भरतपुर दुर्ग – अंग्रेजों से लोहा लेने वाला यह ‘लोहागढ़’

Kheem Singh Bhati
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भरतपुर दुर्ग (लोहागढ़), जिस पर तोप के गोले भी हो जाते थे बेअसर – भरतपुर राजस्थान का सिंहद्वार है। पूर्वी सीमान्त का प्रहरी यह भरतपुर दुर्ग लोहागढ़ के नाम से प्रसिद्ध है। यथा नाम तथा गुणा: की उक्ति को चरितार्थ करने वाले इस अजेय दुर्ग के साथ जाट राजाओं की वीरता और पराक्रम के रोमान्चक आख्यान जुड़े हुए हैं।

भरतपुर के यशस्वी शासक महाराजा सूरजमल द्वारा विनिर्मित इस किले ने जहाँ एक ओर शक्तिशाली मुस्लिम आक्रान्ताओं के दाँत खट्टे किये तो दूसरी ओर आधुनिक शस्त्रों से सुसज्जित अंग्रेजी सेना के भी छक्के छुड़ा दिये। लार्ड लेक को सन् 1805 में भरतपुर में आकर मान मर्दित होना पड़ा जैसाकि इस कथन से ज्ञापित है- “भरतपुर में लार्ड लेक का सारा मान मिट्टी में मिल गया था।” इसीलिए भरतपुर के किले के बारे में यह उक्ति लोक में प्रसिद्ध है-

दुर्ग भरतपुर अडग जिमि, हिमगिरि की चट्टान ।
सूरजमल के तेज को, अब लौं करत बखान ।।

भरतपुर दुर्ग हमारे शिल्प शास्त्रों में वर्णित भूमि दुर्ग का सुन्दर उदाहरण है। एक ऐसा दुर्ग है जिसकी बाहरी प्राचीर चौड़ी और मिट्टी की बनी होने से तोप के गोलों की मार का इस पर कोई असर नहीं हुआ, जिसके फलस्वरूप यह दुर्ग शत्रु के लिए अभेद्य बना रहा। यही कारण है कि अन्य बड़े दुर्ग विशाल पर्वतों पर अवस्थित होकर भी अजेय न रह सके जबकि भरतपुर का दुर्ग मैदान में स्थित होकर भी शत्रु के आक्रमणों को विफल करता रहा।

भरतपुर दुर्ग - अंग्रेजों से लोहा लेने वाला यह 'लोहागढ़'
भरतपुर दुर्ग – अंग्रेजों से लोहा लेने वाला यह ‘लोहागढ़’

महाराजा (तब कुंवर) सूरजमल द्वारा संस्थापित भरतपुर दुर्ग का निर्माण 1733 ई० में प्रारम्भ हुआ। जिस स्थान पर किले की नींव रखी गयी, वहाँ खेमकरण जाट की एक कच्ची गढ़ी थी, जो चौबुर्जा कहलाती थी। महाराजा सूरजमल ने अन्य दुर्गों की क को दृष्टिगत रखते हुए समय की आवश्यकता के अनुरूप नया किला बनवाया । इस दुर्ग को तैयार होने में लगभग 8 वर्ष का समय लगा। भरतपुर दुर्ग के निर्माण के सम्बन्ध में कुंवर नटवरसिंह ने लिखा है –

“एक बार शुरू हो जाने के बाद निर्माण कार्य साठ वर्ष तक रुका नहीं। मुख्य किलेबन्दियाँ आठ वर्षों में पूरी हो गयीं। इनमें दो खाइयाँ भी थीं। एक तो शहर की बाहर वाली चार दीवारी के पास थी और दूसरी कम चौड़ी पर ज्यादा गहरी, किले को घेरे हुए थी। बाढ़ के पानी को रोकने और अकाल के समय सहायता पहुँचाने के लिए दो बाँध और दो जलाशय बनाये गये थे। परिवर्तन, रूपांतर और विस्तार का कार्य सूरजमल के पौत्र के प्रपौत्र महाराजा जसवन्तसिंह (1853-93 ई०) के राज्यकाल तक चलता रहा। इस किले को पूरा बनकर तैयार हो जाने पर यह हिन्दुस्तान का सबसे अजेय किला माना जाता था। विमान के अविष्कार से पूर्व इसे जीतना प्राय: असम्भव था। ”

