access to the Diwan-i-Khass.

जयगढ़ दुर्ग - आज भी रहस्य बना हुआ है राजस्थान का ये किला
जयगढ़ दुर्ग – आज भी रहस्य बना हुआ है राजस्थान का ये किला

पूर्व जयपुर रियासत में शेखावाटी के डूंदलोद ठिकाने के जागीरदार ठाकुर हरनाथसिंह ने इस दुर्ग के बारे में लिखा है-

It is predominant by strong structure with high towers and embattled walls, pierced with arrow-holes and cannon loops…. Man Singh I started the construction of this fort which was completed by Mirza Raja Jai Singh I after whom it has been named Jaigarh.

जनश्रुति के अनुसार इस दुर्ग का निर्माण महाराजा मानसिंह प्रथम ने अपनी राजधानी आम्बेर तथा अपने उस अपरिमित कोष की सुरक्षार्थ करवाया था, जिसे वह काबुल, कंधार और अफगानिस्तान सहित दूरस्थ प्रदेशों में किये गये अपने युद्ध अभियानों में लूट कर लाया था और जिसे उसने इस किले में बने विशाल तलघरों में सुरक्षित रख दिया था ।

जयगढ़ दुर्ग के निर्माण के सम्बन्ध में एक दूसरी मान्यता यह है कि इस भव्य और सुदृढ़ दुर्ग का निर्माण आम्बेर के मिर्जा राजा जयसिंह ने करवाया तथा उन्हीं के नाम पर यह दुर्ग जयगढ़ कहलाया। जगदीशसिंह गहलोत, डॉ० गोपीनाथ शर्मा तथा कुंवर देवीसिंह मंडावा आदि इतिहासकारों की यही धारणा है ।

तत्पश्चात महाराजा सवाई जयसिंह द्वितीय द्वारा जयपुर नगर की स्थापना से पूर्व जयगढ़ दुर्ग का जीर्णोद्धार करवाये जाने का उल्लेख मिलता है। डॉ० ए०के० राय ने अपनी पुस्तक ‘हिस्ट्री ऑफ जयपुर सिटी’ में राजस्थान राज्य अभिलेखागार बीकानेर में संगृहीत जयपुर रियासत के प्राचीन दस्तावेजों के सन्दर्भ से लिखा है कि विक्रम संवत 1783 (1726-27ई०) में महाराजा सवाई जयसिंह ने अपने दीवान विद्याधर को आम्बेर में जयगढ़ दुर्ग में उत्कृष्ट निर्माण कार्य करवाने के उपलक्ष्य में सिरोपाव देकर पुरुस्कृत किया था।

यह निर्माण कार्य चील्ह का टोला (टीला) नामक स्थान पर करवाया गया सिटी पैलेस जयपुर के पोधीखाने और कपड़द्वारे में जयगढ़ का एक नक्शा था। उपलब्ध है जो 18वीं शताब्दी ई० के पूर्वार्द्ध का है। संभवतः इसे महाराजा सवाई जयसिंह ने उक्त दुर्ग की प्राचीर और टांकों के निर्माण के उद्देश्य से बनवाया था । इस नक्शे में दुर्ग के प्राचीन प्रवेशद्वार, खुले टांके तथा कुछ आवासीय भवनों को भी अंकित किया गया है, जो वहाँ पहले से विद्यमान थे।

जयगढ़ दुर्ग - आज भी रहस्य बना हुआ है राजस्थान का ये किला
जयगढ़ दुर्ग – आज भी रहस्य बना हुआ है राजस्थान का ये किला

जयपुर के वयोवृद्ध इतिहासकार पण्डित गोपाल नारायण बहुरा तथा डॉ० चन्द्रमणिसिंह ने कपड़द्वारे के ऐतिहासिक दस्तावेजों तथा नक्शों के प्रारूपों का कैटेलॉग प्रकाशित किया है उसमें 163 वें नम्बर पर जयगढ़ का नक्शा बना है। इस नक्शे से यह प्रकट होता है कि महाराजा सवाई जयसिंह ने पहले से विद्यमान दुर्ग का विस्तार एवं परिवर्तन, परिवर्द्धन करवाकर उसे भव्य एवं सुदृढ़ दुर्ग का रूप दिया ।
जयगढ़ एक उत्कृष्ट गिरि दुर्ग है जो अपने अद्भुत शिल्प और अनूठे स्थापत्य के कारण प्रसिद्ध है।

