महात्मा गाँधी की आध्यात्मिक शिक्षा
महात्मा गाँधी का तेरह वर्ष की आयु में विवाह कस्तूरबा से हो गया था। जब वे हाईस्कूल में अध्ययन कर रहे थे। यह बाल-विवाह था। उन दिनों बाल-विवाह की
प्रथा थी। विवाह के बाद विद्याध्ययन और गृहस्थ जीवन साथ-साथ चलने लगा। विवाह होने के कारण इनका मन पढ़ने में नहीं लगता था। इसलिए हाईस्कूल उत्तीर्ण नहीं कर सके। स्वयं को धक्का लगा। इसके बाद उन्होंने पढ़ाई की ओर पूरा ध्यान देने की चेष्टा करने लगे। उस समय स्कूल में संस्कृत पढ़ाई जाती थी। महात्मा गाँधी की दृष्टि में संस्कृत कठिन भाषा थी। इसलिए संस्कृत में उनकी रुचि नहीं थी।
संस्कृत अध्यापक के कहने पर संस्कृत अध्ययन जारी रखा। सोलह वर्ष की आयु में महात्मा गाँधी के पिताजी का देहान्त हुआ। उस समय वे एक बालक के पिता थे। पिताजी के देहान्त के बाद घर का दारोमदार गाँधी जी के बड़े भाई लक्ष्मणदास पर आ गया।
महात्मा गाँधी के अनुसार वे सदा भूत, चोर और साँप आदि से डरते थे। उन्होंने अपने इस डर को अपनी धाय माँ श्रीमती रम्भा के समक्ष प्रकट किया तो उसने गाँधी जी को एक मंत्र ‘राम’ नाम का दिया जिसे गाँधी जी ने शिक्षा के तौर पर जीवन भर अपनाया। इससे उन्हें आत्मबल प्राप्त हुआ।
इन्हीं दिनों उन्होंने रामायण, भागवत जैसे ग्रन्थों का अवलोकन किया। उनके घर पर जैन, बौद्ध भिक्षु और पादरी यदा-कदा आते रहते थे। उनसे गाँधीजी ने आध्यात्मिक शिक्षा प्राप्त की। जैनधर्म से उन्होंने हिंसा त्याग का सबक लिया। मनु जैसे महान विचारक के ग्रन्थों का भी गाँधीजी ने गहनता से अध्ययन किया ।
गुजराती कवि श्यामलाल भट्ट की गुजराती कविता उन दिनों गाँधीजी ने पढ़ी। उस कविता का भावार्थ था- जो एक प्याला पानी दे, उसे उत्तम भोजन दें, जो स्नेह से अभिवादन करता है, उसे विनम्रता से प्रणाम करें, कोई एक पैसे से सहायता करता है, उसे सोने से लाद दो। विद्वानों ने ऐसा ही कार्य करने और आचरण में लाने की सलाह दी है। प्रत्येक सेवा का प्रतिदान दस गुना अधिक सेवा से करें।
सभी मानव एक हैं- इसलिए बुराई का उत्तर भलाई से देकर, मानवता को अपनाओ। इस कविता का गाँधीजी के मन पर गहरा प्रभाव पड़ा तथा यह कविता उनके जीवन का आदर्श बन गई। वे समझ गये कि अन्यायी से भी प्रेम करना चाहिए। यही सच्चा मानव धर्म है।
महात्मा गाँधी की उच्च शिक्षा के लिए विलायत में
माध्यम शिक्षा पूर्ण करने के बाद महात्मा गाँधी ने भावनगर के श्यामलदास कॉलेज में प्रवेश लिया और पढ़ाई करने लगे। उन्हीं दिनों उनके पिता के एक मित्र श्री भाव जी उनके घर आए हुए थे। उन्होंने गाँधीजी से उनकी पढ़ाई-लिखाई के विषय में जानकारी ली।
श्री भाव जी बोले–“पीढ़ियों से चली आ रही दीवानगिरी की पैतृक गद्दी अब विलायत से लौटे बिना नहीं मिलने वाली, इसलिए इन्हें शिक्षा के लिए विलायत जाकर बैरिस्टर बनने का प्रयत्न करना चाहिए। महात्मा गाँधी भी विलायत जाकर अध्ययन करने के इच्छुक थे। किन्तु माता जी को डर था कि लड़का विलायत जाकर मांस और शराब के चक्कर में फँस जायेगा।
तब गाँधीजी ने प्रतिज्ञा की कि वे विलायत जाकर मांस, मदिरा और स्त्री से दूर रहेंगे। इस पर माताजी से जाने की अनुमति मिल गई। यद्यपि उनके भाई कोई अमीर आदमी नहीं थे, फिर भी उन्होंने खर्च का सारा बोझ उठाना स्वीकार किया ।