भरतपुर दुर्ग – अंग्रेजों से लोहा लेने वाला यह ‘लोहागढ़’
भरतपुर दुर्ग - अंग्रेजों से लोहा लेने वाला यह 'लोहागढ़'
भरतपुर दुर्ग – अंग्रेजों से लोहा लेने वाला यह ‘लोहागढ़’

भारतीय दुर्ग स्थापत्य की मान्यताओं के अनुरूप तराशे हुए पत्थरों से निर्मित भरतपुर दुर्ग की अपनी निराली शान और पहचान है। आयताकार निर्मित इस दुर्ग का प्रतिक फैलाव 6.4 वर्ग कि०मी० क्षेत्र में है। दुर्ग की दो विशाल प्राचीरें हैं, जिनमें भीतरी प्राचीर ईंट पत्थरों से पक्की बनी है तथा बाहरी प्राचीर मिट्टी की है। दुर्ग की इस प्रकार की बनावट से लड़ाई के समय तोपों के गोले मिट्टी की बाहरी प्राचीर में ही धँस जाते थे जिससे किले का भीतरी भाग जिसमें महल आदि थे, सुरक्षित रहता था। ऐसा लगता है कि महाराजा सूरजमल ने ‘मानसार’ में वर्णित मानकों के अनुसार भरतपुर दुर्ग का निर्माण करवाया ।

दुर्ग स्थापत्य के अनुसार इस किले के चारों ओर भी एक प्रशस्त परिखा (खाई) है जिसमें मोतीझील से सुजानगंगा नहर द्वारा पानी लाया गया है। यह झील रूपारेल और बाणगंगा नदियों के संगम पर उनके जल को बांध के रूप में रोककर बनाई गई है। इस प्रकार प्रभूत जलराशि से परिपूर्ण चौड़ी और गहन परिखा तथा मिट्टी का विशाल परकोटा भरतपुर दुर्ग को एक विलक्षण सुरक्षा कवच प्रदान किये है।

भरतपुर दुर्ग - अंग्रेजों से लोहा लेने वाला यह 'लोहागढ़'
भरतपुर दुर्ग – अंग्रेजों से लोहा लेने वाला यह ‘लोहागढ़’

भरतपुर दुर्ग की सुदृढ प्राचीर में 8 विशाल बृजें, 40 अर्द्धचन्द्राकार बुजें तथा दो विशाल दरवाजे हैं। इनमें से उत्तरी द्वार अष्टधातु दरवाजा तथा दक्षिणी द्वार लोहिया दरवाजा कहलाता है। भव्य, सुदृढ़ और कलात्मक अष्टधातु दरवाजे को महाराजा जवाहरसिंह 1765 ई० में मुगलों के शाही खजाने को लूटने के साथ ऐतिहासिक लाल किले से उतार लाये थे । जनश्रुति है कि यह अष्टधातु द्वार पहले चित्तौड़ दुर्ग में लगा था जिसे अलाउद्दीन खिलजी अपने चित्तौड़ अभियान के समय दिल्ली ले गया था।

किले की आठ विशाल बुजों में सबसे प्रमुख जवाहर बुर्ज महाराजा जवाहरसिंह की दिल्ली विजय के स्मारक के रूप में है। अंग्रेजों पर विजय की प्रतीक फतेहबुर्ज 1806 ई० में बनी । किले की अन्य बुर्जों में सिनसिनी बुर्ज, भैंसावाली बुर्ज, गोकुला बुर्ज, कालिका बुर्ज, बागरवाली बुर्ज और नवलसिंह बुर्ज उल्लेखनीय हैं।

भरतपुर दुर्ग - अंग्रेजों से लोहा लेने वाला यह 'लोहागढ़'
भरतपुर दुर्ग – अंग्रेजों से लोहा लेने वाला यह ‘लोहागढ़’

भरतपुर दुर्ग के इस दुर्भेद्य स्वरूप की चर्चा करते हुए कुंवर नटवरसिंह लिखते हैं – यह किला कई दृष्टिकोणों से एक असाधारण रचना थी। इसकी बाहर वाली खाई लगभग 250 फीट चौड़ी और 20 फीट गहरी थी। इस खाई की खुदाई से जो मलबा निकला वह उस 25 फीट ऊँची और 30 फीट मोटी दीवार को बनाने में लगा जिसने शहर को पूरी तरह घेरा हुआ था।