इसका निर्माण प्राचीन भारतीय वास्तुशास्त्र में दुर्ग निर्माण के लिए। निर्धारित मानकों के अनुसार किया गया है । सुदृढ और उन्नत प्राचीर, घुमा विशाल बुर्जे तथा जलापूर्ति के लिए बने विशाल टांके इसके स्थापत्य की प्रमुख विशेषता है। साथ ही यह दुर्ग पर्वतमालाओं से इस तरह परिवेष्टित है कि शत्रु सेना के लिए इस पर आक्रमण करना बड़ा कठिन था।

आम्बेर के उत्तरोत्तर वीर और पराक्रमी नरेशों द्वारा इस दुर्ग में समय समय पर आवश्यकतानुसार परिवर्तन, परिवर्द्धन होते रहे, जिसके फलस्वरूप यह दुर्ग नैसर्गिक दृष्टि से भी दुर्जेय हो गया । यह राजस्थान उन गिने चुने दुर्गों में से हैं जिस पर आक्रमण करने का शत्रु ने कभी दुस्साहस नहीं किया ।

जयगढ़ दुर्ग का विस्तार लगभग 4 कि०मी० की परिधि में है। इसके तीन प्रमुख प्रवेश द्वार हैं- डूंगर दरवाजा, अवनि दरवाजा और भैरू दरवाजा (दुर्ग दरवाजा)। इनमें डूंगर दरवाजा नाहरगढ़ की ओर से, अवनि दरवाजा आम्बेर राजप्रासाद के पास फूलों की घाटी से तथा दुर्ग दरवाजा सागर नामक जलाशय की तरफ से किले के भीतर जाने के मार्ग हैं। इसके अलावा आपद काल में दुर्ग से बाहर. जाने हेतु गुप्त सुरंगें भी बनी हैं।

जयगढ़ के प्रमुख भवनों में जलेब चौक, सुभट निवास (दीवान ए आम) खिलबत निवास (दीवान ए खास), लक्ष्मी निवास, ललित मन्दिर, विलास मन्दिर, सूर्य मन्दिर, आराम मन्दिर, राणावतजी का चौक आदि हैं जो हिन्दू स्थापत्य कला के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। इनमें विलास मन्दिर और लक्ष्मी निवास निहायत उम्दा आराइश और जालियों की बारीक कटाई के काम के कारण देखने योग्य हैं। जयगढ़ दुर्ग में राम हरिहर और काल भैरव के प्राचीन मन्दिर बने हैं जिनमें सजीव और कलात्मक देवप्रतिमायें प्रतिष्ठापित हैं।

राजाओं के मनोरंजन हेतु बना एक कठपुतली घर भी किले में बना हुआ है। आराम मन्दिर के सामने वाला उद्यान मुगल उद्यानों की चार बाग शैली पर बना है। जयगढ़ के भीतर एक लघु अन्तः दुर्ग भी बना है। सशस्त्र किलेबन्दी से युक्त इस गढ़ी में महाराजा सवाई जयसिंह ने अपने प्रतिद्वन्द्वी छोटे भाई विजयसिंह को कैद रखा था। वर्षों तक यहाँ कैद रहे विजयसिंह के नाम पर यह लघु गढ़ी विजयगढ़ी कहलाती है ।

जयगढ़ दुर्ग - आज भी रहस्य बना हुआ है राजस्थान का ये किला
जयगढ़ दुर्ग – आज भी रहस्य बना हुआ है राजस्थान का ये किला

तत्पश्चात् इसका उपयोग सिलहखाने (शस्त्रागार) के रूप में किया जाता रहा । विजयगढ़ी के प्रवेश द्वार पर लोहे का तराजू और बाट पड़े रहते थे । संभवतः इनका उपयोग बारूद तोलने के लिए किया जाता था । विजयगढ़ी के पार्श्व में एक सात मंजिला प्रकाश स्तम्भ बना है जो दीया बुर्ज कहलाता है । आक्रान्ता शत्रु की गतिविधियों पर निगाह रखने की दृष्टि से इसका विशेष महत्त्व था ।

दीया बुर्ज के आगे तोपें रखने का दमदमा है । आम्बेर जयपुर के पराक्रमी कछवाहा शासक मुगलों के प्रमुख मनसबदार थे । उन्होंने मुगल शासकों की तोपें ढालने की तकनीक को बहुत निकटता से देखा और परखा था। तोपें मध्यकाल के अंतिम चरण तक युद्ध में निर्णायक भूमिका निभाती थीं।

अत: बहुत सम्भव है कि दूरदर्शी व कूटनीतिज्ञ कछवाहा नरेशों ने तोपें ढालने की मुगल तकनीक को अपनाते हुए गुप्त रूप से अपनी राजधानी (आम्बेर व फिर जयपुर) के निकट अवस्थित जयगढ़ दुर्ग को इस कार्य के लिए सर्वाधिक उपयुक्त समझा । जयगढ़ दुर्ग के सदियों तक एक विचित्र प्रकार की रहस्यात्मकता से मण्डित होने के पीछे यह एक सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कारण था ।

