परम पूज्य बाला सती माता रूप कंवर bala sati mata Roop Kanwar

Kheem Singh Bhati
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परम पूज्य बाला सती माता रूप कंवर

बाला सती माता रूप कंवर bala sati mata Roop Kanwar। रूपनगर, जोधपुर जिले के अन्तर्गत बिलाड़ा तहसील का एक छोटा सा गांव जो जोधपुर-अजमेर मुख्य सड़क के नजदीक स्थित है। इसी गांव के निवासी श्री लालसिंह जी की धर्म पत्नी श्रीमती जड़ाव कंवर जी के गर्भ से 16, अगस्त, 1903 ई. तदनुसार संवत् 1960 की भाद्रपद मास की कृष्ण जन्माष्टमी सोमवार के दिन एक दिव्य कन्या ने जन्म लिया, जो आगे चलकर सती माँ रूप कंवर के नाम से प्रसिद्ध हुईं। इसी तिथि और समय पर पाँच हजार एक सौ चालीस वर्ष पूर्व ऐसे ही माहौल और परिस्थितियों में भगवान श्री कृष्ण का जन्म हुआ था।

bala sati mata रूप कंवर का जन्म अत्यन्त ही शुभ घड़ी और मंगलमयी बेला में हुआ था। ऐसा शुभ योग उज्ज्वल भविष्य का द्योतक होता है। रूप कंवर की कुण्डली के अनुसार उनकी राशि “वृषभ”नक्षत्र “रोहिणी” तथा “चन्द्र” की दशा थी । शनि, सूर्य और गुरु उनके प्रबल और बलिष्ठ ग्रह थे जिससे यह आभास हो गया था कि बालिका ‘अंशावतार’ है जो कि आगे चल कर एक आध्यात्मिक प्रकाश पुंज के रूप में प्रतिष्ठित होगी।

रूप कंवर का बाल्यकाल अद्भुत और अलौकिक था।

रूप कंवर का बाल्यकाल अद्भुत और अलौकिक था। इनका लालनपालन, शिक्षा-दीक्षा और संस्कार इनके पिताश्री के ज्येष्ठ भ्राता श्री चन्दर सिंह जी जो स्वयं एक पहुंचे हुए संत थे, के सान्निध्य एवम् संरक्षण में हुआ। रूप कंवर का पाणिग्रहण संस्कार श्री जुंझार सिंह जी निवासी ग्राम बाला (जो जोधपुर लान्सर्स में सवार के पद पर थे) के साथ 10 मई, 1919 को सम्पन्न हुआ।

विवाह संस्कार के समय ही जुंझार सिंह जी को तेज बुखार शुरू हुआ जो बढ़ता ही गया और उनकी अंतिम श्वास के साथ 25 मई, 1919 को दोपहर के समय समाप्त हुआ। रूप कंवर ने इन पन्द्रह दिनों में अपने पति का मुंह भी नहीं देखा। जुझार सिंह जी के आकस्मिक परलोक गमन से पूरा परिवार दुःख और पीड़ा से व्यथित हो गया। परिवार पर यह दुखद घटना एक वज्रपात से कम नहीं थी।

किन्तु यह एक विस्मय की ही बात है कि, रूप कंवर जिन्हें इस शोक जनित घटना से सर्वाधिक प्रभावित होना था परन्तु वे शून्य प्रभाव रहीं और इस वज्रपात के प्रति उनका पूर्ण उदासीन भाव रहा, केवल असंबंध साक्षी की तरह देखती रहीं।उनका वैधव्य हरी नाम के जप, सत्संग और परमार्थ में कटा। वे शिव उपासक थी। जुंझार सिंह जी के ज्येष्ठ भ्राता जालमसिंह जी के पुत्र मानसिंह रूप कंवर के विवाह के समय मात्र 11 वर्ष की आयु के थे।

