महात्मा गाँधी की भारत वापसी
12 जून, सन् 1891 को आप भारत के लिए चल पड़े। यहाँ आकर उन्हें पता चला कि माताजी का स्वर्गवास हो गया। गाँधीजी रो पड़े। लन्दन में वे सपना देखा करते थे कि भारत लौटकर वे अपनी माताजी को बतायेंगे कि उन्हें दिया हुआ वचन निभाने के लिए गाँधीजी ने कितना कड़ा संघर्ष किया और यह सुनकर उनकी माताजी कितनी खुश होगी। गाँधीजी ने लिखा है, “पिताजी की मृत्यु से अधिक आघात मुझे माताजी की मृत्यु से पहुँचा।”
अब गाँधीजी बाईस वर्ष के युवक थे उनका पुत्र हीरालाल चार वर्ष का था। गाँधी जी बम्बई में अत्यन्त उत्साह के साथ वकालत आरम्भ की। परन्तु अदालत में जाकर उनकी जुबान नहीं खुलती थी। अपना प्रथम मुकदमा वे न चला पाये। उन्हें लगा, सारी अदालत घूम रही है।
अदालत में खड़े होते हुए ही पैर काँपने लगे, आँखों के सामने अँधेरा छा गया। हताश होकर बैठ गये और दलाल से बोले कि मुझसे पैरवी नहीं हो सकेगी। कोई दूसरा वकील कर लो। अपने व्यवसाय के प्रति बहुत निराश हो गए। उन्हें योग्य काम नहीं मिला। अन्त में वे राजकोट वापस लौट आये। वहाँ वकालत के लिए एक कार्यालय बनाया।
उन दिनों गाँधीजी के बड़े भाई पोरबन्दर के महाराज के सलाहकार थे। उन पर आरोप लगा कि उन्होंने किसी मामले में राजा साहब को गलत सलाह दी थी। इसका निर्णय ‘पॉलिटिकल एजेन्ट’ को करना था।
गाँधीजी जब लन्दन में थे तब इस ‘पोलिटिकल एजेन्ट’ से मिले थे और उससे मित्रता हो गई थी इसीलिए गाँधीजी बड़े भाई लक्ष्मीदास की इच्छा थी कि गाँधीजी अपने भाई की सिफारिश लेकर उसके पास जायें। यद्यपि महात्मा गाँधी की इच्छा नहीं थी फिर भी वे ‘पोलिटिकल एजेन्ट’ से मिले और अपने भाई का समर्थन किया। लेकिन चेतावनी दी कि इस प्रकार की विनती करना अयोग्य है।
फिर भी महात्मा गाँधी ने अपने भाई के प्रति समर्थन जारी रखा। इससे एजेन्ट परेशान हो गया और अपने नौकरों को आदेश देकर महात्मा गाँधी को दरवाजे की राह दिखायी। महात्मा गाँधी अत्यन्त लज्जित हो गये। वे अपमान की आग से जल रहे थे। इस कटु घटना ने उनके जीवन को पूर्णतया बदल दिया।