क्योंकि, मुगल आधिपत्य के समय उनकी तकनीक को यों चुराकर तोपें ढलवाना उस समय गम्भीर अपराध की कोटि में आता था, जो राज्य के लिए शाही कोप का कारण बन सकता था।

जयगढ़ दुर्ग के इस कारखाने में ढली तोपों में महाराजा सवाई जयसिंह द्वारा निर्मित ‘जयबाण’ एक अतिविशाल तोप है जो पहियों पर खड़ी एशिया की सबसे बड़ी तोप मानी जाती है तथा देशी-विदेशी पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र है। इस तोप की नाल 20 फीट लम्बी है तथा इस तोप का वजन लगभग 50 टन है। ‘जयबाण’ से 50 किलोग्राम के 11 इंच व्यास के गोले दागे जा सकते हैं।

इसको चलाने के लिए एक बार में 100 कि०ग्रा० बारूद भरा जाता था। ऐसा अनुमान है कि इसकी मारक क्षमता लगभग 22 मील है। जनश्रुति है कि यह तोप केवल एक बार परीक्षण के तौर पर चलायी गयी थी तब इसका गोला चाकसू में जाकर गिरा था। विशेष धातुओं से बनी इस तोप के मुँह पर हाथी, पृष्ठ भाग पर पक्षी युगल तथा मध्य में वल्लरियों के चित्र उत्कीर्ण हैं ।

जयगढ़ में ढाली गयीं लगभग 9 अन्य तोपें भी वहाँ दमदमें में रखी हैं। तोप संयंत्र के पास एक छोटा सा गणेश जी का मन्दिर भी है। संभवतः नयी तोप ढालने से पहले गणेश जी की उपासना की जाती थी । जैसाकि प्रारंभ में कह आये हैं, जयगढ़ का उपयोग राजनैतिक कैदियों को नजरबन्द रखने के लिए भी किया जाता था।

महाराजा सवाई जयसिंह के प्रतिद्वन्द्वी भाई विजयसिंह (चीमाजी) के अलावा विभिन्न राजाओं के शासनकाल में विद्रोही सामन्तों तथा उनके आश्रितों और अन्य विरोधियों को जयगढ़ में कैद रखने के प्रमाण उपलब्ध होते हैं। इस सम्बन्ध में जयगढ़ के खंगारोत किलेदारों के वंशजों से हमें कुछ दुर्लभ पत्र, खास रुक्के तथा अन्य दस्तावेज मिले हैं जिनसे इस रहस्यमय दुर्ग से सम्बन्धित अनेक घटनाओं पर प्रकाश पड़ता है।

इन दस्तावेजों में पकड़े गये कैदी को जयगढ़ दुर्ग के भीतर मृत्युदण्ड देने, कैदी और उसके परिवार को अलग-अलग भवनों में कैद रखने, टांकों की मरम्मत, दुर्ग के भीतर की व्यवस्था इत्यादि पर समुचित प्रकाश पड़ता है। यथा –

“जो थांके कनै छै वो यां के हवाले कर दीज्यो
औ किला मै जो काम करै सो करबा दीज्यो । “

सम्प्रति जयगढ़ दुर्ग के भीतर मध्यकालीन शस्त्रास्त्रों का विशाल संग्रहालय बना है जिसमें इस किले के तोप संयंत्र में ढाली गयी विभिन्न आकृति की सुदृढ़ तोपें, भाले, धनुष-बाण, विविध किस्म की तलवारें, दाल, लम्बी रायफलें, तमन्चे, बन्दूकें इत्यादि हथियार प्रमुख हैं।

इस संग्रहालय में मोटे चमड़े से बने विशालकाय पात्र, घड़े, कलश, जिरह बख्तर, विशाल और मजबूत ताले, शाही नगाड़े, महाराजा मानसिंह प्रथम द्वारा युद्धों में प्रयोग लिया हाथी का होदा, शीशा बारूद तथा अन्यान्य वस्तुयें देशी-विदेशी पर्यटकों को जयगढ़ के विगत वैभव की झलक प्रस्तुत करती हैं ।

सारत: राजस्थान का यह बहुचर्चित और रहस्यमय दुर्ग, भारतीय दुर्ग स्थापत्य कला का बेजोड़ नमूना है जो आम्बेर के कछवाहा शासकों के प्रभुत्व और प्रताप का प्रतीक बन इतिहास के अनेक घटना प्रसंगों को संजोये शान से खड़ा है।

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