महात्मा गाँधी को पश्चात्ताप
13 वर्ष की आयु में उन्होंने माध्यमिक पाठशाला में प्रवेश लिया। वहाँ उनका अन्य बच्चों की तरह अच्छी-बुरी संगत से वास्ता पड़ा। महात्मा गाँधी के दूरस्थ के एक चाचा सिगरेट पीते थे। उनकी देखा-देखी गाँधीजी की भी इच्छा हुई कि सिगरेट पिये। सिगरेट के बचे हुए टुकड़े चुराकर पीने लगे। लेकिन वे अधिक देर तक नहीं चलते।
पूरी सिगरेट पीने के लिए एक दिन उन्होंने घर के नौकर की जेब साफ कर दी। सिगरेट पीने में उन्हें कोई विशेष आनन्द नहीं आता था लेकिन धुआँ उड़ाने में उन्हें जरूर एक सुख मिलता था। मगर इस बुरे काम के लिए उनकी आत्मा अन्दर ही अन्दर उनको धिक्कारती रहती थी और तुरन्त ही उन्होंने इस बुरे कार्य का त्याग कर दिया।
उन दिनों उनके मित्रों की धारणा थी कि हमलोगों को मांसाहारी बनना चाहिए क्योंकि उस समय भारत के एक बड़े भाग पर अंग्रेजों का अधिकार था। वे सब मांसाहारी थे। इससे भारत का युवा वर्ग प्रभावित था। महात्मा गाँधी का एक मित्र शेख मेहताब बलवान लड़का था। वह खेल में हमेशा आगे रहता था। गाँधी जी ने विचार किया यदि अंग्रेज शासकों को अपने देश से निकालना है तो हमें शेख जैसा बलवान बनना चाहिए। इसलिए मांस खाना जरूरी है।
इस झूठे विश्वास ने उनके मन में पक्की जड़ पकड़ ली। वे छिपकर मांस खाने का प्रयत्न करने लगे। मांस गले के नीचे नहीं उतरता लेकिन बलशाली बनने की लालसा में आँख बन्द कर, जी कड़ा करके थोड़ा बहुत मांस गले के नीचे उतार लेते। घर आकर माँ जब खाने को बुलाती तो बहाना करके महात्मा गाँधी कहते आज भूख नहीं है, खाना पचा नहीं है। जब-जब ये बहाने बनाते, तब-तब उनके दिल पर सख्त चोट पहुँचती।
उन्होंने विचार किया, माता-पिता को धोखा देना और झूठ बोलना तो मांस खाने से भी ज्यादा बुरा है। इसलिए माता-पिता के जीते जी मांस नहीं खाना चाहिए। इस प्रकार महात्मा गाँधी ने मांस-भक्षण के इस मार्ग को त्याग दिया।
इसी प्रकार एक बार भाई का कर्जा चुकाने के लिए एक तोला सोना चुरा लिया। कर्जा तो चुक गया, किन्तु अन्तरात्मा पश्चात्ताप की आग में जलने लगी। वे इतना दुःखी हुए कि धतूरे के जहरीले बीज खाकर मरने का विचार किया। परन्तु समय पर वे इतना साहस नहीं जुटा पाये कि वे वैसा कर पायें । अन्त में सोचा, पिताजी के सामने दोष स्वीकार कर लें, किन्तु आवाज न निकली।
उन्होंने पत्र में अपना अपराध कबूल किया और वह पत्र काँपते हाथों से अपने पिताजी को दिया। उसमें उन्होंने साफ-साफ सारी बातें लिख दी और प्रतिज्ञा की कि वे भविष्य में कभी ऐसा अपराध नहीं करेंगे। पिताजी ने पत्र पढ़ा परन्तु वे एक शब्द भी नहीं बोले। उनकी आँखों अश्रुधारा बहने लगी। यह देखकर गाँधीजी भी खूब रोए । महात्मा गाँधी को डर था कि पिताजी उनका दोष जानकर क्षमा नहीं करेंगे। वे स्वभाव से उदार और सत्यप्रिय थे, किन्तु क्रोधी थे।
फिर भी उन्होंने गाँधीजी द्वारा स्वयं दोष स्वीकार करने के बाद उन्हें हृदय से क्षमा कर दिया। वे अपनी आत्मकथा में लिखते हैं-“उन प्यार भरे मौक्तिकाश्रु से मेरा हृदय साफ हुआ, मेरे पाप धुल गये।” महात्मा गाँधी ने यह शिक्षा ली कि प्रायश्चित का सबसे अच्छा उपाय शुद्ध हृदय से दोष स्वीकार कर लेना है।