उस समय महात्मा गाँधी की आयु उन्नीस वर्ष की थी। 4 सितम्बर, 1888 को गाँधीजी कर्लाइड नामक समुद्री जहाज से विलायत के लिए रवाना हुए। समाज के वरिष्ठ लोगों को जब यह मालूम हुआ तो उन्होंने उनकी यात्रा का विरोध किया। मांसाहारी न होने के कारण आपको रास्ते में बहुत कष्ट हुआ लेकिन प्रतिज्ञा नहीं तोड़ी । अंग्रेजी में बात करने का अभ्यास नहीं था। अंग्रेजी कपड़े पहनने के तौर-तरीकों से भी आप अपरिचित थे।
फिर भी अपनी सहज शिष्टता के कारण सबके प्रिय बन गये थे। इस प्रकार 24 दिन की अनवरत यात्रा के बाद वे 28 सितम्बर सन् 1888 को वे लन्दन पहुँचे। लन्दन पहुँचकर पहले विक्टोरिया होटल में ठहरे। होटल के संकीर्ण कमरे में आपका मन नहीं लगा। एकाकीपन गाँधीजी को परेशान करने लगा। अपना देश याद आने लगा। माँ का प्यार याद आता । रात भर रोते-रोते गुजारते ।
उन्होंने 6 नवम्बर 1888 को बैरिस्टर की शिक्षा के लिए ‘इण्टर टैंपिल’ में अपना नाम लिखवा दिया। मांसाहार और शाकाहार के मध्य गाँधीजी को लन्दन में अपना समय काटना कठिन लग रहा था। उन्होंने शाकाहारी होटल खोज निकाला और वहाँ जो कुछ भी मिलता वह खाकर सन्तोष कर लेते। उन्हें अपने निवास से रोज होटल तक जाने के लिए बहुत चलना पड़ता था। उसे उन्होंने कभी कष्टदायक नहीं समझा। अन्त में उन्होंने स्वयं भोजन बनाने का निर्णय लिया।
महात्मा गाँधी ने अंग्रेजी ढंग, रहन-सहन अपनाने का प्रयास किया। अंग्रेजी में बात करने की आदत डाली। फ्रेन्च भाषा सीखी। नृत्य करना और सार्वजनिक भाषण की कला सीखने का प्रयास किया। उनका व्यय बढ़ने लगा। उनमें से एक भी कला वे सीख न पाये। माताजी को दी गई प्रतिज्ञा की याद आते ही आपने अपने आपको अंग्रेजी सभ्यता के प्रवाह में बहने से रोक लिया। सभ्य बनने की ललक शीघ्र समाप्त हो गई और सादगीपूर्ण जीवन बिताने लगे।
अब महात्मा गाँधी का जीवन बिल्कुल सादा हो गया। सादगी ने उच्च विचारों को जन्म दिया। तब आपने मसालों को खाना भी त्याग दिया। चाय और कॉफी का भी परित्याग कर दिया। रोटी और उबली हुई सब्जी पर ही गुजर करने लगे। गाँधीजी ने स्वयं अपनी आत्मकथा में लिखा है-“कोई यह न समझे कि सादगी से मेरा जीवन नीरस बन गया था, सच तो यह है कि इससे मेरे भीतर और बाहर के जीवन में समरसता आ गई थी। यह सन्तोष भी था कि मैं अपने परिवार पर अधिक बोझ नहीं डाल रहा हूं।
गाँधीजी के जीवन में दिन-प्रतिदिन बदलाव आता जा रहा था। तभी उन्हें शाकाहारी लोगों की एक संस्था के संचालक सर एडविन आर्नल्ड से परिचय हुआ। गाँधीजी उस संस्था के कार्यकारिणी समिति के सदस्य चुने गये। यहीं से उनके तीव्र बुद्धि का परिचय मिलना प्रारम्भ हो गया। यहाँ रहकर गाँधीजी ने राजनीति का भी अध्ययन किया।
लन्दन में रहकर गाँधीजी परीक्षा की तैयारी के साथ-साथ अपने धर्मग्रन्थ श्रीभगवद्गीता का भी अध्ययन किया। गीता का अंग्रेजी अनुवाद पढ़ने के बाद आपको गीता पर बड़ी श्रद्धा हुई और यह श्रद्धा आपके साथ आजीवन रही। लन्दन में ही उन्होंने दादाभाई नौरोजी, डॉ. एनी बेसेन्ट से भी भेंट की। उन्हीं दिनों सन् 1890 में दादाभाई नौरोजी ने लन्दन से ‘इन्डिया’ नाम की पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया था और गाँधीजी लन्दन की संस्था इंडियन एसोसिएशन की सभाओं में आते-जाते रहते थे।
उन्हीं दिनों आपने एक ईसाई सज्जन की प्रेरणा से बाइबिल पढ़ी। बाइबिल का यह वाक्य कि ‘जो तेरे दाहिने गाल पर एक थप्पड़ मारे उसके आगे दूसरा बायाँ गाल कर दें”, आपके जीवन का आदर्श बना। इस प्रकार तीन वर्ष के अथक परिश्रम के बाद गाँधीजी 10 जून सन् 1891 को बैरिस्टरी की परीक्षा उत्तीर्ण करके 11 जून सन् 1891 को हाईकोर्ट में अपना नाम बैरिस्टर के रूप में दर्ज करवा दिया।