महात्मा गाँधी का दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह का जन्म
उन्हीं दिनों दक्षिण अफ्रीकी सरकार में फेरबदल हुआ और जनरल बोथा अफ्रीकी सरकार के मुखिया चुने गये। उनकी सरकार में ‘जनरल स्मट्स’ नामक उपनिवेश मंत्री था। ये एशियाई लोगों को कैंसर रोग की संज्ञा देता था और उसकी राय थी कि एशियाई लोगों को दक्षिण अफ्रीका से बाहर निकाल दिया जाए।
जनरल बोथा ने इसी प्रकार का एक कानून पास कर दिया था जिसे ‘एशियाटिक एक्ट’ नाम से जाना गया। इस एक्ट के अनुसार आठ वर्ष से अधिक आयु के मूल एशियाई स्त्री-पुरुषों को अपने नाम दर्ज कराना आवश्यक था। हिन्दी तथा मुस्लिक धार्मिक रिवाजों के अनुसार जो दम्पत्ति विवाहित होते, उन्हें वैध विवाहित पति-पत्नी नहीं समझा था।
एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में जाने पर भी रोक था। एशियाई लोगों ने इसे ‘काला कानून’ कहकर इसका जबरदस्त विरोध किया। गाँधीजी इसके विषय में चेम्बर लेन से मिले लेकिन दक्षिण अफ्रीका के कानून में कोई परिवर्तन नहीं हुआ।
अन्त में शान्त सत्याग्रह करने का विचार बनाया। ‘सत्याग्रह’ के लिए उन्होंने पुरुषों, स्त्रियों और बच्चों को प्रशिक्षित किया। ‘शान्ति सेना’ अपने संगठन का नाम रखा। इस सत्याग्रह को लोगों तक पहुँचाने के लिए ‘इन्डियन ओपिनियन’ समाचार पत्र
का उपयोग किया गया जिसमें दक्षिण अफ्रीका सरकार के अमानवीय कृत्यों को उजागर किया जा रहा था और लोगों से एकजुट होकर सत्याग्रह में भाग लेने की अपील की गई थी। सत्याग्रह छह माह तक चलता रहा। सरकार परेशान होकर गाँधीजी को 10 जनवरी 1908 को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया। यह गाँधीजी की पहली जेलयात्रा थी। सारे सत्याग्रही पकड़े गये। बाद में जनरल स्मट्स ने गाँधीजी को मिलने के लिए बुलाया और सुलह करने की पेशकश की।
उसने काला कानून रद्द करने की प्रतिज्ञा की। सभी कैदी छोड़ दिये गये। समझौते से अधिकांश दक्षिण अफ्रीका के लोग नाराज थे। उनमें से कुछ लोगों ने गाँधीजी को मारा-पीटा। उनका होंठ फट गया था। अपराधी गिरफ्तार कर लिए गये लेकिन गाँधीजी ने उन्हें छुड़वा दिया।
गोरी सरकार ने जो शर्तें कुबूल कीं, उन्हें पूरा नहीं किया। सरकार के अपने वादे से मुकरते ही गाँधीजी ने फिर से सत्याग्रह प्रारम्भ कर दिया। गाँधीजी ने सरकार को चुनौती दी- “हम तुम्हारे काले कानून के आगे नहीं झुकेंगे, अन्जाम चाहे कुछ भी हो?”
यह सत्याग्रह खूब चला। हजारों भारतीय और कुछ अभारतीय जेल भी गए। गाँधीजी को भी जेल में डाल दिया गया। उनके साथ पहले से भी ज्यादा बुरा बर्ताव किया गया। हैनरी पोलाक इस सत्याग्रह के प्रचार के लिए भारत गये।
भारत आकर वे गोखले से मिले और भारत में प्रचार करते रहे। जब अफ्रीका की जेल में बन्द गाँधीजी पर अमानवीय अत्याचार को भारतीय नेताओं ने सुना तो उन्होंने इंग्लैण्ड की गोरी सरकार को विरोध पत्र भेजे जिनमें लाला लाजपतराय, दादा साहब खापड़े, वीर सावरकर, श्री विपिनचन्द्र पाल, डॉक्टर आनन्द स्वामी और सर भाव नगरी आदि प्रमुख थे।
गाँधीजी 10 जून, सन् 1908 को जेल से रिहा होने के बाद रंग-भेद नीति को लेकर इंग्लैण्ड अंग्रेज सरकार के पास गये लेकिन इंग्लैण्ड में उन्हें मिथ्या आश्वासनों के अतिरिक्त और कुछ न मिला। इस बीच उन्होंने ‘स्वराज्य’ नामक पुस्तक लिखी जो गुजराती भाषा में थी। भारत में इसका प्रकाशन हुआ।
अंग्रेजी सरकार ने मार्च, 1910 में इसे जब्त कर लिया। फिर गाँधीजी ने इसका अंग्रेजी अनुवाद करवाकर मिथ्या आश्वासन मिलने के बाद एक बार पुनः सत्याग्रह शुरू हुआ और सरकार प्रकाशित कराया।
द्वारा दमनचक्र। भारत से गोपालकृष्ण गोखले जाँच के लिए दक्षिण अफ्रीका पहुँचे। उन्होंने वहाँ की सरकार से एशियाइयों के अधिकारों को लेकर बातचीत की। उनके समझाने पर जनरल स्मट्स ने ‘इन्डियन रिलीफ बिल’ नाम से नया बिल पेश करना ‘से स्वीकार कर लिया। लेकिन गोखले के जाते ही गोरी सरकार अपने वादे से मुकर गई । आन्दोलन चरम सीमा पर पहुँच चुका था।
ज्यों-ज्यों दमन चक्र बढ़ता गया, त्यों-त्यों सत्याग्रहियों की संख्या बढ़ती गई। अन्त में 9 नवम्बर, 1913 को पुनः गांधीजी को गिरफ्तार कर लिया गया। लेकिन अन्त में गोरी सरकार को गाँधीजी के समक्ष झुकना ही पड़ा। आठ वर्ष के सत्याग्रह के बाद 21 नवम्बर, 1914 को गाँधीजी और स्मट्स के मध्य एक समझौते पर हस्ताक्षर हुए और गोरी सरकार ने उस जनरल काले कानून को वापस ले लिया।
इस प्रकार गाँधीजी दक्षिण अफ्रीका के भारतवासियों को आत्मसम्मान दिलाने वाले नेता बन गये तथा उनका नाम संसार भर में प्रसिद्ध हो गया। स्वयं जनरल स्मट्स ने लिखा था- “मेरा सौभाग्य था कि मैं उस व्यक्ति का विरोधी बना जिसके प्रति विरोध के दिनों में भी मेरे मन में बहुत आदर था।” गाँधीजी के प्रति विरोधियों के दिलों में भी श्रद्धा थी।