महात्मा गाँधी का दक्षिण अफ्रीका को प्रस्थान
उन्हीं दिनों उन्हें दक्षिण अफ्रीका के एक व्यापारी सेठ अब्दुल्ला का मुकदमा मिला। मुकदमा अफ्रीका के किसी राज्य में लड़ा जाना था। सेठ अब्दुल्ला पोरबन्दर का निवासी था लेकिन उसका कार्य-व्यापार दक्षिण अफ्रीका में था।
महात्मा गाँधी को सेठ अब्दुल्ला के भारतीय भागीदार करीम सेठ का सन्देश प्राप्त हुआ कि उनका मुकदमा न्यायालय में अनिर्णीत पड़ा हुआ है। इस काम में एक वर्ष लग सकता है। आपको आने-जाने का प्रथम श्रेणी का और रहने-खाने के खर्च के अलावा फीस के रूप में एक सौ पौंड अलग से दिये जायेंगे। महात्मा गाँधी यह सुनहरा मौका खोना नहीं चाहते थे। क्योंकि वे अंग्रेज ‘पोलिटिकल एजेन्ट’ द्वारा लज्जित किये गये थे।
तथा लन्दन से, बैरिस्टरी पढ़कर उन्होंने जो आशाएँ बाँधी थी, वह एक भी पूर्ण नहीं हो सकी थी । इसलिए महात्मा गाँधी ‘अब्दुल्ला एण्ड कम्पनी’ की ओर से वकालत करने के लिए दक्षिण अफ्रीका जाने को तैयार हो गये ।
उस समय वे चौबीस वर्ष के थे तथा दूसरे बच्चे के पिता भी बन चुके थे। अपने भाई की सम्मति से महात्मा गाँधी 1893 के अप्रैल माह में दक्षिण अफ्रीका के लिए जहाज पर चढ़ गये । यहाँ से महात्मा गाँधीअपने जीवन के कार्यक्षेत्र में प्रवेश किया।
जहाज मई के अन्त तक नेटाल जा पहुँचा। बन्दरगाह से महात्मा गाँधी को लिवाने के लिए स्वयं सेठ अब्दुल्ला वहाँ आये थे। डरबन में महात्मा गाँधी ने देखा कि वहाँ भारतीयों का कोई खास सम्मान नहीं था। वहाँ लोग महात्मा गाँधी को अजीब नजरों से देख रहे थे।
वहाँ के लोगों को किसी काले का अंग्रेजी पोशाक में होना कष्ट दे रहा था। महात्मा गाँधी सूट-बूट में थे और सिर पर पगड़ी थी। गोरे लोग काले लोगों से ऐसा व्यवहार करते थे, जैसे वे उनके दास हों। वहाँ भारतीयों को घटिया समझा जाता था।
दक्षिण अफ्रीका में महात्मा गाँधी को कुली बैरिस्टर की संज्ञा दी गई थी। उन दिनों दक्षिण अफ्रीका में रंग-भेद का प्रचलन जोरों पर था। गोरे अंग्रेज वहाँ जा बसने वाले भारतीयों से घृणा करते थे और उन्हें कुली बुलाते थे। भारतीयों पर अनेक पाबन्दियाँ लगा रखी थी। वे बात-बात में कुलियों का अपमान करते थे। वहाँ भारतीय प्रथम श्रेणी में यात्रा नहीं कर सकता था। वहाँ रहने वाले भारतीय इन सबके आदी हो चुके थे। उन्होंने परिस्थितियों से समझौता कर लिया था।