जैसलमेर का किला: विशाल थार मरुस्थल के मध्य स्थित जैसलमेर दुर्ग

Kheem Singh Bhati
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विशाल थार मरुस्थल के मध्य स्थित जैसलमेर दुर्ग (जैसलमेर का किला)

जैसलमेर का किला (जैसलमेर दुर्ग) – वर्तमान में देशी और विदेशी सैलानियों के आकर्षण का प्रमुख केन्द्र बना जैसलमेर दुर्ग जोधपुर से लगभग 285 कि०मी० पश्चिम में विशाल थार मरुस्थल के मध्य अवस्थित है। यह सदा से उत्तरी सीमा का प्रहरी रहा है तथा ‘उत्तर भड़ किंवाड़’ का यशस्वी विरुद धारण करने वाले भाटी राजपूतों के शौर्य और बलिदान का प्रतीक भी, जिनकी प्रशंसा में लोक में ये दोहे प्रसिद्ध हैं –

गढ़ दिल्ली गढ़ आगरो, अधगढ़ बीकानेर ।
भलो चिणायो भाटियां, सिरै तो जैसलमेर ।।

भड़ किंवाड़ उतराध रा, भाटी झालण भार ।
वचन राखो ब्रिजराज रा, समहर बांधो सार ।।

रावल जैसल द्वारा 1155 ई० में निर्मित जैसलमेर का यह किला सोनारगढ़ या सोनगढ़ कहलाता है। पूर्णत: पीले पत्थरों से निर्मित होने के कारण, जो सूर्य किरणों में स्वर्णाभ प्रतीत होते हैं, कदाचित इसे यह संज्ञा दी गयी हो, जो सर्वथा सार्थक है। इससे पहले भाटी राजवंश की राजधानी लोद्रवा थी । उपलब्ध साक्ष्यों से पता चलता है कि वहाँ के शासक भोजदेव के शासनकाल में किसी अज्ञात आक्रान्ता ने लोद्रवा पर आक्रमण किया, जिसमें भोजदेव मारा गया तथा आक्रमणकारी ने लूटपाट कर लोद्रवा को ऊजाड़ दिया।

विशाल थार मरुस्थल के मध्य स्थित जैसलमेर दुर्ग (जैसलमेर का किला)
विशाल थार मरुस्थल के मध्य स्थित जैसलमेर दुर्ग (जैसलमेर का किला)

जब राव जैसल गद्दी पर बैठा तो उसने लोद्रवा को बाह्य आक्रमणों से असुरक्षित जानकर विक्रम संवत 1212 में श्रावण शुक्ला सप्तमी तदनुसार 12 जुलाई 1155 ई० को जैसलमेर के वर्तमान दुर्ग की नींव रखी ।’ डॉ० दशरथ शर्मा के अनुसार रावल जैसल अपने द्वारा संस्थापित दुर्ग का केवल थोड़ा ही भाग – एक विशाल प्रवेश द्वार तथा कुछ अन्य भवन बनवा पाया था कि उसकी मृत्यु हो गयी । उसके पुत्र व उत्तराधिकारी शालिवाहन द्वितीय ने जैसलमेर दुर्ग का अधिकांश निर्माण कार्य करवाया । इस तरह किले को बनने में लगभग सात वर्ष लगे । वैसे परवर्ती शासकों द्वारा भी समय समय पर सामरिक सुरक्षा तथा अन्य आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए इसका परिवर्द्धन और विस्तार होता रहा। कर्नल टॉड ने जैसलमेर दुर्ग का वर्णन करते हुए लिखा है’ –

“The castle of Jesulmer is erected on an almost insulated peak, from two hundred to two hundred and fifty feet in height, a strong wall running round the crest of the hill. It has four gates but very few canon mounted.”

जैसलमेर दुर्ग के साथ भाटी वीरों के उद्भट पराक्रम और वीराङ्गनाओं के जौहर की अनेक रोमान्चक गाथायें जुड़ी हुई हैं। शौर्य और बलिदान की गौरवशाली परम्परा में यह दुर्ग भी चित्तौड़ के समान ही महिमान्वित है। चित्तौड़ में जहाँ इतिहास प्रसिद्ध तीन साके हुए, वहाँ जैसलमेर में ढाई साके होना लोकविश्रुत है ।

जैसलमेर का पहला साका उस समय हुआ जब दिल्ली के सुलतान अलाउद्दीन खिलजी ने एक विशाल सेना के साथ आक्रमण कर दुर्ग को घेर लिया। लगभग आठ वर्ष तक चलने वाले लम्बे घेरे के बाद किले का पतन हुआ तथा भाटी शासक रावल मूलराज, कुंवर रतनसी सहित अगणित वीर योद्धाओं ने क्षात्र धर्म का पालन करते हुए असिधारा तीर्थ में स्नान किया तथा ललनाओं ने जौहर का अनुष्ठान किया।

जैसलमेर का दूसरा साका फीरोजशाह तुगलक के शासन के प्रारम्भिक वर्षों में हुआ । रावल दूदा, त्रिलोकसी व अन्य भाटी सरदारों व योद्धाओं ने शत्रु सेना से लड़ते हुए वीरगति पाई तथा दुर्गस्थ वीराङ्गनाओं ने जौहर किया ।

