बूंदी का किला (तारागढ़) सुरम्य किन्तु विकट अरावली पर्वतमाला की गोद में बसे बूँदी नगर और उस पर साये की तरह छाये उसकी सुरक्षा के सजग प्रहरी और पृष्ठ रक्षक तारागढ़ दुर्ग का लगभग सात सौ वर्षों का एक अतीव शानदार और गौरवशाली अतीत रहा है जिससे राजस्थानी इतिहास के पृष्ठ आलोकित हैं। हाड़ा राजपूतों के अप्रतिम शौर्य और वीरता का प्रतीक बूंदी का तारागढ़ पर्वतशिखरों से सुरक्षित होने के साथ-साथ नैसर्गिक सौन्दर्य से भी ओतप्रोत है ।
गिरि दुर्ग का यह एक उत्कृष्ट उदाहरण है। सुदृढ़ और उन्नत प्राचीर, विशाल प्रवेशद्वार, तथा अतुल जलराशि से परिपूर्ण तालाब ऐसा नयनाभिराम दृश्य प्रस्तुत करते हैं कि तारागढ़ का सौन्दर्य देखते ही बनता है। बूँदी और उसका निकटवर्ती प्रदेश (कोटा सहित) दीर्घकाल तक हाड़ा राजवंश द्वारा शासित होने के कारण हाड़ौती के नाम से विख्यात है। बूँदी के ख्यातनाम डिंगल कवि और इतिहासकार सूर्यमल्ल मिश्रण द्वारा लिखित वंशभास्कर में इस क्षेत्र के हाड़ौती नाम के बारे में यह उल्लेख आया है –
“हड्डन करि विख्यात हुब, हड्डवती यह देस”
उपलब्ध साक्ष्यों के अनुसार बम्बावदे के हाड़ा शासक देवासिंह (राव देवा) ने बून्दू घाटी के अधिपति जैता मीणा को पराजित कर बूँदी में अपनी राजधानी स्थापित की। कविराजा श्यामलदास द्वारा लिखित इतिहास ग्रन्थ वीर विनोद का उल्लेख भी दृष्टव्य है
“कुल मीनों का सरदार जैता बूँदी में रहता था जिसको दगा से देवसिंह ने मार डाला। उसके खानदान के लोगों को भी जो शराब के नशे में गाफिल थे कत्ल करके देवसिंह ने बूँदी पर अपना कब्जा कर लिया। उस वक्त से बूँदी में हाड़ाओं का राज चला आता है। “
वंशभास्कर’ में भी देवसिंह द्वारा जैता मीणा से बूंदी लेने का प्रसंग आया है। आगे चलकर राव देवा के वंशज (प्रपौत्र) राव बरसिंह ने मेवाड़, मालवा और गुजरात की ओर से संभावित आक्रमणों से सुरक्षा हेतु बूँदी के पर्वतशिखर पर एक विशाल दुर्ग का निर्माण करवाया जो तारागढ़ के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
पर्वत की ऊँची चोटी पर स्थित होने के फलस्वरूप धरती से आकाश के तारे के समान दिखलाई पड़ने के कारण कदाचित इसका नाम तारागढ़ पड़ा हो। इस नाम के और भी दुर्ग हैं जैसे कि अजमेर का तारागढ़ । वीरता और बलिदान की सुदीर्घ एवम् गौरवशाली परम्परा का धनी बूँदी दुर्ग अपनी विशिष्ट संरचना और अनूठे स्थापत्य के कारण राजस्थान के किलों में विशेष स्थान रखता है। इस दुर्ग के निर्माण में सुन्दरता और सुदृढ़ता का मणिकांचन संयोग हुआ है ।
बूंदी का किला (तारागढ़) अरावली की वादियों में नागपहाड़ी पर स्थित दुर्ग
इसका स्थापत्य कछवाहा राजवंश की पूर्व राजधानी आम्बेर से मिलता जुलता है। लगभग 1426 फीट ऊँचे पर्वतशिखर पर विनिर्मित यह दुर्ग पाँच मील के क्षेत्र में फैला है । दुर्ग की सुदृढ़ प्राचीर ने पर्वत श्रृंखला को इस प्रकार पूर्णतया आवृत्त किया हुआ है कि शत्रु के लिए दुर्ग में प्रवेश पाना अत्यन्त कठिन रहा होगा। तारागढ़ की सुदृढ़ प्राचीर में बनी विशालकाय भीमबुर्ज या चौबुजे से जब आक्रान्ता शत्रु पर गोले बरसते होंगे तो दुश्मन के तारागढ़ लेने के मनसूबे ठंडे पड़ जाते होंगे।