परम पूज्य बाला सती माता रूप कंवर
परम पूज्य बाला सती माता रूप कंवर

bala sati mata सती माता रूप कंवर की पाँच वर्ष की उम्र में उनकी माताश्री का देहान्त हो गया था।

जब वे पाँच वर्ष की उम्र के थे तब उनकी माताश्री का देहान्त हो गया था। माता विहीन होने के कारण रूप कंवर ने उनका पुत्र समान पालन-पोषण किया। उनमें परस्पर माता-शिशु का प्रगाढ़ संबंध बन गया। आगे चल कर श्री मानसिंह जी परिवार के मुखिया बने तो रूप कंवर उनको पूरा सम्मान देती थीं। समय चक्र घूमता हुआ एक अन्य घटित होने वाली महालीला के द्वार पर जा पहुंचा।

15 फरवरी, 1942को करीब तीन माह की लम्बी बीमारी के कारण श्री मानसिंह जी का देहान्त हो गया। यह सम्पूर्ण परिवार के लिए एक और वज्रपात था, इसलिए सभी का दुखी होना स्वाभाविक था। किन्तु यहाँ भी एक बड़ी आश्चर्य जनक घटना घटी। रूप कंवर श्री मानसिंहजी को पुत्रवत स्नेह करती थीं, पूर्ण उदासीन भाव में बैठी रहीं और कोई रोना-धोना नहीं । वहाँ भी वे एक मूक दर्शक की भाँति विरक्त भाव से बैठी शान्ति से सब देखती रहीं।

श्री मानसिंह जी की शव यात्रा की तैयारी हुई तो श्री रूपकंवर जी अपने कक्ष में गई, स्नान किया, वस्त्र धारण किये और यकायक अपने कक्ष से बाहर पधारे। उनके हाथ में श्रीमद्भगवतद् गीता की प्रति थी, साड़ी के पल्लू में एक नारियल, तुलसी माला एवम् चन्दन का मुठिया। उनका चेहरा ओजस के प्रकाश से दमक रहा था, उनके नेत्रों में अलौकिक तेज था । सहज उनकी तरफ देखना असम्भव था। परिवार के अनुभवी सदस्यों को आभास हुआ कि कदाचित श्री रू पकंवर जी में सत जागृत हो गया है और वे सती होने जा रही हैं।

उनको समझाने के प्रयास किये गये, परन्तु रूप कंवर अपने मत से नहीं हटीं। रूप कंवर अपने घर के समीप स्थित बंशीवाला मंदिर गई । श्री कृष्ण की मूर्ति को दण्डवत प्रणाम किया, गीता को मूर्ति के चरणों में विराजमान करवाया और पारिवारिक श्मशान घाट की तरफ अग्रसर हो गई। इस घटना के समाचार अग्नि की तरह पूरे क्षेत्र में फैल गये। भारी संख्या में लोगों का हुजूम वहाँ उमड़ पड़ा। रूप कंवर के ‘सत्’ को निष्क्रिय और शान्त करने के सफल प्रयास किये गये फलतः ‘सत्’ शान्त हो गया। परन्तु इस घटना के चार दिन पश्चात् एक बार पुनः सती होने का असफल प्रयास किया गया।

सती होने के प्रयास के साथ घटित अलौकिक घटनाओं, जिनका विवरण यहाँ नहीं दिया जा रहा है, से यह विश्वास हो गया कि कोई अदृश्य शक्ति किसी विशेष उद्देश्य की पूर्ति के लिए इन घटनाओं का संचालन कर रही है। 15 फरवरी, 1942 से लेकर अपने शेष सम्पूर्ण जीवन काल के अंत तक (16 नवम्बर, 1986) उनका सदा के लिए अन्न-जल छूट गया।