इसमें दस बड़े-बड़े दरवाजे थे। उनके नाम हैं- मथुरापोल, वीरनारायणपोल, अटलबंदपोल, नीमपोल, अनाहपोल, कुम्हेरपोल, चाँदपोल, गोवर्द्धनपोल, जघीनापोल और सूरजपोल इनमें से किसी भी दरवाजे से घुसने पर रास्ता एक पक्की सड़क पर जा पहुँचता था जिसके परे भीतरी खाई थी, जो 175 फीट चौड़ी और 40 फीट गहरी थी।

भरतपुर दुर्ग - अंग्रेजों से लोहा लेने वाला यह 'लोहागढ़'
भरतपुर दुर्ग – अंग्रेजों से लोहा लेने वाला यह ‘लोहागढ़’

इस खाई में पत्थर और चूने का फर्श किया गया था। दोनों ओर दो पुल थे जिन पर होकर किले के मुख्य द्वारों तक पहुँचना होता था।… मुख्य किले की दीवारें 100 फीट ऊँची थी और उनकी चौड़ाई 30 फीट थी। इनका मोहरा ( सामने वाला भाग) तो पत्थर, ईंट और चूने का बना था, बाकी हिस्सा केवल मिट्टी का था जिस पर तोपखाने की गोलाबारी का कोई असर नहीं होता था।

यों तो भरतपुर दुर्ग पर मरहठों तथा विभिन्न आक्रान्ताओं के छोटे बड़े अनेक हमले हुए पर सबसे जोरदार आक्रमण अंग्रेजों ने 1805 ई० में किया। भरतपुर के शासक रणजीतसिंह ने अंग्रेजों के शत्रु जसवन्तराव होल्कर को अपने यहाँ शरण दी, जिससे उसे अंग्रेजों का कोपभाजन बनना पड़ा। अंग्रेज सेनापति लेक ने रणजीतसिंह को सबक सिखाने के लिए एक विशाल सेना के साथ भरतपुर दुर्ग को घेर लिया। उसकी सेना में लगभग एक हजार प्रशिक्षित योरोपियन घुड़सवार तथा बड़ा तोपखाना सम्मिलित थे।

1805 ई० की जनवरी से लेकर अप्रेल माह तक पाँच बार भरतपुर दुर्ग पर जोरदार हम किये गये । ब्रिटिश तोपों ने जो गोले बरसाये वे या तो मिट्टी की बाह्य प्राचीर में धँस गये अथवा किले के ऊपर से निकल गये। उनकी लाख कोशिश के बावजूद भी किले का पतन नहीं हो सका। फलत: विवश होकर अंग्रेजों को सन्धि करनी पड़ी तथा किले का घेरा 17 अप्रेल 1805 ई० को उठा लिया गया।

अंग्रेजों की इस पराजय से भारतीयों का उत्साह में बढ़ गया तथा उनके मन में राष्ट्रीय चेतना की एक लहर सी दौड़ गई। समकालीन एक लोकगीत में यह इस तरह अभिव्यक्त हुई है –

गोरा हट जा रे राज भरतपुर को ।

दूसरी ओर भरतपुर की इस पराजय से अंग्रेज अफसरों का मनोबल भी गिरा। इस तथ्य की झलक सर चार्ल्स मेटकाफ द्वारा गवर्नर जनरल को लिखे पत्र की इन पंक्तियों से मिलती है- “ब्रिटिश फौजों की सैनिक प्रतिष्ठा का अधिकांश हिस्सा भरतपुर के दुर्भाग्यपूर्ण घेरे में दब गया है।”

लेकिन अंग्रेजों को अपनी इस पराजय के प्रतिशोध का अवसर उस समय मिल गया, जब रणजीतसिंह की मृत्यु के उपरान्त भरतपुर राजघराने में आन्तरिक कलह का लाभ उठाकर उन्होंने विशाल सेना की सहायता से जनवरी 1826 ई० में जोरदार आक्रमण के उपरान्त भरतपुर दुर्ग पर अपना अधिकार कर लिया।

यों, अंग्रेजों से लोहा लेने वाला यह ‘लोहागढ़’ (भरतपुर दुर्ग) काल के क्रूर थपेड़ों को झेलता हुआ आज भी शान से खड़ा है।

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