पर्वतीय दलान पर बने बूँदी के भव्य राजमहल अपने अनूठे शिल्प और सौन्दर्य के कारण अद्वितीय हैं । इतिहासकार कर्नल टॉड बून्दी के राजमहलों के सौन्दर्य पर मुग्ध हो गया। उसने राजस्थान के सभी रजवाड़ों के राजप्रासादों में बून्दी के राजमहलों को सर्वश्रेष्ठ कहा है।
अपने निर्माताओं के नाम से प्रसिद्ध इन महलों में छत्र-महल, अनिरुद्ध-महल, रतन-महल, बादल-महल और फूल-महल स्थापत्य कला के अतीव उत्कृष्ट उदाहरण हैं। बूँदी के इन जमहलों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इनके भीतर अनेक दुर्लभ एवं जीवन्त भित्तिचित्रों के रूप में कला का एक अनमोल खजाना विद्यमान है । विशेषकर महाराव उम्मेदसिंह के शासनकाल में निर्मित चित्रशाला (रंगविलास) बूँदी चित्रशैली का उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करती है ।
सम्प्रति देश विदेश के संग्रहालयों में सुरक्षित बूँदी शैली के चित्रों में शिकार, युद्ध, राग रागिनियों, बारहमासा, प्रकृतिचित्रण, नारी सौन्दर्य तथा अन्यान्य धार्मिक और लौकिक विषयों से सम्बन्धित चित्रों का बाहुल्य है, जो बूँदी के हाड़ा शासकों के कलाप्रेम को उजागर करती हैं। अन्य भवनों में जीवरखा महल, , दीवान ए आम, सिलहखाना, नौबतखाना, दूधा महल, अश्वशाला आदि उल्लेखनीय हैं। हाथीपोल, गणेशपोल, तथा हजारीपोल दुर्ग के प्रमुख द्वार हैं।
इनमें हाथीपोल के दोनों ओर हाथियों की दो सजीव पाषाण प्रतिमायें लगी हैं जिन्हें महाराव रतनसिंह ने वहाँ स्थापित करवाया था। महाराव बुद्धसिंह ने बूँदी नगर के चारों ओर प्राचीर का निर्माण करवाया हालाँकि इस बारे में उनके उत्तराधिकारी महाराव उम्मेदसिंह का विचार था’ कि जब शत्रु बराबर का हो तो यह प्राचीर अनावश्यक है और यदि वह शक्तिशाली हो तो यह बचाव में अक्षम होने से निरर्थक है। अर्थात् दोनों ही स्थितियों में इसका कोई उपयोग नहीं है।
बल्कि यदि कभी बूँदी का राज्य छूट जाये तो उसकी पुनर्विजय में यह अवरोध ही साबित होगी। इसके अलावा चौरासी खम्भों की छतरी, शिकार बुर्ज तथा फूलसागर, जैतसागर और नवलसागर सरोवर बूँदी के विगत वैभव की झलक प्रस्तुत करते हैं । वंशभास्कर में बूँदी नगर की प्रशंसा में सूर्यमल्ल ने ठीक ही कहा है-
“पाटव प्रजापति को, नाक नाकहू को छिति ।
मण्डल को छोगा, बुँदी नगर बखानिये । ”
अपनी विशिष्ट सामरिक स्थिति और महत्त्व के कारण तारागढ़ अपने स्थापना-काल से ही विविध आक्रान्ताओं की साम्राज्यवादी लिप्सा का लक्ष्य बना । कभी इसे मेवाड़ के सिसोदिया शासकों ने अपने अधीन किया तो कभी यह दुर्ग मालवा (मांडू) के मुस्लिम सुलतानों के अधिकार में रहा। लेकिन हर बार इन आक्रान्ताओं को बूँदी लेने से पूर्व आन-बान के धनी हाड़ाओं से जबर्दस्त संघर्ष करना पड़ा।
यहाँ तक कि मेवाड़ के महाराणा लाखा भी जब अथक प्रयासों के बावजूद भी बूँदी पर अधिकार न कर सके तो उन्होंने मिट्टी का नकली दुर्ग बनवा उसे ध्वस्त कर अपने मन की आग बुझाई। परंतु इस नकली दुर्ग के लिए भी मानधनी कुम्भा हाड़ा ने अपने प्राणों की बाजी लगा दी तथा हाड़ाओं की प्रशस्ति में कही गई इस उक्ति को चरितार्थ कर दिखाया.