जहाँ तक उनके ‘सत्’ को शान्त या निष्प्रभाव करने का प्रश्न है, ऐसा हुआ प्रतीत तो हुआ परन्तु यथार्थ में ऐसा कुछ हुआ नहीं, उनका सत तीव्र-वैराग्य में परिवर्तित हो गया। नतीजन उनको जीवन पर्यन्त अन्न-जल की आवश्यकता ही नहीं रही। उनको ऊर्जा किसी अदृश्य स्त्रोत से मिलती रही। वैसे वे तो स्वयं ही ऊर्जा की स्त्रोत थीं।

15 फरवरी, 1942 को रूप कंवर को ‘सत्’ जाग्रत हुआ। उस दिन और उसके पश्चात् घटित अलौकिक घटनाओं से लोगों में विश्वास हो गया कि वे एक जीवित सती हैं। जन मानस के हृदय में उनके प्रति अटूट विश्वास और श्रद्धा है।


परम पूज्य बाला सती माता रूप कंवर
परम पूज्य बाला सती माता रूप कंवर

सभी उनको एक महान संत मानते हैं और सतीजी, सतीमाता, सतीमाता बाप जी के सम्बोधन से सम्बोधित करते हैं। अन्य संत लोग उन्हें महासती मानते हैं। अधिकतर लोग बापजी के जीवन के चमत्कारिक पक्ष को अधिक महत्व देतेहैं। निःसन्देह चमत्कार बापजी द्वारा इस धरा पर की गई लीला के अभिन्न अंग हैं, वरन् बापजी तो स्वयं ही जीवित चमत्कार थे।

कुछ ही क्षणों में सैकड़ों किलोमीटर की यात्रा कर सभी को चकित कर देते थे। आपके अन्तःकरण की भावनाओं को भांपना, आपकी समस्या का समाधान करना उनके लिए बहुत ही साधारण कार्य थे। वे सम्पूर्ण जन मानस की वेदना व व्यथा को समझते थे परन्तु वाह-वाही बटोरने के लिए खैरात नहीं बांटते थे। जो आया शरण में उसने सब कुछ पाया। वे सत्गुरु थे, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी, अनाथ के नाथ और अशक्त का सहारा थे।

परमपूज्य सतीमाता बापजी का भक्तमति मीरा बाई के मरु प्रदेश में ईश्वर की सत्ता में दृढ़ विश्वास जागृत करने हेतु पदार्पण हुआ प्रतीत होता है। यह भगवान श्री कृष्ण के द्वारा गीता के चतुर्थ अध्याय के 7 और 8 वें श्लोक में दिये गये आश्वासन के अनुरूप है।

ग्रामीण परिवेश में जहाँ शिक्षा और साधन-सुविधा सीमित हैं, संतों का सान्निध्य दुर्लभ है, भौतिक युग का प्रभाव भी जहां अपने पैर पसार रहा है, वहाँ जन मानस के हृदय पटल पर प्रभु भक्ति स्थापित करना कठिन कार्य है। बापजी तो लोगों को ईश्वर प्राप्ति का मार्ग दर्शाने के लिए ही इस संसार में पधारे थे।

उन्होंने एक सहज आध्यात्मिक जीवन अपना कर, लोगों को साधना का पथ दर्शाने हेतु स्वयं के जीवन का उदाहरण उनके समक्ष रखा। हमें सती माता के जीवन में प्रदर्शित तीव्र वैराग्य और आध्यात्मिक उद्देश्यों का मन, कर्म और वचन से पालन करना चाहिए। ईश्वर में पूर्ण शरणागति का भाव रखना और भावों को समझ कर चरितार्थ करना ही सती बापजी के प्रति आभार पूर्ण सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

16 नवम्बर, 1986 को पंचतत्वों से निर्मित बापजी की पावन देह पुनः पंचतत्वों में समा गयी और ईश्वर की दिव्य शक्ति जो सती बापजी के रूप में अवतरित हुई थी वह पुनः ईश्वर में लीन हो गई। बाला गांव में बापजी का मंदिर, आश्रम और गौशाला है और यह स्थान अब सभी के लिए तीर्थ है।

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