जैसलमेर का तीसरा साका ‘अर्द्ध साका’ कहलाता है। कारण, इसमें वीरों ने केसरिया तो किया (लड़ते हुए वीरगति पाई) लेकिन जौहर नहीं हुआ । अतः इसे आधा साका ही माना जाता है । यह घटना विक्रम संवत 1697 (1550ई०) की है । कंधार का अमीर अली राज्यच्युत होकर वहाँ आया और उसने जैसलमेर में शरण मांगी। रावल लूणकरण ने शरणागत रक्षा के आदर्श का निर्वाह करते हुए उसे अपने यहाँ शरण दे दी । लेकिन अमीर अली ने अपने आश्रयदाता के साथ विश्वासघात किया । उसने एक षड्यन्त्र रचा और राव लूणकरण से अनुरोध किया कि उसकी बेगमें व परिवार की महिलाएँ रानियों और राजपरिवार की अन्य महिलाओं से मिलना चाहती हैं। अमीर अली ने स्त्रियों के वेश में अपने सैनिक किले के भीतर भेजने का प्रयास किया पर दुर्ग के पहले ही द्वार पर भेद खुल गया। फलतः भाटी योद्धाओं और अमीर अली के सैनिकों के मध्य घमासान युद्ध हुआ। इस संघर्ष में भाटियों की विजय हुई और लगभग 400 विद्रोही सैनिक मारे गये। लेकिन आक्रान्ताओं का सामना करते हुए राव लूणकरण वीरगति को प्राप्त हुए ।

विशाल थार मरुस्थल के मध्य स्थित जैसलमेर दुर्ग (जैसलमेर का किला)
विशाल थार मरुस्थल के मध्य स्थित जैसलमेर दुर्ग (जैसलमेर का किला)

जैसलमेर किले का स्थापत्य – जैसलमेर का किला (जैसलमेर दुर्ग)

वीरता की गौरवशाली परम्परा के अलावा जैसलमेर का किला स्थापत्य कला की दृष्टि से भी उत्कृष्ट है । यह दुर्ग त्रिकूटाकृति का है जिसमें 99 बुजें हैं । इसे रेगिस्तान की बालू रेत से मिलते जुलते स्थानीय गहरे पीले रंग के पत्थरों को बिना चूने की सहायता के आश्चर्यजनक ढंग जोड़कर बनाया गया है जो इसके स्थापत्य की मौलिक और अनूठी विशेषता है। चारों ओर से थार मरुस्थल से घिरा जैसलमेर दुर्ग हमारे शास्त्रों में वर्णित धान्वन दुर्ग की सभी विशेषताओं से युक्त है ।

प्रात: काल और सूर्यास्त के समय सूर्य की लालिमा से यह सोने के समान चमकता हुआ अपना सोनगढ़ नाम सार्थक करता है । क्षेत्रफल की दृष्टि से यह किला 1500×750 वर्ग फीट के घेरे में है तथा इसकी ऊँचाई 250 फीट है। किले की विशाल बुर्जे घाघरानुमा परकोटे से इस तरह जुड़ी हैं कि उसने एक अभेद्य सुरक्षा कवच प्रदान कर दिया है। दुर्ग का दोहरा परकोटा कमरकोट कहलाता है। अक्षयपोल किले का मुख्य प्रवेश द्वार है । किले के भीतर जाने का मार्ग धनुषाकृति लिए घुमावदार और संकरा है। सूरजपोल, गणेशपोल और हवापोल भी सुदृढ़ और विशाल प्रवेश द्वार हैं जिनकी वजह से शत्रु किले के भीतर आसानी से प्रवेश नहीं कर सकता था ।

दुर्ग के भीतर बने भव्य महलों में महारावल अखैसिंह द्वारा निर्मित सर्वोत्तम विलास (शीश महल), मूलराज द्वितीय के बनवाये हुए रंगमहल और मोतीमहल भव्य जालियों और झरोखों तथा पुष्पलताओं के सजीव और सुन्दर अलंकरण के कारण दर्शनीय हैं। गज विलास और जवाहर विलास महल पत्थर के बारीक काम और जालियों की कटाई के लिए प्रसिद्ध हैं। अन्य महलों में बादल महल अपने प्राकृतिक परिवेश के लिए उल्लेखनीय है । जैसल कुआ किले के भीतर पेयजल का प्राचीन स्रोत है।

इसके अलावा जैसलमेर दुर्ग के भीतर बने प्राचीन एवं भव्य जैन मंदिर तो कला के उत्कृष्ट नमूने हैं। इनमें पार्श्वनाथ, संभवनाथ और ऋषभदेव मंदिर अपने शिल्प और सौन्दर्य तथा सजीव प्रतिमाओं के कारण आबू के दिलवाड़ा जैन मन्दिरों से प्रतिस्पर्द्धा करते मालूम होते हैं। इनमें आदिनाथ का मंदिर जो 12वीं शताब्दी में निर्मित है, सबसे प्राचीन है। अन्य जैन मन्दिर 15 वीं शताब्दी के आसपास बने हैं। जैन मंदिरों के अलावा वहाँ का लक्ष्मीनारायण मंदिर भी शिल्प और स्थापत्य की दृष्टि से अनूठा है जैसलमेर दुर्ग की कदाचित सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि इसमें हस्तलिखित ग्रन्थों का एक दुर्लभ भण्डार है जिसके रूप में ज्ञान की एक अनमोल सम्पदा सुरक्षित है । इनमें अनेक ग्रन्थ ताड़पत्रों पर लिखे हैं तथा वृहद आकार के हैं । हस्तलिखित ग्रन्थों का सबसे बड़ा संग्रह जैन आचार्य जिनभद्रसूरी के नाम पर ‘जिनभद्र सूरी ग्रन्थ भण्डार’ कहलाता है ।
सारत: वीरता और शौर्य का प्रतीक जैसलमेर दुर्ग इतिहास, साहित्य और कला की त्रिवेणी का अनूठा संगम स्थल है ।

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