बलहठ बंका देवड़ा, करतब बंका गौड़ ।
हाड़ा बांका गाढ़ में, रणबंका राठौड़ ।।
वीर विनोद के अनुसार’ मेवाड़ के महाराणा क्षेत्रसिंह ने बूँदी विजय के इरादे से अपनी सेना के साथ किले पर घेरा डाला किन्तु दुर्गरक्षकों के जवाबी हमले में वे मारे गये । तदुपरान्त मालवा के सुलतान होशंगशाह ने एक विशाल सेना लेकर बूँदी पर जोरदार आक्रमण किया जिसका हाड़ाओं ने डटकर मुकाबला किया । बूँदी के राव बैरीसाल ने लड़ते हुए वीरगति प्राप्त की तथा दुर्ग पर होशंगशाह का अधिकार हो गया ।
उपलब्ध साक्ष्यों के अनुसार होशंगशाह ने जब गागरोण पर आक्रमण किया तब बूँदी के हाड़ाओं ने उसकी मदद की थी जो सम्भवतः उसके अधीन रहे होंगे । तत्पश्चात उसके उत्तराधिकारी महमूद खलजी और मेवाड़ के महाराणा कुम्भा ने अपने सैन्य अभियानों द्वारा हाड़ौती को अनेक बार पदाक्रान्त किया। महमूद खलजी ने एक के बाद एक तीन बार (वि०सं 1503, 1513 और 1515 में) हाड़ौती पर अभियान किये और बून्दी पर अधिकार कर लिया।
लेकिन उसकी शक्ति कमजोर पड़ते ही महाराणा कुम्भा ने बूँदी को अपने अधीन कर लिया। वीर विनोद’ के अनुसार बूँदी के हाड़ा राव भाँडा और उसके भाई साँडा ने लूटमार करते हुए अमरगढ़ के किले पर अधिकार कर लिया था। कुम्भा ने उनको सबक सिखाने हेतु अपनी सेना के साथ बूँदी दुर्ग को घेर लिया जिससे हाड़ा सन्धि करने को विवश हो गये । कुम्भलगढ़ प्रशस्ति (वि०सं 1517) में भी राणा कुम्भा की विजय तथा हाड़ौती के अधिपति से दण्ड लेने का उल्लेख हुआ है।
तत्पश्चात वीर विनोद के अनुसार समरकन्द नामक एक मुस्लिम शासक ने भाँडा को मार कर बूँदी पर अधिकार कर लिया। लेकिन कुछ ही अरसे बाद भाँडा के पुत्र नारायणदास ने उसे व उसके दुर्गाध्यक्ष दाऊद को मारकर अपना प्रतिशोध ले लिया तथा बूँदी पर फिर से हाड़ाओं का अधिकार हो गया। बूँदी का राव अर्जुन हाड़ा असीम साहसी और शूरवीर था।
गुजरात के सुलतान बहादुरशाह ने जब 1537 ई० में चित्तौड़ दुर्ग पर आक्रमण किया तब अर्जुन हाड़ा वहाँ एक बुर्ज की रक्षार्थ नियुक्त था। बुर्ज के निचले भाग में बारूदी सुरंग द्वारा आग लगाये जाने पर राव अर्जुन ने आसन्न विपत्ति का सामना करने के लिए अपनी तलवार निकाल ली और वीरतापूर्वक लड़ते हुए अपने प्राण दे दिये। इस सम्बन्ध में एक दोहा प्रसिद्ध है –
सोर कियो बहु जार घर परबत आडी सिला ।
तैं काढी तलवार, अधिपतिया हाडा अजा ।।
बारूदी सुरंग से निकली हुई अनलराशि (आग) में एक पत्थर रखकर और उस पर खड़े होकर हे हाड़ाराज अर्जुन ! तूने अपनी तलवार निकाल ली (धन्य है तेरा यह स्वर्गारोहण !) । अकबर के शासनकाल में बून्दी के राव सुर्जन हाड़ा ने रणथम्भौर दुर्ग मुगलों को सौंपकर उनकी अधीनता स्वीकार कर ली तथा वह शाही मनसबदार बना । उसने अकबर की तरफ से अनेक युद्ध अभियानों में भाग लेकर पराक्रम दिखाया ।
तदनन्तर जहाँगीर के शासनकाल में शाहजादे खुर्रम (शाहजहाँ) ने अपने पिता के विरुद्ध झण्डा खड़ा किया तो बूँदी के राव रतनसिंह हाड़ा ने उसे शरण दी तथा एक अवसर पर शहजादे की प्राणरक्षा भी की जिस आशय का यह दोहा प्रसिद्ध है-
सागर फूटा जल बहा, अब क्या करे जतन ।
जाता घर जहाँगीर का, राख्या राव रतन ।।
मुगल साम्राज्य के पराभव काल में जयपुर नरेश महाराजा सवाई जयसिंह ने एक विशाल सेना के साथ बूँदी पर आक्रमण किया तथा अपने बहनोई बुद्धसिंह हाड़ा को हटाकर दलेलसिंह को बूँदी का अधिपति बनाया । बुद्धसिंह की कछवाही रानी ने होल्कर की सहायता से एक बार फिर बुद्धसिंह को बूँदी का राज्य दिलवा दिया। उसकी कछवाही रानी ने होल्कर को अपना राखीबंध भाई बनाया था। लेकिन होल्कर के वापस लौटते ही सवाई जयसिंह ने बुद्धसिंह को वापस हटा दिया ।
मरहठों द्वारा पदाक्रान्त होने के अलावा बूँदी पर कुछ अरसे तक कोटा के महाराव भीमसिंह का भी अधिकार रहा । अन्ततः बूँदी राज्य अंग्रेजों के अधीन हो गया जो स्वतन्त्रता प्राप्ति तक रहा। इस प्रकार वीरता और बलिदान की अनेक रोमांचक घटनाओं का साक्षी तारागढ़ काल के क्रूर थपेड़ों को झेलता हुआ आज भी उस स्वर्णिम अतीत की याद दिलाता हैं।
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